सिद्धेश्वर शास्त्री द्वारा रचित ‘‘प्राचीन चरित्रकोश’ (1964) के अनुसार वैदिक साहित्य में निर्दिष्ट ‘स्वर्भानु’ का स्थान ही वैदिकोत्तर पुराकथा शास्त्र में राहु के द्वारा लिया गया है। श्रीमद्भागवत महापुराण में राहु को चंद्रार्क प्रमर्दन (सूर्य-चंद्र के तेज को नष्ट करने वाला) कहा गया है। बृहद योगरत्नाकर ग्रंथ के पृष्ठ 28 के अनुसार कई पुराणों में राहु का नामांतरण स्वर्भानु बताया गया है। श्रीमद्भागवत महापुराण में राहु की कन्या का नाम स्वर्भानुपुत्री कहा गया है। ज्योतिष शास्त्रों में भी अनेक स्थानों पर राहु को स्वर्भानु पुकारा गया है। राहु के उद्भव के संबंध में श्रीमद्भागवत, महाभारत, पद्मपुराण, मत्स्यपुराण, वायु पुराण, विष्णु पुराण तथा छान्दोग्य उपनिषद् इत्यादि में विस्तृत रूप से वर्णित है। दैत्यराज हिरण्यकश्यपु की पुत्री सिंहिका विप्रचिति नामक दैत्य को ब्याही गई थी।
सिंहिका के गर्भ से ही राहु की उत्पत्ति हुई थी। राहु के सौ भाई और भी थे। राहु ही सबसे बड़ा था। सिंहिका का पुत्र होने के कारण राहु को सैंहिकेय के नाम से पुकारा जाता है। एक समय देवताओं व दानवों के मध्य दीर्घकाल तक युद्ध चला। भगवान विष्णु ने दोनों पक्षों से कुछ समय के लिए युद्ध रोकने के लिए कहा ताकि समुद्र मंथन किया जा सके। इस बात पर दोनों पक्ष सहमत हो गए। समुद्रमंथन के लिए मन्दाचल पर्वत को मथानी के रूप में तथा नागराज वासुकि को रस्सी के रूप में लपेटकर मंथन किया गया। देवराज इंद्र के नेतृत्व में देवतागण वासुकि की पूंछ और दैत्यराज बली के नेतृत्व में असुरगण मुंह पकड़ कर मंथन करने लगे। समुद्र मंथन से सर्वप्रथम घोर कालकूट हलाहल विष निकला जिसे भगवान शिव ने स्वेच्छा से पान कर लिया लेकिन इसे अपने कंठ में ही रोके रखा जिस कारण उनका कंठ नीला हो गया।
इसी कारण भगवान शिव को नीलकंठ कहा जाता है। इसके पश्चात मंथन से कामधेनु गाय, उच्चैश्रवा नामक अश्व, ऐरावत नामक श्रेष्ठ हाथी, कौस्तुभ मणि, कल्पवृक्ष, भगवती लक्ष्मी, वारूणी देवी, अप्सराएं, चंद्रमा तथा अंत में अमृत कलश लेकर धन्वंतरी (आयुर्वेद के जनक) का आगमन हुआ। अमृत कलश को देखते ही दैत्य लोग उनके हाथ से कलश छीनकर भाग गए। देवताओं का मन दुखित हो गया तब उन्होंने भगवान विष्णु से प्रार्थना की। विष्णु ने कहा-तुम लोग खेद न करो, मैं अपनी माया से उनमें आपसी कलह करवाकर तुम्हारा काम बना दूंगा। तभी अमृत कलश को लेकर भागे दैत्य आपस में झगड़ने लगे, सभी पहले अमृत पीना चाहते थे। इस प्रकार जब तू-तू, मैं-मैं हो रही थी तभी भगवान विष्णु ने अद्वितीय सौंदर्यवती अवर्णनीय सुंदर स्त्री का रूप धारण कर त्रिभुवन मोहिनी के रूप में प्रकट हुये। अनुपम सुगंध और नुपूर की ध्वनि से समस्त दैत्यगण उस मोहिनी की तरफ आकर्षित हो गये और उसे ही अमृत वितरित करने का कार्य सौंप दिया और कहा हे सुंदरी ! हम देवता और दानव दोनों ही कश्यप ऋषि के पुत्र हैं।
अमृत प्राप्ति के लिए हम दोनों ने ही पुरूषार्थ किया और उसके लिए ही कलह हो रहा है। हे मानिनी! तुम न्याय के अनुसार निष्पक्ष भाव से हमें यह अमृत बांट दो। दैत्यों की इस प्रार्थना पर मोहिनी मुस्कुराई और तिरछी चितवन से कटाक्ष करते हुए बोली- मैं उचित अनुचित जो कुछ भी करूं, वह सब यदि तुमको स्वीकार हो तो मैं अमृत का वितरण कर सकती हूं। मोहिनी के मीठे एवं मृदु वचनों को सभी ने स्वीकार किया। मोहिनी रूपी भगवान विष्णु देवताओं को एक कतार में, दैत्यों को दूसरी कतार में, पंक्तिबद्ध बिठाया तथा पहले देवताओं को अमृतपान कराना प्रारंभ किया। जिस समय भगवान देवताओं को अमृत पिला रहे थे तभी सिंहिका का पुत्र राहु जो दैत्यों की कतार में बैठा था वह देवताओं का रूप धारण कर देवताओं की पंक्ति में जा बैठा और उसने भी अमृतपान कर लिया। दैत्य राहु की इस हरकत को सूर्य तथा चंद्रमा ने देख लिया तथा उन्होंने भगवान के समक्ष तत्काल उसकी पोल खोल दी।
