हस्तरेखा शास्त्र का इतिहास एवं परिचय
हस्तरेखा शास्त्र का इतिहास एवं परिचय

हस्तरेखा शास्त्र का इतिहास एवं परिचय  

राजेंद्र शर्मा ‘राजेश्वर’
व्यूस : 9289 | मार्च 2015

‘‘शब्दकल्पद्रुम खंड’’ के 14 वंे खंड के पृष्ठ 334 के अनुसार द्वापर युग में भगवान श्रीकृष्णजी ने देवाधिदेव उमापति महादेव जी के समक्ष मानव के शुभाऽशुभ लक्षण जानने की इच्छा प्रकट की। श्रीकृष्ण बोले -‘‘ की दृशः पुरुषो, अवन्द्यो वा कीदृशो भवेत्। कन्या व कीदृशो शस्या, गर्हिता वाऽपि की दृशी।।’’ इस पर भगवान शंकर जी ने कहा- ‘‘शृणु कृष्ण ! प्रवक्ष्यामि, समुद्रवचनं यथा। लक्षणन्तु मनुष्याणां, एकेनैव व्दाम्यहम्।।’’ हे कृष्ण ! प्राचीन समय में समुद्र ऋषि’’ ने मनुष्यों की आकृति, लक्षण, हाथ की रेखाओं व चिह्नों को देखकर जो शुभाऽशुभ फलादेश कहे हैं, वह सब मैं तुम्हें एक-एक करके सुनाता हूं, इसे ध्यानपूर्वक सुनो। (जब देवाधिदेव भगवान शंकर ने हस्तरेखा का ज्ञान ‘‘समुद्र ऋषि’’ के मुख से सुना तो ‘‘समुद्र ऋषि’’ स्वयं किस काल में हुए?) ‘‘समुद्र ऋषि’’ ऐसे ‘‘पहले भारतीय ऋषि’’ थे, जिन्होंने सूत्रबद्ध रूप से इस शास्त्र की स्वतंत्र रचना की। इसी कारण इनके पश्चात के विद्वानों ने ‘‘समुद्रेण’’ शब्द के आधार पर इस शास्त्र को ‘‘सामुद्रिकम्’’ की संज्ञा प्रदान की। इससे पूर्व तक यह शास्त्र अंगलक्षण शास्त्र के नाम से ही जाना जाता रहा। ‘‘सामुद्रिक मंगलक्षणमति सामुद्रिकं हि देहवताम्। प्रथममवाप्य समुद्रः कृतवानितिकीत्र्यते कृतिभि।।’’ समुद्र ऋषि के काल निर्धारण हेतु ‘‘श्री समुद्रेण प्रोक्तम् सामुद्रिक शास्त्रम्’’ के उपरोक्त श्लोकों के अतिरिक्त निम्न श्लोक भी विचारणीय है- तदापि नारदलक्षकवराहमाण्डव्यणण्मुखप्रमुखैः। रचितं क्वचित्प्रसंगात्पुरुष - स्त्रीलक्षणं किंचित।। श्रीभोज नृप सुमन्तप्रभृतीनामग्रतोपि विद्यन्ते। सामुद्रिक शास्त्राणि प्रायः गहनानि तानि परमम्।।’’ इस श्लोक के अनुसार समुद्र ऋषि के बाद नारद, वराह, माण्डण्य, षण्मुख, राजाभोज एवं सुमन्त आदि हुए। यहां नारद का जहां तक प्रश्न है, यह प्रजापति ब्रह्माजी के मानसपुत्र, बृहस्पति तथा सनत्कुमार के शिष्य देवर्षि नारद नहीं हो सकते। संभवतः यह सारस्वत कल्प के वह नारद हैं जिन्होंने ‘‘नारद-पुराण’’ की रचना की थी। आधुनिक इतिहासकार नारद पुराण को ईसा पूर्व छठी सदी के आस-पास की कृति मानते हैं। नारद पुराण में अंगलक्षणशास्त्र पर पर्याप्त सामग्री उपलब्ध है।

