चक्रवर्ती सम्राट के पद का मोह त्यागकर श्री शुकदेव बाबा जी के चरणों में स्थित महाराज परीक्षित् ने पूछा - भगवन्! पृथु वंश की राज्य परंपरा व भक्त श्रेष्ठ नारदजी द्वारा राजा प्राचीन बर्हिं को दिए आत्म विषयक ज्ञान का कृपा करके श्रवण कराइये। उन पर किस प्रकार किस कारण से नारायण के परम भक्त देवर्षि नारद जी ने कृपा की? व्यास नन्दन श्री शुकदेव जी कहते हैं - राजन् ! महाराज पृथु के बाद उनके पुत्र परम यशस्वी विजिताश्व राजा हुए। इंद्र से भी प्रसिद्धि मिली। इनका छोटे भाइयों पर विशेष स्नेह था, सो हर्यक्ष को पूर्व, धूम्रकेश को दक्षिण, वृक को पश्चिम और द्रविण को उत्तर दिशा का राजा बना दिया। अंतर्धान की पत्नी का नाम शिखण्डिनी था। उनके तीन पुत्र पावक, पवमान, शुचि आगे चलकर वशिष्ठजी के शाप की सार्थकता को सिद्ध कर पुनः योगमार्ग से अग्निरूप हो गए। अंतर्धान की दूसरी पत्नी से हविर्धान का जन्म हुआ। इन्होंने परमात्मा की आराधना करके सुदृढ़ समाधि के द्व ारा भगवान् के दिव्य लोक को प्राप्त किया। हविर्धान की पत्नी हविर्धानी से बर्हिषद सहित छः पुत्र उत्पन्न हुए। बर्हिषद यज्ञादि, कर्मकांड और योगाभ्यास में कुशल थे। उन्होंने प्रजापति का पद प्राप्त किया।
इन्होंने लगातार इतने यज्ञ किए कि यह संपूण्र् ा पृथ्वी पूर्व की ओर अग्रभाग करके फैलाए हुए कुशों से आच्छादित हो गयी। यही आगे चलकर ‘प्राचीनबर्हि’ नाम से विख्यात हुए। राजा प्राचीन बर्हि ने ब्रह्माजी के कहने से समुद्र की कन्या ‘शतद्रुति’ से विवाह किया। सर्वांग सुन्दरी अग्निदेव को भी मोहित करने वाली शतद्रुति के गर्भ से प्रचेता नाम के दस पुत्र हुए। ये सब बड़े ही धर्मज्ञ व एक से नाम व आचरण युक्त थे। जब पिता ने उन्हें संतान उत्पन्न करने का आदेश दिया, तब मार्ग में तपस्या को जाते समय उन्हें श्री महादेव के दर्शन हुए। त्रिलोकीनाथ ने कहा- तुम राजा प्राचीन बर्हि के पुत्र हो, तुम्हारा कल्याण हो। तुम जो कुछ करना चाहते हो, वह भी मुझे ज्ञात है। इस समय तुम पर कृपा करने के लिए ही मैंने तुम्हें इस प्रकार दर्शन दिया है। जो व्यक्ति अव्यक्त प्रकृति तथा जीव संज्ञक पुरूष इन दोनों के नियामक भगवान वासुदेव की साक्षात शरण लेता है, वह मुझे परम प्रिय है। अपने वर्णाश्रम धर्म का उचित रीति से पालन करने वाला पुरूष सौ जन्म के बाद ब्रह्मा के पद को प्राप्त होता है और इससे भी अधिक पुण्य होने पर वह मुझे प्राप्त होता है।
परंतु जो भगवान का अनन्य भक्त है, वह तो मृत्यु के बाद ही सीधे भगवान् विष्णु के उस सर्व प्रांचातीत परमपद को प्राप्त हो जाता है, जिसे रूद्र रूप में स्थित तथा अन्य अधिकारिक देवता अपने-अपने अधिकार की समाप्ति के बाद प्राप्त करेंगे। तुम लोग भगवद् भक्त होने के नाते मुझे भगवान के समान ही प्यारे हो। भगवान् शिव ने अपने सामने हाथ जोड़े खड़े हुए उन राजपुत्रों को बड़ा ही पवित्र, मंगलमय और कल्याणकारी योगादेश नामका स्तोत्र सुनाया और कहा -राजकुमारांे ! तुम