हृदय मनुष्य के शरीर का एक महत्वपूर्ण अंग है। संपूर्ण शरीर में रक्त संचरण का दायित्व भी हृदय का है। हृदय शुद्ध एवं स्वच्छ रक्त से स्वस्थ रहता है। हृदय कष्ट में हो तो दर्द होता है। हृदय क्षमता से अधिक कार्य कर सकता है। हृदय की कार्य करने की क्षमता कम होने पर हृदय दुर्बल कहलाता है। वात, पित्त, कफ का असंतुलन, परिश्रम, शोक, चिंता, तनाव इत्यादि हृदय रोग के कारण बनते हैं। वायु प्रकोप तथा धमनियों में तलहत जमा होने के कारण हृदय रोग उत्पन्न होता है। यदा-कदा जन्म से ही हृदय की बनावट में कमी होने के कारण भी यह रोग उत्पन्न होता है। किसी रोग की पहचान करने में ज्योतिष शास्त्र विशेष रूप से सहायक है।
मनुष्य की जन्मपत्रिका का अध्ययन करने पर जातक को जीवन में होने वाले रोगों के संबंध में भी पूर्वानुमान लगाया जा सकता है। मनुष्य की जन्मपत्रिका में छठा स्थान (भाव) रोग का होता है। आठवां स्थान (भाव) मृत्यु का तथा बारहवां स्थान (भाव) व्यय का होता है। सूर्य हृदय का प्रतिनिधित्व करता है, जिसका स्थान (भाव) पंचम है, जब पंचम स्थान, पंचम स्थान का स्वामी यानि पंचमेश तथा पंचम राशि सिंह पाप प्रभाव में होता है तो हृदयाघात की संभावना अधिक होती है। राहु-केतु में किसी एक ग्रह का पाप प्रभाव में होना भी आवश्यक है। मनुष्य के जीवन में घटनाएं अकस्मात रूप से घटित होती हैं, जो राहु-केतु के प्रभाव से ही घटती हैं।
हृदयाघात भी अकस्मात बिना किसी पूर्व सूचना के आता है। इसी कारण राहु-केतु का प्रभाव आवश्यक है। सर्वविदित है कि चतुर्थ स्थान (भाव) तथा दशम स्थान (भाव) हृदय कारक अंगों के प्रतीक हैं। चतुर्थ स्थान (भाव) का कारक चंद्र ग्रह भी आरोग्यकारक है। दशम स्थान के कारक ग्रह सूर्य, बुध, गुरु व शनि हैं। पंचम स्थान छाती, उदर (पेट), लीवर, किडनी व आंतों का प्रतीक है। ये अंग दूषित हांे तो हृदय को भी हानि होती है। पंचम स्थान बुद्धि (विचार) का भी होता है, गलत विचारों से भी हृदय रोग की वृद्धि होती है। षष्ठ स्थान (भाव) का कारक मंगल व शनि ग्रह है। मंगल रक्त का कारक व शनि वायु का कारक है। ये भी रोग कारक हैं।
अष्टम स्थान (भाव) रोग और रोगी की आयु का द्योतक है। अष्टम का कारक शनि है। जन्मपत्रिका के अध्ययन के समय स्थान अर्थात भाव व उनके कारकों का भी विशेष ध्यान रखना चाहिए। रोग के प्रकार को ज्ञात करने के लिए लग्न, षष्ठ तथा द्वादश भाव को भी भली-भांति देखना चाहिए। सूर्य-चंद्र, मंगल, शनि, राहु व केतु का भी विशेष ध्यान रखना चाहिए क्योंकि ये ग्रह भी रोग को प्रभावित करते हैं या बढ़ावा देते हैं। भरणी, कृत्तिका, ज्येष्ठा, विशाखा, आद्र्रा, उत्तराफाल्गुनी नक्षत्र हृदय रोग के कारक नक्षत्र हैं।