परंतु निर्विवाद रूप से इतना तो निश्चित है कि हस्तरेखा अवलोकन का प्रचलन भारतवर्ष में प्राचीनकाल से है। उस काल से जबकि विश्व की अन्य प्राचीन सभ्यताएं व संस्कृतियां विकसित भी नहीं हुई थी। ऐसा लगता है कि ‘‘समुद्र ऋषि’’ भी अनेक हुए अथवा यह एक पद्वी है जैसे- विक्रमादित्य, शंकराचार्य, इंद्र अनेक हुए, वैसे ही समुद्र ऋषि भी अनेक हुए। अतः समुद्रऋषि के काल का निर्धारण करना अत्यंत दुष्कर कार्य है। अर्वाचीन ऐतिहासिक संस्कृत ग्रंथों में ‘‘श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण’’ का नाम सर्वप्रथम आता है। वाल्मीकि ऋषि ही संस्कृत के आदि कवि माने जाते हैं। हिंदू मान्यताआंे के अनुसार यह रचना श्रीरामजन्म के पहले अर्थात आज से 12,96,000 वर्ष पूर्व त्रेतायुग की है। इस ग्रंथ में भी हस्तरेखा का विवरण प्राप्त होता है। यथा- ‘‘जिस समय भगवान श्रीराम वन-गमन हेतु सीता के पास गए और उन्होंने मन्तव्य बताया, उस समय सीता ने भी वन चलने का आग्रह किया और कहा कि मुझे तो वन जाना ही पड़ेगा, क्योंकि मेरी हथेली में इस तरह की रेखा है। ऐसा हस्तरेखा जानने वाले विद्वानों ने मुझे पिता के घर में बताया था। ‘‘ अथपि च महाप्रज्ञ ब्राह्मणाना भया श्रुतम्। पुरा पितृगृहे सत्यं वक्तव्यं किल में बने

।। 8 ।। लक्षणिभ्यो, द्विजातिभ्यः श्रृत्वाहं वचनं गृहे। वनासकृतोत्साहा नित्यमेव महाबल

।। 9।। आदेशो वनवासस्य प्राप्तव्यः स मया किल। सा त्वया सह भत्र्ताहं यास्याहिम प्रिय नान्यथा

।।10।। कृतदेशा भविष्यामि गमिष्यामि त्व्या सह। कालश्चायां समुत्पन्न्ः भवतु द्विजः

।। 11।। वनवासे हि जानामि दुःखानि बहथाकिल। प्राप्यन्ते नियतं वीर पुरूषैरकृतात्मभिः

।। 12 ।। कन्यया च पितृर्गेहे वनवासः श्रुतो मया। भिक्षिण्याः शमवृत्ताया मम मातुरिहाग्रतः

।। 13।। सर्ग 29 श्लोक 8 से 13 (श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण) ‘‘महाप्रज्ञ ! यद्यपि वन में दोष और दुख ही भरे हैं।

तथापि अपने पिता के घर पर रहते समय मैं ब्राह्मणों के मुख से पहले यह बात सुन चुकी हूं कि ‘मुझे अवश्य ही वन में रहना पड़ेगा’ यह बात मेरे जीवन में सत्य होकर रहेगी।’’ ‘‘महाबली वीर ! हस्तरेखा देखकर भविष्य की बातें जान लेने वाले ब्राह्मणों के मुख से अपने घर पर ऐसी बात सुनकर मैं सदा ही वनवास के लिए उत्साहित रहती हूं।’’ ‘‘प्रियतम ! ब्राह्मण से ज्ञात हुआ वन में रहने का आदेश एक-न-एक दिन मुझे पूरा करना ही पड़ेगा, यह किसी तरह पलट नहीं सकता। अतः मैं अपने स्वामी आपके साथ वन में अवश्य चलूंगी।’’ ‘‘ऐसा होने से मैं उस भाग्य के विधान को भोग लूंगी।

