हस्तरेखा शास्त्र का विकास प्रथमतः भारत में ही हुआ। इसे सामुद्रिक शास्त्र के नाम से भी जाना जाता है। परंतु कुछ पाश्चात्य विद्वानों का ऐसा मानना है कि हस्तरेखा विज्ञान का प्रसार पहले चीन में ईसा मसीह के जन्म से 3000 वर्ष पूर्व हो चुका था। फिर वहां से यह विद्या विश्व के दूसरे देशों में विकसित हुई। लेकिन ग्रीस में चीन से पहले इस शास्त्र का प्रसार था। इसका प्रमाण ग्रीक साहित्य में मिलता है। पाॅलीमान, अलातुनिया, प्लिनी और हिसपानस आदि विद्वानों की स्मृतियों में इस बात का उल्लेख है। सच तो यह है कि हमारा भारतवर्ष या यों कहें तो आर्यावर्त ही अन्य विद्याओं की तरह हस्तरेखा ज्ञान का उद्गम स्थान रहा है। यह हमारे प्राचीन महर्षियों का अद्भुत ज्ञान ही था कि ग्रहों का मनुष्यों पर पड़ने वाले विस्तृत प्रभाव का उल्लेख सर्वप्रथम किया। साथ ही हस्तरेखाओं के आधार पर मनुष्य जीवन की घटनाओं का संबंध भी बताया।
उन्होंने इस शास्त्र का नाम ‘‘सामुद्रिक विद्या’’ दिया जिसके ज्ञान से मनुष्य के चिह्नों और हस्तरेखाओं के प्रभाव को जाना जा सकता है। समुद्र ऋषि ऐसे भारतीय ऋषि थे जिन्होंने क्रमिक रूप से अंगलक्षण और हस्तरेखाओं के अध्ययन का मार्ग प्रशस्त किया और इसी कारण ‘‘समुद्रेण’’ शब्द के आधार पर इस शास्त्र को सामुद्रिक की संज्ञा दी। वैसे यह शास्त्र इनसे पहले अंगलक्षण के नाम से जाना जाता था। समुद्र ऋषि के पश्चात अन्य प्रमुख विद्वानों में नारद, वराह, माण्डण्य, परामुख, राजाभोज और सुमंत आदि का नाम लिया जा सकता है। नारदपुराण को आधुनिक इतिहासकार ईसा पूर्व छठी शताब्दी के आस-पास मानते हैं। इस नारद पुराण में भी अंगलक्षण पर बहुतायत से सामग्री पायी जाती है। वाल्मीकि रामायण में भी अनेक स्थलों पर अंगलक्षण की चर्चा की गई है। चाहे श्रीराम के बारे में उनके महापुरूष होने के अंग लक्षणों का उल्लेख हो या फिर राम वध के असत्य समाचार सुनकर सीताजी के द्वारा अपने अंग लक्षणों को देखकर यह कहना कि वह विधवा नहीं हो सकती हैं कुछ पंक्तियां द्रष्टव्य है- ‘‘इमानि खलु- पद्मानि पादर्योवै कुलस्त्रियः। आधिराज्ये अभिपिच्यन्ते नरेन्द्रः पतिभिः सह।।
वैद्यण्यं सन्ति वै नार्चोऽलक्षणैर्भाग्य- दुर्लभा। बातमनस्तानि पश्यानि पश्यन्ती हत लक्षणा।।’’ वाल्मीकि रामायण में प्रस्तुत इस वर्णन से यह पूर्णतः सिद्ध होगा कि आदि कवि वाल्मीकि को अंग लक्षण का चमत्कारिक ज्ञान था। हिंदू मान्यताओं के अनुसार उनकी रचना त्रेतायुग की लगभग 1296000 वर्ष पूर्व की है। अन्य कई उदाहरण भी वाल्मीकि रामायण में हस्तरेखा ज्ञान के संबंध में मिलती है। अतः निष्कर्षतः यह कहा जा सकता है कि भारत ही हस्तरेखा शास्त्र का उद्गम स्थान रहा है। पाश्चात्य विद्वानों में ‘‘कीरो’’ को हस्तरेखा शास्त्र का ज्ञाता एवं भविष्यवक्ता के रूप में जाना जाता है। एक बार की घटना है - एक व्यक्ति की हत्या हो गई थी और स्काॅटलैंड यार्ड की पुलिस को खास सुराग नहीं मिल रहा था। उसी तमाशबीनों की भीड़ में से एक व्यक्ति ने अपना ‘‘विजिटिंग कार्ड’’ पुलिस को दिया और मदद करने की पेशकश की। उस विजिटिंग कार्ड पर लिखा था - ‘‘काउन्ट लुई हेमन कीरो’’ (हस्तरेखा विशेषज्ञ)। पुलिस ने उसे शव के पास जाने की इजाजत दे दी। कीरो ने शव के पास पाये गये अंगुलियों के निशान भी मांगे। उसने उसका बारीकी से अध्ययन किया और फिर अपनी आंखें मूंद ली। कीरो ने नेत्र खोलकर बताना शुरू किया - इस वृद्ध का हत्यारा निश्चित ही एक युवक है। यह सम्भ्रान्त परिवार से संबंध रखता है और अपनी बायीं-जेब में सोने की एक घड़ी रखता है। यह मृतक का निकट परिजन भी है। यह सुनकर वहां पर खड़े लोग और पत्रकारों ने उपहास भी किया। परंतु जांच करने पर कीरो की भविष्यवाणी सत्य साबित हुई। इससे अचंभित होकर उन्हीं पत्रकरों ने अपने पत्रों में कीरो के बारे में विस्तृत जानकारी छापी और कीरो रातांेरात विख्यात हो गये।
एक स्थल पर कीरो ने लिखा है कि वह सांसारिक प्रपंच से दूर होकर मन को एकाग्र कर यह कार्य करते हैं और उसने यह विद्या बनारस में सीखी है। कीरो का जन्म 1866 ई. में आयलैंड में हुआ था। सन् 1883 में सत्रह वर्ष की आयु में वे भारत आये। भारत के अनेक शहरों - पूना, मद्रास, कर्नाटक, कलकत्ता, बनारस आदि में रहकर विभिन्न ज्योतिष केन्द्रों में इन्होंने ज्ञानार्जन किया। फिर 1891 में इंग्लैंड, 1893 में अमेरिका और 1897 में रूस की यात्राओं के दौरान अपने हस्तरेखा ज्ञान से विश्व को चमत्कृत कर दिया। कीरो के पास विशेष शक्तियां भी थीं जिसके कारण उनकी भविष्यवाणियां सत्य होती गईं। परंतु अपनी मृत्यु के एक माह पूर्व ही उनकी चमत्कारिक शक्ति समाप्त हो गई और सन् 1936 में एक रात्रि सड़क किनारे लैंपपोस्ट के नीचे मृत पाये गये। अतः यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगी कि हस्तरेखा में ख्याति अर्जित करने के लिए हस्तरेखा ज्ञान के साथ व्यक्ति का उदार बनकर कम से कम कुछ घंटे अपने ईष्ट एवं ईश्वर में ध्यान लगाना चाहिए। ऐसा करने से मन निर्मल हो जाता है। उसे सर्वज्ञ का आशीर्वाद प्राप्त होता है और अंतः प्रेरणा से वह युक्त रहता है।