एक बार की बात है। सूर्य देव अस्ताचल के समीप पहुंच चुके थे। शीतल-मंद समीर बह रहा था। गंधमादन पर्वत पर भक्तराज श्रीहनुमान जी महाराज अपने परम प्रभु श्रीराम की भुवन मोहन झांकी निहारते हुये भक्ति में आनंद विह्वल थे। उनका रोम-रोम पुलकित था। ध्यानावस्थित आंजनेय को बाह्य जगत की स्मृति भी न थी। उसी समय छायापुत्र शनिदेव उधर से गुजरे। उन्हें अपनी शक्ति एवं पराक्रम का अत्यधिक अहंकार था। वे मन ही मन विचार कर रहे थे कि मुझमें अतुलनीय शक्ति है। इस सृष्टि में मेरी समता करने वाला कोई नहीं है। समता तो दूर की बात है, मेरे आने की सूचना से ही बड़े-बड़े रणवीर योद्धा एवं पराक्रमशील मनुष्य ही नहीं देव-दानव तक भी थर्रा उठते हैं। व्याकुल होने लगते हैं। मैं क्या करूं, किसके समीप जाऊं जहां उससे दो-दो हाथ कर सकूं? मेरी शक्ति का कोई उपयोग नहीं हो रहा है। इसी उधेड़-बुन में लगे शनिदेव की दृष्टि ध्यानमग्न श्रीराम भक्त हनुमान पर पड़ी। पवनपुत्र की ध्यानमग्नता एवं शांतिप्रिय वातावरण को देखकर शनिदेव को उनसे ईष्र्या होने लगी। ईष्र्या, उदासीनता, मिथ्या अहंकार शनि प्रभावित व्यक्ति की खास प्रधानता होती है।
शनिदेव का अकारण अहंकार जागा और उन्होंने सोचा नियमानुसार मैं इसकी राशि पर तो आ ही गया हूं, क्यों न अब दो-चार पटकनी देकर, इसकी दुर्दशा का आनंद भी हाथों हाथ ले लूं। अहंकार में भरे शनि ने पवनपुत्र के निकट जाकर अतिशय उद्दंडता का परिचय देते हुए अत्यंत कर्कश स्वर में उन्हें ललकारा- बंदर ! मैं प्रख्यात शक्तिशाली शनि तुम्हारे समक्ष खड़ा हूं और तुमसे युद्ध करना चाहता हूं। अतः अपना ये पाखंड त्यागकर मुझसे युद्ध के लिए खड़े हो जाओ। तिरस्कर करने वाली अत्यंत कटु वाणी को सुनकर भक्तराज हनुमान ने अपने नेत्र खोले और अत्यंत शालीनता के साथ मधुर वाणी में बोले- महाराज ! आप कौन हैं और कहां से पधारे हैं और आपके पधारने का उद्देश्य क्या है? शनि ने अहंकारपूर्वक उत्तर दिया - मैं परमतेजस्वी सूर्य का परम पराक्रमी पुत्र शनि हूैं। संसार मेरा नाम सुनते ही कांप उठता है। मैंने देव-दानव एवं मनुष्य लोक में सर्वत्र तुम्हारी प्रशंसा सुनी है। इसलिए मैं तुम्हारी परीक्षा लेना चाहता हूं। मैं तुम्हारी राशि पर आ चुका हूं। अतः तुम कायरता छोड़ निडर होकर मुझसे युद्ध करो, मेरी भुजाएं तुम्हारे बल का परिमापन करने के लिए फड़क रही हैं। मैं तुम्हें युद्ध के लिए ललकार रहा हूं।
अन्जना नंदन ने अत्यंत विनम्रतापूर्वक कहा- हे शनि देव ! मैं अत्यंत वृद्ध हो गया हूं और अपने प्रभु श्रीराम का ध्यान कर रहा हूं, इसमें व्यवधान मत डालिए। कृपापूर्वक आप अन्यत्र कहीं ओर चले जाएं। मदमस्त शनि ने सगर्व कहा- मैं कहीं जाकर लौटना नहीं जानता हूं, वहां अपनी प्रबलता और प्राधान्य तो स्थापित कर ही देता हूं। वानर श्रेष्ठ ने शनिदेव से प्रार्थना की- हे महात्मन् ! मैं अत्यंत वृद्ध हो गया हूं। युद्ध करने की क्षमता मुझमें नहीं है। मझे अपने प्रभु श्रीराम का ध्यान करने दीजिए। आप यहां से जाकर किसी और वीर योद्धा को ढूंढ़ लीजिए। मेरे भजन-ध्यान में विघ्न मत डालिए। ‘‘कायरता तुम्हें शोभा नहीं देती।’’ अत्यंत उद्धत शनि ने मल्लविद्या के परमाध्य वज्रांग श्री हनुमान की अवमानना के साथ व्यंग्यपूर्वक कर्कश स्वर में कहा- तुम्हारी स्थिति दयनीय है इसे देखकर मेरे मन में करूणा का संचार अवश्य हो रहा है परंतु मैं तुमसे युद्ध अवश्य करूंगा। इतना ही नहीं शनि ने दुष्टग्रह निहन्ता महावीर का हाथ पकड़ लिया और युद्ध के लिए ललकारने लगे। हनुमान ने झटककर अपना हाथ छुड़ा लिया।