मनुष्य का जन्मनक्षत्र मघा, पूर्वाफाल्गुनी व उत्तराफाल्गुनी हो तो हृदय रोग अत्यधिक कष्टदायी होता है। जिन मनुष्यों का जन्म लग्न मिथुन, कर्क, सिंह, कन्या, तुला, कुंभ व मीन हो तथा जन्म राशि मेष, मिथुन, कर्क, सिंह, कन्या, तुला, कुंभ व मीन हो तो ऐसे मनुष्यों में हृदय रोग की अधिकता होती है। एकादशी, द्वादशी, चतुर्दशी (शुक्ल व कृष्ण पक्ष की) तथा पूर्णिमा एवं अमावस्या तिथि हृदय रोग की कारक तिथियां हैं। जिन मनुष्यों का जन्म इन तिथियों में हो तथा शुक्ल पक्ष में जन्मे को कृष्ण पक्ष में तथा कृष्ण पक्ष वाले को शुक्ल पक्ष में हृदय रोग उत्पन्न होता है। जिन मनुष्यों की जन्म तारीख (अंग्रेजी) 1, 4, 9, 10, 13, 18, 19, 22 27, 28 हो तो उन्हें हृदय रोग उत्पन्न होने की संभावना रहती है। चतुर्थेश लग्नेश, दशमेश व द्वादशेश के साथ अष्टमस्थ हों और अष्टमेश वक्री होकर, तृतीयेश होकर तृतीय स्थान (भाव) में हो, एकादशेश लग्नस्थ हो तो मनुष्य को हृदय रोग होता है।
षष्ठेश केतु के साथ हो तथा सूर्य, बुध या गुरु या शुक्र अष्टमस्थ हो, चतुर्थस्थ केतु हो तो हृदय रोग होता है। षष्ठेश की अष्टम स्थान पर स्थिति सूर्य, बुध, गुरु या शुक्र पर दृष्टिपात हो तो हृदय रोग होता है। शनि दशम दृष्टि से मंगल को पीड़ित करे, द्वादश स्थान पर राहु स्थित हो तथा षष्ठ भाव में केतु, चतुर्थेश व लग्नेश अष्टम स्थान में, द्वादशेश के साथ युति करे तो हृदय रोग उत्पन्न होता है।
मनुष्य को हृदय रोग होगा या नहीं यह जानने के लिए जन्मपत्रिका में पाए जाने वाले कुछ प्रमुख ज्योतिषीय योग निम्नानुसार हैं:
- सिंह लग्न की पत्रिका में सूर्य पाप ग्रह से पीड़ित हो।
- लग्न में बुध एवं सूर्य व शनि षष्ठेश या पापग्रहों से पीड़ित हो।
- मेष या वृषभ लग्न हो, दशमस्थ शनि हो व लग्न पर शनि की दृष्टि हो।
- लग्नस्थ शनि हो एवं दशम भाव का कारक ग्रह सूर्य, शनि से दृष्ट हो।
- लग्नेश निर्बल होकर पाप ग्रहों से दृष्ट हो तथा चतुर्थ स्थान में राहु स्थित हो।
- लग्नेश शत्रुक्षेत्री या नीचस्थ हो, मंगल चतुर्थ स्थान में स्थित और शनि से दृष्ट हो तो हृदय शूल होता है।
- सूर्य + शनि की युति त्रिक भाव या बारहवें भाव में हो तो हृदय रोग होता है।
- केतु + मंगल की युति चतुर्थ भाव में हो।
- अशुभ चंद्र शत्रु राशिस्थ या दो पाप ग्रहों के साथ चतुर्थस्थ हो।
- मंगल + शनि + गुरु की युति चतुर्थस्थ हो।
- सूर्य की राहु या केतु के साथ युति हो या उस पर इनकी दृष्टि हो। शनि व गुरु त्रिक स्थान अर्थात षष्ठ, अष्टम और द्वादश के अधिपति होकर चतुर्थस्थ हों।