लोग विशुद्धभाव से स्वधर्म का आचरण करते हुए भगवान् में चित्त लगाकर मेरे कहे हुए स्तोत्र का जप करते रहो, भगवान् तुम्हारा कल्याण करेंगे। जो पुरूष ऊषा काल में उठकर इसे श्रद्धापूर्वक हाथ जोड़कर सुनता या सुनाता है, वह सब प्रकार के कर्मबंधनों से मुक्त हो जाता है। अब तुम इस परमपुरूष परमात्मा के स्तोत्र को एकाग्रचित्त से जपते हुए महान् तपस्या करो। तपस्या पूर्ण होने पर इसी से तुम्हें अभीष्ट फल प्राप्त हो जायेगा। भोलेनाथ राजकुमारों के सामने ही अंतर्धान हो गये। प्रचेताओं ने भी पश्चिम दिशा में स्थित समुद्र में प्रवेश किया। वहां दस हजार वर्षों तक तपस्या करते हुए, उन्होंने तप का फल देने वाले श्रीहरि की आराधना प्रारंभ की।
श्री शुकदेव जी कहते हैं- राजन् ! प्रचेताओं के जाने के बाद राजा प्राचीनबर्हि का चित्त कर्मकांड में रम गया था। उन्हें अध्यात्मविद्या- विशारद परमकृपालु नारद जी ने उपदेश दिया और कहा राजन् ! दुख के आत्यन्तिक नाश और परमानंद की प्राप्ति का नाम कल्याण है वह तो कर्मों से नहीं मिलता। राजा ने कहा-महाभाग नारदजी! मेरी बुद्धि कर्म में फंसी हुई है, इसलिए मुझे आप विशुद्धज्ञान का उपदेश दीजिए, जिससे मैं कर्मबंधन से छूट जाऊँ। श्रीनारदजी ने कहा - देखो, राजन् ! तुमने यज्ञ में निर्दयता पूर्वक जिन हजारों पशुओं की बलि दी है- उन्हें आकाश में देखो। ये सब बदला लेने की बाट देख रहे हैं। ये तुम्हें अपने लोहे के सींगों से छेद देंगे। अतः इस विषय में मैं तुम्हें एक प्राचीन राजा पुरंजन के चरित्र उपाख्यान सुनाती हूं, सावधान होकर सुनो- देवर्षि नारद जी ने कहा राजन् ! पूर्वकाल में पुरंजन नाम का एक बड़ा यशस्वी राजा था। उसका अविज्ञात नामक एक मित्र था। कोई भी उसकी चेष्टाओं को समझ नहीं सकता था। राजा पुरंजन भोगों की लालसा को पूर्ण करने हेतु ऐसे नगर की खोज में निकला, जहां रहकर वह भोगों को आनंदपूर्वक भोग सके, परंतु सारी पृथ्वी में घूमने के बाद भी उसे कोई अनुरूप स्थान न मिला, तब वह कुछ उदास सा हो गया।
एक दिन उसने हिमालय के दक्षिण तटवर्ती शिखरों पर कर्मभूमि भारतखंड में एक नौ द्वारों का सब प्रकार के सुलक्षणों से युक्त सुंदर नगर देखा। यह नगर स्वर्ग की तरह शोभायमान था। बाग बगीचों, सरोवरों व पक्षियों के कलरव से गुंजायमान उस नगर के रमणीय वन में राजा पुरंजन ने एक सुंदरी को दस सेवकों के साथ आते देखा। ये सेवक सौ-सौ नायिकाओं के पति थे। एक पांच फन वाला सांप उसका द्वारपाल था। वही सब ओर से उस नगर की रक्षा करता था। देवी के समान सौंदर्य शालिनी, गजगामिनी बाला, भोली-भाली किशोरी विवाह के लिए श्रेष्ठ पुरुष की खोज में थी। उसकी प्रेम से भटकती भौंह और प्रेमपूर्ण तिरछी चितवन के बाण से घायल होकर राजा ने कहा- कमलदल लोचने! तुम कौन हो, किसकी कन्या हो। तुम्हारे साथ में ग्यारहवें शूरवीर से संचालित ये दस सेवक, सहेलियां, आगे-पीछे चलने वाला सर्प कौन है? सुभगे! मैं बड़ा ही वीर और पराक्रमी हूं। परंतु आज तुम्हारे कटाक्षों ने मेरे मन को बेकाबू कर दिया है। यह शक्तिशाली कामदेव मुझे पीड़ित कर रहा है। इसलिए सुंदरी ! लक्ष्मी जी जिस प्रकार भगवान् विष्णु के साथ बैकुंठ की शोभा बढ़ाती हैं, उसी प्रकार तुम मेरे साथ इस श्रेष्ठ पुरी को अलंकृत करो।