उसके लिए यह समय आ गया है। अतः आपके साथ मुझे चलना ही है; इससे उस ब्राह्मण की बात भी सच्ची हो जायेगी।’’ ‘‘वीर ! मैं जानती हूं कि वनवास में अवश्य ही बहुत से दुख प्राप्त होते हैं परंतु वे उन्हीं को दुख जान पड़ते हैं जिनकी इंद्रियां और मन अपने वश में नही रहते।’’ ‘‘पिता के घर पर कुमारी अवस्था में एक शांतिप्रिया भिक्षुकी के मुख से भी मैंने अपने वनवास की बात सुनी है। उसने मेरी माता के सामने ही ऐसी बात की थी।’’ वाल्मीकि काल में ही प्रसंगवश अत्रि, गालव, कश्यप, गर्ग, गौतम, वैश्म्पायन आदि के संदर्भ भी मिलते हैं जो कि सामुद्रिक विद्या के जानकार थे। वाल्मीकि के पश्चात महाभारत काल के ‘वेदव्यास’’ का नाम प्रामाणिक रूप में आता है। वेदव्यास के सामुद्रिक विज्ञान के संबंध में श्रीमद्भागवत एवं स्कन्दपुराण के निम्न दो श्लोक द्रष्टव्य हंै- ‘‘पदानि व्यन्तमेतानि नन्दसूनोर्महात्मनः। लक्षयन्ते हि ध्वजाम्भोज वज्रांकुश- यवदिभिः।। पादौ समांसलौ रक्तौ समौ सूक्ष्मौ सुशोभनौ। समगुल्फौ स्वेदहीनौ स्निग्धावैश्वर्थस सूचको।।’’ वेद व्यास के युग निर्धारण हेतु महाभारत सर्वश्रेष्ठ ग्रंथ है। पाण्डव युग के संबंध में ‘महाभारत के आदि पर्व, अध्याय 2, श्लोक 13 के अनुसार युद्ध का समय 8/11/2585 ईसा पूर्व निकलता है। आधुनिक विद्वानों के अनुसार 1500 से 3000 ईसा पूर्व माना जाता है। विष्णु पुराण के अनुसार कुल 28 व्यास हुए हैं जिनमें सर्वप्रथम स्वयंभू, प्रभु, ऋतु तथा अंतिम कृष्ण द्वैपायन व्यास हैं। ‘‘व्यास’’ एक पद्वी का नाम है। महर्षि वेदव्यास के बाद सूर्य, कात्यायन, छागलेय आदि विद्वानों के नाम भी सामुद्रिक शास्त्र की दृष्टि से उल्लेखनीय हैं। पराशर भी कई हुए हैं, परंतु वेदव्यास की शिष्य परंपरा में पराशर ऋषि के बृहत्पाराशरी तथा लघुपाराशरी नामक दो ज्योतिष ग्रंथ हैं जिनमें एक प्रसंग में सामुद्रिक अंग लक्षणों का विशद वर्णन है। इसी शृंखला में महर्षि पराशर से सैकड़ों वर्ष पश्चात् ज्योतिष के दैदीप्यमान नक्षत्र आचार्य वराहमिहिर का इतिहास प्राप्त होता है, जिन्होंने ईसा से सैकड़ांे वर्ष पूर्व ‘‘बृहत्संहिता’’ में सामुद्रिक शास्त्र की विस्तार से स्वतंत्र परिभाषाएं, लक्षण, एवं फलादेशों का वर्णन किया है। सामुद्रिक विज्ञान के क्षेत्र में मालवा प्रदेश स्थित धारा नगरी (वर्तमानधार मध्यप्रदेश) के महाराजा भोज जो संस्कृत साहित्य, राजनीति, तंत्र, ज्योतिष, सामुद्रिक एवं आयुर्वेदिक शास्त्रों के असाधारण विद्वान थे, इनका सामुद्रिक विज्ञान के क्षेत्र में ‘भोजकृत सामुद्रिकम्’ ग्रंथ प्रसिद्ध है।