युद्ध लोलुप शनि पुनः भक्तवर हनुमान का हाथ पकड़कर उन्हें युद्ध के लिए ललकारते हुए खींचने लगे। ‘‘आप नहीं मानेंगे।’’ धीरे से कहते हुए पिशाच ग्रह घातक वानर श्रेष्ठ ने अपनी पूंछ बढ़ाकर शनि देव को उसमें लपेटना शुरू कर दिया। रूद्र के अंशावतार श्री हनुमान ने अपनी पूंछ में ऐसा कसा कि कुछ ही क्षणों मं अविनीत सूर्यपुत्र क्रोध संरक्त लोचन समीरात्मज की सुदृढ़ पुच्छ में आकण्ठ आबद्ध हो गए। उनका अहंकार उनकी शक्ति एवं उनका पराक्रम व्यर्थ सिद्ध हुआ। वे सर्वथा असहाय, अवश और निरूपाय होकर दृढ़ता बंधन की पीड़ा से छटपटा रहे थे। इतने में ही रामसेतु का परिक्रमा का समय हो गया था। अंजनानंदन उठे और दौड़ते हुए सेतु की प्रदक्षिणा करने लगे। शनिदेव की संपूर्ण शक्ति से भी उनके बंधन शिथिल न हो सके। भक्तराज हनुमान के दौड़ने से उनकी विशाल पूंछ वानर-भालुओं द्वारा रखे गये शिलाखंडों पर गिरती जा रही थी। पूंछ से बंधे शनि पत्थरों, शिलाखंडों, बड़े-बड़े विशाल वृक्षों से टकराकर लहु-लुहान एवं व्यथित हो उठे। वीरवर श्री हनुमान दौड़ते हुए जान-बूझ करके भी अपनी पूंछ शिलाखंडों पर पटक देते थे। शनि की बड़ी अद्भुत एवं दयनीय हालत थी।
शिलाखंडों पर पटके जाने से उनका शरीर रक्त से लहुलुहान हो गया। उनकी पीड़ा की सीमा नहीं थी और उग्रवेग हनुमान की परिक्रमा में कहीं विराम नहीं दीख रहा था, तब शनि अत्यंत कातर स्वर में प्रार्थना करने लगे- करूणामय भक्तराज ! मुझ पर दया कीजिए। अपनी उद्दंडता का दंड मैं पा गया। आप मुझे मुक्त कीजिए। मेरा प्राण छोड़ दीजिए। दयामूर्ति हनुमान खड़े हुए। शनि देव का अंग-अंग लहुलुहान हो चुका था। असाध्य पीड़ा हो रही थी उनकी रग-रग में। विनितात्मा समीरात्मज ने शनि से कहा- यदि तुम मेरे भक्त की राशि पर कभी न आने का वचन दो तो मैं तुम्हें मुक्त कर सकता हूं और यदि तुमने ऐसा नहीं किया तो मैं तुम्हें कठोरतम दंड प्रदान करूंगा। सुखंदित वीरवर ! निश्चय ही मैं आपके भक्त की राशि पर कभी नहीं जाऊंगा।
पीड़ा से छटपटाते हुए शनि ने अत्यंत आतुरता से प्रार्थना की - आप कृपापूर्वक मुझे शीघ्र बंधन मुक्त कर दीजिए। शरणागतवत्सल भक्तप्रवर श्री हनुमान ने शनि को छोड़ दिया। शनि ने अपना शरीर सहलाते हुए गर्वापहारी मारूतात्मज के चरणों में सादर नमन एवं वंदन किया और चोट की अस्वस्थ पीड़ा से व्याकुल होकर अपनी देह में लगाने के लिए तेल मांगने लगे। उस दिन मंगलवार था। मंगलवार के दिन उन्हें जो तेल प्रदान करता है उसे वे संतुष्ट होकर आशीष देते हैं। मंगलवार के दिन श्री हनुमान जी महाराज को जो मनुष्य तेल चढ़ाता है वह सीधा शनि को प्राप्त होता है और शनि प्रसन्न होकर मानव को आशीर्वाद प्रदान करते हैं।