जब राजा पुरंजन ने अधीर होकर इस प्रकार याचना की, तो उस बाला ने भी राजा की बात का अनुमोदन किया। वह कहने लगी- नरश्रेष्ठ! आज हम इस पुरी में हैं- इसके सिवा मैं और कुछ नहीं जानती, मुझे यह भी पता नहीं, कि हमारे रहने के लिए यह पुरी किसने बनायी है। ये पुरूष मेरे सखा और स्त्रियां मेरी सहेलियां हैं। मेरे सो जाने पर यह सर्प जागता हुआ पुरी की रक्षा करता है। शत्रुदमन! आपका इस नगर में स्वागत है। आप इस नौ द्वारों वाली नगरी में इच्छित विषय भोगों को भोगते हुए सैकड़ों वर्षों तक निवास कीजिए। मैं अपने साथियों सहित सभी प्रकार के भोग प्रस्तुत करती रहूंगी। इस लोक में गृहस्थाश्रम में ही धर्म, अर्थ, काम, संतान सुख, मोक्ष, सुयश और स्वर्गादि दिव्य लोकों की प्राप्ति हो सकती है। वीर शिरोमणे ! वह कौन स्त्री होगी, जो आपका वरण न करेगी। श्री नारदजी कहते हैं- राजन उन स्त्री पुरुषों ने एक-दूसरे की बात का समर्थन कर सौ वर्षों तक उस पुरी में रहकर आनंद भोगा। उस पुरी के नौ द्वार थे। सात नगरी ऊपर और दो नीचे थे। यह द्व ार उस पुरी में रहने वाले राजा के लिए पृथक-पृथक देशों में जाने के लिए ही थे।
जब कभी राजा अपने प्रधान सेवक विषूचीन के साथ अन्तःपुर में जाता, तब उसे स्त्री और पुत्रों के कारण होने वाले मोह, प्रसन्नता एवं हर्ष आदि विकारों का अनुभव होता। कर्मों में फंसा हुआ राजा अपनी रमणी के अनुसार ही कार्यों का अनुमोदन करता। रमणी के सो जाने पर सो जाता, भोजन करने पर भोजन करता तथा मदिरा पान करने पर स्वयं भी मद्यपान करता आदि-आदि। राजा पुरंजन अपनी सुंदरी रानी के द्वारा ठगा गया। राजन्! एक दिन राजा पुरंजन अपना विशाल धनुष व अक्षय तरकस धारण कर अपने ग्यारहवें सेनापति के साथ पांच घोड़ों के शीघ्रगामी सुसज्जित रथ में बैठकर अपनी प्रिया को क्षणभर भी छोड़ने में असह्य पीड़ा से युक्त सा, रमणी के बिना ही बड़े ही गर्व से धनुष-बाण चढ़ाकर वन में आखेट करने लगा। पुरंजन के तरह-तरह के पंखों वाले बाणों से छिन्न-भिन्न होकर अनेक जीव बड़े कष्ट के साथ प्राण त्यागने लगे। दयालु पुरूषों को इस बात से बड़ा दुख हुआ। राजा पुरंजन भूख प्यास से शिथिल हो वन से लौटकर राजमहल में आया। स्नान, भोजनोपरांत काम से व्यथित हो सुंदरी भार्या को ढूंढ़ने लगा, वह कहीं भी दिखाई न दी। तब राजा की व्याकुलता को देखकर स्त्रियों ने कहा नरनाथ! पता नहीं आज आपकी प्रिया बिना बिछौने के ही पृथ्वी पर पड़ी हुई है।