- राहु+मंगल की युति केंद्र अर्थात लग्न, चतुर्थ, सप्तम व दशम में हो।
- नीच बुध के साथ, निर्बल सूर्य चतुर्थ भाव में युति करे, द्वितीयेश शनि लग्नस्थ हो और सप्तम भाव में मंगल स्थित हो, अष्टमेश तृतीयस्थ हो तथा लग्नेश गुरु $ शुक्र के साथ युत होकर राहु से पीड़ित हो एवं षष्ठेश राहु के साथ युत हो तो व्यक्ति को हृदय रोग अवश्य होता है।
- सूर्य, चंद्र व मंगल शत्रुक्षेत्री हों।
- चतुर्थ भाव में राहु या केतु स्थित हो तथा लग्नाधिपति पापग्रहों से युत या दृष्ट हो तो हृदयपीड़ा होती है।
- लग्नेश चतुर्थस्थ हो या नीचस्थ हो या मंगल चतुर्थ भाव में पाप ग्रह से दृष्ट हो या शनि चतुर्थ भाव में पाप ग्रहों से दृष्ट हो तो हृदय रोग होता है।
- शनि या गुरु षष्ठेश होकर चतुर्थस्थ हो या पापग्रहों से युत या दृष्ट हो तो हृदय कंपन का रोग होता है।
- पंचमेश षष्ठेश, अष्टमेश या द्वादशेश से युत हो अथवा पंचमेश षष्ठम, अष्टम व द्वादश स्थान में स्थित हो तो हृदय रोग होता है।
- चतुर्थ स्थान में मंगल स्थित हो उस पर पापग्रहों की दृष्टि पड़ रही हो तो रक्त के थक्कों के कारण हृदय रोग उत्पन्न करती है।
- पंचमाधिपति नीच का होकर शत्रुक्षेत्री हो या अस्त हो तो यह रोग होता है।
- पंचमाधिपति षष्ठम, अष्टम या द्वादश भाव में हो और पापग्रहों से दृष्ट हो।
- सूर्य पाप प्रभाव में हो तथा कर्क, सिंह राशि, चतुर्थ भाव, पंचम भाव एवं उसका स्वामी पाप प्रभाव में हो तो हृदय रोग होता है।
- चतुर्थ भाव स्वामी एकादश भाव में शत्रुक्षेत्री हो, अष्टमेश तृतीय भाव में शत्रुक्षेत्री हो, नवमेश शत्रुक्षेत्री हो, षष्ठेश नवम भाव में हो, चतुर्थ भाव में मंगल एवं सप्तम में शनि हो तो व्यक्ति को हृदय रोग होता है।
- सूर्य+मंगल+चंद्र की युति षष्ठ भाव में हो और पापग्रहों से पीड़ित हो तो हृदय शूल होता है।
- मंगल सप्तम भाव में निर्बल एवं पापग्रहों से पीड़ित हो तो रक्तचाप के कारण हृदय रोग होता है। सूर्य चतुर्थस्थ होकर शयनावस्था में हो तो हृदय में तीव्र पीड़ा होती है। हृदय रोग निवारण के कुछ प्रमुख उपाय जो अत्यंत प्रभावशील हैं-
- रोगी के सिरहाने एक सिक्का (कोई भी) श्रद्धानुसार रखकर उसे अगले दिन प्रातः सफाईकर्मी (भंगी) को दें तथा यह रोजाना 43 दिन तक बिना नागा के करें। मन में भाव रोगी के ठीक होने का रखें।
- एक पूरा पका हुआ काशीफल (पीला कद्दू) लेकर उसके बीज निकाल कर किसी भी मंदिर के प्रांगण में रखकर परमपिता परमेश्वर से स्वस्थ होने की करते हुए वहीं पर रख दें।