यथा: अपसव्य करयोर्नश्वेषु सितबिन्दवश्चरणयोर्वा। आगन्तवः प्रशस्ताः पुरूषाणां भोजराजमतम्।। अंगुष्ठमूलादारभ्य भणेरवधिकं तुगाः। यावन्तो रेरिक्कास्तवावत् अपत्यानि विचारयेत्।। पुत्रास्तु दीर्घ-रेखाभिर्लघुभिर्दारिका मता। जीवनं भरणं त्वेषामभेदादभेदतः स्मृतं।। उपरोक्त संदर्भ से स्पष्ट है कि हस्तरेखा शास्त्र का भी आपको गहन अध्ययन था। ज्योतिष ग्रंथ ‘‘राजमृगांक’’ के अनुसार आपका समय ग्यारहवीं सदी सिद्ध होता है। उक्त ग्रंथ की रचना शक् 964 ईस्वी 1042 है। भारत में शक संवत् 1500 के लगभग श्री वीरसिंह नामक राजा ने रामपुत्र विश्वनाथ पंडित द्वारा होरा स्कन्ध-निरूपण नामक ग्रन्थ लिखवाया जिसे ‘वीरसिंह जातकोदय खंड’ भी कहा जाता है। इस ग्रंथ में ज्योतिष विषयों के अतिरिक्त सामुद्रिक जातक भी विस्तार से वर्णित है। भारत के पशुपति नगर अर्थात काशी में श्री शपादाब्ज सेवी श्रीमाधव गांवकर ने शक सम्वत् 1600 में ‘‘सामुद्रिक चिन्तामणि’’ नामक ग्रंथ की रचना की। भारत में शक सम्वत् 1787 में काशीनाथ पटवर्धन (म्हाड़कर) का जन्म हुआ। इनके संबंध में स्व. श्री बालकृष्ण दीक्षित जी का कहना है, कि- सर्वांग लक्षणों के आधार पर जातक की कुंडली बनाकर आप लग्न, ग्रहस्थिति, ग्रहांश आदि लगभग सत्य रूप से बतला देते थे। ईस्वी सन् 1900 से आजतक अनेक रचनाकार भारत में उत्पन्न हुए परंतु उनमें से उंगलियों पर गिने जाने योग्य उल्लेखनीय नाम दो या तीन ही हैं। सर्वप्रथम राजगढ़ के स्व. लक्ष्मीनारायण त्रिपाठी, दूसरे रतलाम म. प्र. के स्व. श्रीनिवास पाठक तथा तीसरे जोधपुर राजस्थान के डाॅ. भोजराज द्विवेदी हैं। उपरोक्त तथ्यों से यह प्रमाणित होता है कि हस्तरेखा भी उतना ही प्राचीन विज्ञान है जितना कि ज्योतिष शास्त्र और यह भारत की देन है। विश्वविख्यात हस्तरेखा विशेषज्ञ ‘‘काउन्ट लुइस हेमन’’ हुए जिनका जन्म सन् 1866 में हुआ था जिन्हें ‘‘कीरो’’ के नाम से जाना जाता है। कीरो का यह विश्वास था कि हस्तरेखा विज्ञान के सर्वप्रथम ज्ञाता भारतीय ही थे जिनका ज्ञान और सभ्यता संसार की अनेक सभ्यताओं के नष्ट हो जाने पर भी अभी तक जीवित है। यूनानी शब्द कीर के आधार पर कीरोमैन्सी (हस्तरेखा शास्त्र), कीरोनोमी (हस्तरचना) का प्रचलन हुआ। 425 ईसा पूर्व में अनेक्सागोरस नाम के विद्वान ने इस विद्या को अपनाया व पढ़ाया। हिस्पेनस को हरमीज की वेदी पर स्वर्णाक्षरों से लिखित हस्तरेखा शास्त्र की एक पुस्तक प्राप्त हुई थी जिसे उसने सिकन्दर के पास भेज दिया। अरस्तु, प्लिनी, पैराक्लेसस, कार्डमिस, मैग्नस, सम्राट आगस्ट तथा अन्य विदेशी विद्वानों ने भी इस विद्या को अपनाया व संरक्षण प्रदान किया।



Ask a Question?

Some problems are too personal to share via a written consultation! No matter what kind of predicament it is that you face, the Talk to an Astrologer service at Future Point aims to get you out of all your misery at once.

SHARE YOUR PROBLEM, GET SOLUTIONS

  • Health

  • Family

  • Marriage

  • Career

  • Finance

  • Business


.