राजा ने भी धीरे-धीरे उसे मनाना आरंभ किया। पहले उसके चरण छुए और फिर गोद में बिठाकर प्यार भरी बातें करते हुए कहा- प्रिये ! मैं व्यसनवश तुमसे बिना पूछे शिकार खेलने चला गया, इसलिए अवश्य अपराधी हूं। फिर भी अपना समझकर तुम मुझ पर प्रसन्न हो जाओ। पुरंजनी ने राजा का आलिंगन किया और राजा ने उसे गले लगाया। फिर एकांत में मन के अनुकूल रहस्य की बात करते हुए ऐसा मोहित हो गया कि उसे दिन-रात के भेद से निरंतर बीतते हुए काल की दुस्तर गति का भी कुछ पता न चला। उस पुरंजनी से राजा पुरंजन के ग्यारह सौ पुत्र और एक सौ दस कन्यायें हुईं। योग्य बंधुओं व वरों के साथ विवाह संपन्न हुआ। पुत्रों को 100-100 पुत्र प्राप्ति का सौभाग्य मिला। इस प्रकार पुरंजन का वंश कल्याण करने वाले कर्मों की ओर से असावधान रहा। अंत में वृद्ध ावस्था ने आ घेरा। राजन्। चन्डवेग नाम वाला गन्धर्व तीन सौ साठ महाबलवान् गन्धर्वों और उतनी ही मिथुन भाव से स्थित कृष्ण व शुक्ल वर्ण की गन्धर्वियों को साथ लेकर राजा पुरंजन के नगर को लूटना प्रारंभ कर दिया। तब पांच फन वाला सर्प सौ वर्ष तक अकेला ही उनसे युद्ध करता रहा। स्त्री के वशीभूत रहने के कारण राजा को अवश्यम्भावी भय का पता ही न चला।
बर्हिष्मन् ! इन्हीं दिनों काल की एक कन्या भाग्यहीना (दुर्भगा) ‘जरा’ त्रिलोकी में वर की खोज में भटकने लगी तब राजर्षि पुरू ने पिता को अपना यौवन देने के लिए अपनी ही इच्छा से उसे वर लिया, इससे प्रसन्न होकर उसने उन्हें राज्य प्राप्ति का वर दिया था। एक दिन मैं ब्रह्मलोक से पृथ्वी पर आया तो मुझे नौष्ठिक ब्रह्मचारी जानकर उसने वरना चाहा। मैंने उसकी प्रार्थना स्वीकार नहीं की। इस पर कुपित होकर जरा ने मुझे दुःसह शाप दिया कि ‘‘तुम एक स्थान पर अधिक देर तक न ठहर सकोगे।’’ तब कालकन्या मेरी सम्मति से यवनराज भय के पास गयी और पति रूप में स्वीकार करने की बात कही। तब यवनराज ने विधाता का गुप्त कार्य कराने की इच्छा से मुस्कराते हुए उससे कहा- तू सबका अनिष्ट करने वाली है, इसी कारण किसी को अच्छी नहीं लगती। इसलिए इस कर्म जनित लोक को तू अलाक्षेत होकर बलात् भोग। यह प्रज्वार नाम का मेरा भाई है और तू मेरी बहिन बन जा। तुम दोनों के साथ मैं अव्यक्त गति से भयंकर सेना लेकर सारे लोकों में विचरूंगा। श्रीनारदजी कहते हैं - राजन् ! सर्वत्र विचरण करते हुए उन्होंने सब प्रकार की सुख संपन्न सामग्रियों से युक्त पुरंजनपुरी को घेरकर उसका उपभोग करने लगे।
राजा पुरंजन भी क्लेशों से आक्रांत हो गये। कालकन्या के आलिंगन से उसकी सारी श्री नष्ट हो गयी। राजा पुरंजन के सभी सेवक कालयवन की सेना के अधीन हो गए। महाबली यवनराज के बलपूर्वक खींचने पर भी राजा पुरंजन ने अज्ञानवश अपने हितैषी एवं पुराने मित्र अविज्ञात का स्मरण नहीं किया। वह वर्षों तक विवेकहीन अवस्था में अपार अंधकार में पड़ा निरंतर कष्ट भोगता रहा। स्त्री की आसक्ति से ही उसकी यह दुर्गति हुई थी। अंत समय में भी पुरंजन को उसी का चिंतन बने रहने के कारण दूसरे जन्म में मृपश्रेष्ठ विदर्भराज के यहां उसने सुंदरी कन्या के रूप में जन्म लिया। तब शत्रुओं के नगरों को जीतने वाले पाण्ड्य नरेश महाराज मलयध्वज ने समरभूमि में समस्त राजाओं को जीतकर उसके साथ विवाह किया। उससे एक श्यामलोचना कन्या और उससे छोटे सात पुत्र उत्पन्न किए, जो आगे चलकर द्रविड़ देश के राजा हुए। अंत में राजर्षि मलयध्वज पृथ्वी को पुत्रों में बांटकर भगवान् श्रीकृष्ण की आराधना करने की इच्छा से मलय पर्वत पर चले गए। मत्तलोचना वैदर्भी ने भी मोह त्यागकर पांड्य नरेश का अनुगमन किया।