इस उपाय को सूर्योदय के पश्चात एवं सूर्यास्त से पूर्व करें। इस उपाय को कोई भी व्यक्ति जिसका रोगी से रक्त संबंध हो कर सकता है। इस उपाय को कम से कम पांच दिन तक अवश्य करें। कष्ट अधिक हो तो 7, 9, 11 दिन तक करें। इस प्रयोग में ईश्वर पर आस्था एवं निरंतरता बहुत ही महत्वपूर्ण है। यह उपाय आजमाया हुआ है।
- उत्तराफाल्गुनी नक्षत्र में ‘बेंत की जड़’ तथा ‘अनंतमूल की जड़’ लाकर उसे गंगाजल से धोकर (बेंत की जड़ रविवार को) (अनंत मूल की जड़ सोमवार को) क्रमशः काले धागे में 5 गांठ लगाकर तथा सफेद धागे में चार गांठ लगाकर चार बार लपेटकर दाहिनी भुजा या गले में धारण करें।
- मंगलवार को भरणी नक्षत्र में अनंत मूल की जड़ लाकर गंगाजल से धोकर लाल धागे में दस फेरे देकर दस गांठ लगाकर दाहिनी भुजा में धारण करें।
- शनिवार के दिन नारियल व सींक की झाडू भंगी को दक्षिणा के साथ दें।
- काले कुत्ते को शनिवार को मीठी रोटी खिलायें।
- गुड़ की चासनी में आटा गूंथकर अधपकी रोटी तन्दूर से जलवा लें। रोटी की संख्या निर्धारण हेतु जिस दिन उपाय करना हो उस दिन रोगी के आसपास जितने व्यक्ति हों, उन्हें गिनकर चार की संख्या अतिरिक्त जोड़ रोटी बनवा लें। इन रोटियों के दो बराबर भाग कर एक भाग गायों को तथा एक भाग कुत्तों को खिला दें। यह उपाय 3, 5, 7 दिन तक करें।
- धृतकुमारी का रस, तुलसी के पत्ते का रस, पान के पत्ते का रस, ताजा गिलोय के पंचांग का रस, सेब का सिरका एवं लहसुन की कली इन सबको बराबर की मात्रा में लेकर उबालकर एक चैथाई शहद के साथ उबाल लें और नियमित एक चम्मच प्रातः खाली पेट लें।
- ग्रहों की स्थिति के अनुसार रत्न धारण करें।
- सूर्य की स्थिति अशुभ (6, 8, 12) हो तो तांबे की अंगूठी या माणिक्य धारण करें। रविवार का व्रत रखें। नित्य सूर्याष्टक का पाठ करें। आदित्य हृदय स्तोत्र का पाठ करें। सूर्य की वस्तुएं दान करें। सूर्य के पौराणिक या तांत्रिक मंत्र का नित्य प्रति 1 माला (108) का जाप करें।
- प्राजापत्य यज्ञ करें। यज्ञ न कर सकें तो स्वर्ण गाय का दान करें। यह भी न कर सकें तो विष्णु सहस्त्रनाम के द्वारा तिल और घृत का हवन करें व नाम त्रय का जाप व कूषमांड हवन करें।
- सौंठ के क्वाथ में थोड़ा सा शहद मिलाकर पीने से हृदय शूल व हृदय रोग नष्ट होते हैं।
- अर्जुन वृक्ष की छाल (4 कि.ग्रा.), गाय की शुद्ध घी (1 कि.ग्रा.) शुद्ध जल (16 कि.ग्रा.) इन तीनों को मिलाकर पकायें। चार किलो शेष रहने पर छान लें। इस छने हुए क्वाथ में पुनः 250 ग्राम अर्जुन की छाल डालकर पुनः पकायें। केवल घृतांश (घी का अंश) रह जाने पर छान लें।
इस अर्जुन घृत योग का सेवन करते रहने से समस्त प्रकार के हृदय रोग समूल नष्ट हो जाते हैं। अत्यंत प्रभावी योग है।