तत्क्षण भगवान ने अपने तीक्ष्ण सुदर्शन चक्र से उसका सिर धड़ से अलग कर दिया लेकिन राहु अमृत को मुख में ले चुका था इसलिए वह धड़विहीन होने के बावजूद भी जीवित रहा और अमर हो गया। इसी कारण ब्रह्माजी ने उसे ग्रह बना दिया और राहु अन्य ग्रहों के साथ ब्रह्मा की सभा में बैठने लगा। ग्रह बनने के बाद भी राहु वैर-भाव से पूर्णिमा को चंद्र पर और अमावस्या को सूर्य पर आक्रमण करता है। इसे ग्रहण कहा जाता है। सिर छेदन के पश्चात सिर वाला भाग राहु कहलाया तथा धड़ वाला भाग केतु कहलाया। कालांतर में सिर के पीछे सर्प की देह उत्पन्न हो गई और धड़ के ऊपर सर्प का सिर उत्पन्न हो गया तथा ब्रह्मा जी ने दोनांे को ही ग्रह बना दिया। खगोलीय परिचय: चंद्र की कक्षा क्रांतिवृत्त को जिन दो स्थानों पर काटती है वे दोनों स्थान राहु और केतु कहलाते हैं।
चंद्र के आरोहीपात को राहु तथा अवरोहीपात को केतु कहते हैं। इन पात बिंदुओं (राहु-केतु) की सदा वक्र गति होती है और अपना एक भ्रमण (भचक्र का चक्कर) लगभग 18.6 वर्ष में पूरा कर लेते हैं। औसतन 3 कला 11 विकला प्रतिदिन इनकी गति होती है। ये दोनों ग्रह 180 डिग्री अंश की दूरी पर रहते हैं। आधुनिक गणनानुसार 6798 दिन 16 घंटा 44 मिनट और 24 सेकेंड में ये ग्रह द्वादश राशि को भोगते हैं तथा 18 मास एक राशि पर, 240 दिन एक नक्षत्र पर तथा 60 दिन एक नक्षत्र पाद पर रहते हैं। ज्योतिषीय परिचय: सिंहिका का बड़ा पुत्र राहु अष्टम ग्रह माना जाता है। पैठानीस गोत्र वाला तथा बर्बर देश के नैर्ऋत्य दिशा में सूर्याकार मंडल का निवासी है। इस दैत्य का शरीर काजल के पहाड़ जैसा, अंधकार रूपी, भयंकर, महाबलवान है।
यह चांडाल जाति का है तथा वन में रहता है। इसकी धातु शीशा है, दक्षिण-पश्चिम दिशा का स्वामी है। यह पृथकतावादी ग्रह है। यह दशम स्थान में बलशाली माना गया है। जिस भाव में स्थित होता है उसी में बाधा पहुंचाने की इसकी प्रकृति होती है। यह जिस ग्रह के साथ बैठता है उसको भी दूषित कर देता है। स्पष्ट रूप से तो राहु की कोई राशि निर्धारित नहीं है परंतु दशाफलों के निर्णय हेतु आचार्यों द्वारा राहु की उच्च राशि वृषभ, नीच राशि वृश्चिक, मूल त्रिकोण राशि मिथुन तथा राहु की स्व राशि कुंभ तथा मतांतर से कन्या मानी गयी है। अद्भुत विलक्षण वस्तुओं, अपस्मार, चेचक, नासूर, भूत-प्रेत-पिशाच बाधा, अरूचि, कीडे़, कोढ़, गुप्त रोग और गुप्त शत्रुओं का कारक ग्रह है।
रत्न गोमेद है। महादशा काल 18 वर्ष है। राहु का नैसर्गिक बल सूर्य से दुगुना माना गया है। राहु तृतीय, षष्ठ व एकादश भाव में शुभ माना गया है। पत्रिका में राहु पीड़ित होने पर पितृदोष का प्रभाव देता है। पराशर ऋषि के अनुसार राहु केंद्र भाव के स्वामियों के साथ केंद्र में हो तो राजयोग प्रदान करता है। बुध, शुक्र व शनि मित्र तथा सूर्य, चंद्र, मंगल व गुरु शत्रु हैं। पंचम, सप्तम व नवम भाव पर पूर्ण दृष्टि मानी जाती है। राहु बुध की राशियों में श्रेष्ठ फल प्रदान करता है। राहु सूर्य या चंद्र के साथ होने पर ग्रहण योग, मंगल के साथ अंगारक योग, बुध के साथ जड़त्वयोग, गुरु के साथ चांडालयोग, शुक्र के साथ लम्पट योग व शनि के साथ होने से धूर्त योग (मान्दी योग) निर्मित करता है।
सूर्य$चंद्र के साथ राहु पूर्ण ग्रहण योग निर्मित करता है। यह युति वर्ष में एक बार होती है। किसी भी माह की अमावस्या के दिन या शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा के दिन यह युति संभव है।