यम-नियमादि के द्वारा इन्द्रिय प्राण और मन को वश में करके वे आत्मा में ब्रह्मभावना करने लगे। पतिपरायणा वैदर्भी समस्त भोगों को त्यागकर अपने परम धर्मज्ञ पति की सेवा बड़े प्रेम से करती रही। मलयध्वज महाराज ने अपनी आत्मा को परब्रह्म में और परब्रह्म को आत्मा में अभिन्न रूप से देखा और अंत में इस अभेद चिंतन को भी त्यागकर सर्वथा शांत हो गए। देवर्षि नारदजी कहते हैं- राजन् वैदर्भी ने लकड़ियों की चिता बनाकर उसने उस पर पति का शव रखा और अग्नि लगाकर विलाप करते-करते स्वयं सती होने का निश्चय किया। इसी समय उसका कोई पुराना मित्र एक आत्मज्ञानी ब्राह्मण वहां आया। उसने उस रोती हुई अबला को मधुर वाणी से समझाते हुए कहा- तू कौन है? किसकी पुत्री है और यह पुरूष कौन है? क्या तुम मुझे नहीं जानती? मैं वही तेरा मित्र हूं, जिसके साथ तू पहले विचरा करती थी। सखे! तुम्हें क्या अपनी याद आती है, किसी समय मैं तुम्हारा अविज्ञात नाम का सखा था। आत्मज्ञानी ब्राह्मण ने पूर्व की समस्त स्मृतियों का ज्ञान कराते हुए कहा- देखो, तुम न तो विदर्भ राज की पुत्री हो या न यह वीर मलय ध्वज तुम्हारा पति ही।
जिसने तुम्हें नौ द्वारों के नगर में बंद किया था, उस पुरंजनी के पति भी तुम नहीं हो। यह सब मेरी फैलायी माया का प्रभाव है। वास्तव में हम दोनों तो हंस हैं, वास्तविक स्वरूप का अनुभव करो। मित्र् जो मैं (ईश्वर) हूं, वही तुम (जीव) हो। तुम मुझसे भिन्न नहीं हो, हम दोनों अभिन्न हैं। एक ही आत्मा विद्या और अविद्या की उपाधि के भेद से अपने को ईश्वर और जीव के रूप में दो प्रकार से देख रहा है। इस प्रकार जब हंस (ईश्वर) ने उसे सावधान किया, तब वह मानसरोवर का हंस (जीव) अपने स्वरूप में स्थित हो गया और उसे अपने मित्र के बिछोह से भूला हुआ आत्मज्ञान फिर प्राप्त हो गया। देवर्षि नारदजी कहते हैं- प्राचीनबर्हि। मैंने तुम्हें परोक्ष रूप से यह आत्मज्ञान का दिग्दर्शन कराया है; क्योंकि जगत्कर्ता जगदीश्वर को परोक्ष वर्णन ही अधिक प्रिय है। राजन्! आत्मा, परमात्मा, जीव-ईश्वर का मिलन ही सर्वोपरि है, अतः आत्मज्ञान को अंतःकरण में धारण कर अपने कल्याण का साधन करो।
जो इस पुरंजनोपाख्यान का स्मरण, चिंतन, मनन करता है वह सांसारिक विषय वासनाओं का त्याग करता हुआ आत्मतत्व में स्थित हो कल्याण को प्राप्त हो जाता है। भक्त श्रेष्ठ नारद जी ने राजा प्राचीन बर्हि को जीव और ईश्वर के स्वरूप का दिग्दर्शन कराया फिर वे उनसे विदा लेकर सिद्ध लोक को चले गए। राजा ने भी एकाग्रमन से भक्तिपूर्वक श्री हरि के चरण कमलों का चिंतन करते हुए सारूप्य पद प्राप्त किया।