भवन निर्माण में वास्तु देवता या वास्तु पुरुष का बड़ा महत्व है। ये भवन के प्रमुख देवता हैं। इनका मस्तक ईषान एवं पैर नैर्ऋत्य में रहते हैं। दोनों पैरों के पद तल एक-दूसरे से सटे होते हंै। हाथ व पैर की संधियां आग्नेय और वायव्य में होती हंै। षास्त्रों के अनुसार प्राचीनकाल में अंधकासुर दैत्य एवं भगवान षंकर के बीच घमासान युद्ध हुआ।
इस युद्ध में षंकर जी के षरीर से पसीने की कुछ बूंदें जमीन पर गिर पड़ीं। उन बंूदों से आकाष और पृथ्वी को भयभीत कर देने वाला एक प्राणी प्रकट हुआ। यह प्राणी तुरंत देवताओं को मारने लगा। तब सभी देवताओं ने उसे पकड़कर उसका मुंह नीचे करके दबा दिया और उसे शांत करने के लिए वर दिया ‘सभी शुभ कार्यों में तेरी पूजा होगी।
’ देवों ने उस पुरुष पर वास किया, इसी कारण उसका नाम वास्तु पुरुष पड़ा। उस महाबली पुरुष को औंधे मुंह गिराकर उस पर सभी देव बैठे हैं। अतः सभी बुद्धिमान पुरुष उसकी पूजा करते हैं। जो व्यक्ति उसकी पूजा नहीं करता उसे कदम-कदम पर बाधाओं का सामना करना पड़ता है, साथ ही उसकी अकाल मृत्यु होती है।
कब करें वास्तु पुरुष की पूजा गृह निर्माण के प्रारंभ में द्वार बनाने के समय, देवकी पूजन एवं मकान बनाकर परिपूर्ण होने पर गृह प्रवेष के समय इन तीनों अवसरों पर वास्तु पूजन किया जाना चाहिए। इसके अतिरिक्त यज्ञोपवीत, विवाह आदि के समय, जीर्णोद्धार तथा बिजली और अग्नि से जले मकान को पुनः बनाने के समय, जहां स्त्रियां लड़ती झगड़ती हांे या रोगी हों वहां और ऐसे अनेक उत्पातांे से दूषित घर में पुनः प्रवेष करते समय वास्तु षांति करानी चाहिए।
पुत्र जन्म एवं हर प्रकार के यज्ञ के प्रारंभ में वास्तु पुरुष की पूजा विधि विधान से करने पर घर के सभी प्रकार के दोष और उत्पातों का षमन होता है तथा सुख-षांति और कल्याण की प्राप्ति होती है वास्तु-पुरुष एवं वास्तु पीठ कर्मकांड में वास्तु-पुरुष की पूजा के लिए अलग-अलग प्रकार के वास्तु पीठांे की स्थापना का विधान है। जितनी जमीन पर घर का निर्माण करना हो उतनी जमीन से वास्तु-पुरुष की कल्पना की जाती है। इस प्रकार एक पद से लेकर हजार पद वाले वास्तु की पूजा होती है। प्राचीन ग्रंथ वास्तु राजवल्लभ में कहा गया है कि: ग्रामें भूपति मंदिरे च नगरे पूज्यः चतुःषष्टिके। एकाशीतिपदै समस्त भवने जीर्णो नवाद्धं शर्केः।
प्रसारे तु शतांशकैः तु सकले पूज्य तथा मण्डपे। कू पेषझनवचतुभाग-साहिनों वाण्यां तडागे वने।। अर्थात गांव बसाते समय और नगर या राजमहल बनाते समय 64 पद वास्तु की पूजा करनी चाहिए। वास स्थान घर के लिए 81 पद, जीर्णोद्धार के लिए 49, सर्व प्रकार के प्रासाद एवं मंडपों के लिए 100 पद तथा कुआं, तालाब एवं जलाषय के लिए 144 या 194 पद वाले वास्तु पीठ का पूजन करना चाहिए। शास्त्रों में यह भी कहा गया है कि:
दुर्गा प्रतिष्ठा विषये निवेशे तथा महार्चासु च कोटि होते।
मेरौच राष्ट्रेष्वपि सिद्धलिंगे वास्तुसहस्त्रेण पदे प्रपूज्यः।।
अर्थात दुर्गा की प्रतिष्ठा, नगर निर्माण , यज्ञ, देशनिर्माण, राजधानी एवं सिद्ध षिवलिंग की प्रतिष्ठा के समय 1000 तालिका वाले वास्तु पीठ का पूजन करना चाहिए। ब्रह्म्र स्थान ब्रह्म्र स्थान किसी भी भूखंड का केंद्र होता है जिसे ऊर्जा का केंद्र बिंदु माना गया है। ब्रह्म्र स्थान वास्तु पुरुष की नाभि के आस पास के क्षेत्र पेट, गुप्तांग और जांघों का स्थान है।
ब्रह्म स्थान वास्तु पुरुष और भूखंड के फेफड़े और हृदय स्थल का भाग है। अतः इस स्थान को खुला और भार रहित रखें। यदि घर में रहने वाले लोग सुख समृद्धि, स्वस्थ एवं खुषहाल रहते हुए अपना जीवन यापन चाहते हांे तो ब्रह्म स्थान पर किसी भी तरह का निर्माण कार्य नहीं करना चाहिए।ा चित्र के अध्ययन से पता चलता है कि वास्तु-पुरुष का प्रत्येक अंग भूखंड के किसी न किसी हिस्से का स्वामी होता है। वास्तु और देवता वास्तु पुरूष के शरीर के भिन्न-भिन्न अंगांे में कौन-कौन से देवता का आधिपत्य है, इस विषय में शास्त्रों में उल्लेख है।
गृह वास्तु में 81 पद के वास्तु चक्र का निर्माण किया जाता है। 81 पदों में 45 देवताओं का निवास होता है। ब्रह्माजी को मध्य में 9 पद दिये गये हैं। चारों दिशाओं में 32 देवता व मध्य में 13 देवता स्थापित होते हैं। उपयुक्त समय पर वास्तु पूजा अवश्य करनी चाहिए। वास्तु पूजा करने से भी काफी हद तक वास्तु संबंधी दोष दूर होते हैं तथा जिस क्षेत्र एवं दिशा में वास्तु दोष होते हैं, उसके देवता भी पूजन से प्रसन्न होकर धन-धान्य की वर्षा करते हैं।
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