‘‘लिंगपुराण’’ में ग्यारह रुद्रों की उत्पत्ति का वर्णन प्राप्त होता है जो ब्रह्मा जी के भौहों से उत्पन्न होने के तुरंत बाद ही रूदन करने लगे। ‘‘शब्दस्तोम् महानिधि’’ के अनुसार रुद्राक्ष को एक वृक्ष के रूप में माना गया है। ‘‘शब्दकल्पद्रुम्’’ के अनुसार रुद्राक्ष को वृक्ष के रूप में मानते हुए उसके कुछ पर्यायवाची नाम भी बताए गए हैं जो इस प्रकार है- सर्गक्षं, शिवप्रियं, हराक्षं, पावनं, भूतनाशं व नीलकंठाक्ष इत्यादि। एक अन्य विवेचन के अनुसार रुद्राक्ष एक प्रकार का फल बीज है जो माला के रूप में पिरोकर धारण किया जाता है तथा मंत्र जाप के काम आता है। रुद्राक्ष को हिंदी, बांग्ला, संस्कृत, गुजराती, पंजाबी व मराठी भाषा में रुद्राक्ष ही कहा जाता है। कन्नड़, तेलगू व तमिल में ‘‘रुद्राक्ष’ कोटि’’ कहा जाता है।
अंग्रेजी में Utrasum Beed तथा लैटिन भाषा में Elaeocarpus Ganitrus Roxb कहते हैं। ‘‘रुद्राक्ष’’ के उद्भव की पौराणिक गाथाएं’’ ‘‘शिव महापुराण’ की विद्येश्वर संहिता के पच्चीसवें अध्याय के अनुसार- सूतजी महाराज कहते हैं - महाप्राज्ञ ! महामते ! शिव रूप शौनक ! अब मैं संक्षिप्त रूप में रुद्राक्ष के उद्भव व माहात्म्य को बताता हूं। सुनो ! रुद्राक्ष भगवान शिव को अत्यंत प्रिय है। इसे परमपावन समझना चाहिए। रुद्राक्ष के दर्शन से, स्पर्श से तथा उस पर जप करने से वह समस्त प्रकार के पापों व कष्टों को नष्ट करने वाला माना गया है। मुने ! पूर्वकाल में भगवान शिव ने समस्त लोगों पर उपकार करने की इच्छा से देवी पार्वती के समक्ष रुद्राक्ष के उद्भव व उसकी महिमा का वर्णन किया था। भगवान शिव बोले- हे शिवे ! मैं तुम्हारे प्रेमवश भक्तों के हित की कामना से रुद्राक्ष की महिमा का वर्णन करता हूं।
सुनो ! महेशानि! पूर्वकाल की बात है मैं मन को संयमित कर हजारों दिव्य वर्षों तक घोर तपस्या में लगा रहा। एक दिन अचानक मेरा मन क्षुब्ध हो गया। परमेश्वरी ! मैं संपूर्ण लोकों का उपकार करने वाला स्वतंत्र परमेश्वर हूं। अतः उस समय लीलावश मैंने ही अपने दोनों नेत्र खोले, नेत्र खोलते ही मेरे मनोहारी नेत्रों से कुछ जल की बूंदें गिरीं। आंसू की उन बूंदों से रुद्राक्ष नामक वृक्ष उत्पन्न हो गया। भक्तों पर अनुग्रह करने के लिए वे अश्रुबिंदु स्थावर भाव को प्राप्त हो गए। वे रुद्राक्ष मैंने विष्णुभक्त को तथा चारों वर्णों के लोंगों में बांट दिया। पृथ्वी पर अपने प्रिय रुद्राक्षों को मंैने गौड़ देश में उत्पन्न किया। मथुरा, अयोध्या, लंका, मल्याचल, मध्यगिरि, काशी तथा अन्य देशों में भी उनके अंकुर उगाए। वे उत्तम रुद्राक्ष असंख्य पाप समूहों का नाश करने वाले तथा श्रुतियों के भी प्रेरक हैं। मेरी ही आज्ञा से वे ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य तथा शूद्र जाति के भेद से इस पृथ्वी पर प्रकट हुए। रुद्राक्षों की ही जाति के शुभाक्ष भी हैं।
उन ब्राह्मणादि जाति वाले रुद्राक्षों के वर्ण श्वेत, रक्त, पीत तथा कृष्ण जानने चाहिए। भोग और मोक्ष की इच्छा रखने वाले चारों वर्णों के लोग और विशेषतः शिवभक्तों को शिव-पार्वती की प्रसन्नता के लिए रुद्राक्ष के फलों को धारण करना चाहिए। आंवले के फल के समान जो रुद्राक्ष हो, वह श्रेष्ठ बताया गया हे। जो बेर के फल के बराबर हो उसे मध्यम श्रेणी का बताया गया है। जो चने के बराबर हो उसकी गणना निम्नकोटि में की गई है। अब इसकी उत्तमता को परखने की यह दूसरी उत्तम प्रक्रिया बताई जाती है। इसे बताने का उद्देश्य है भक्तों की हित कामना। हे पार्वती ! तुम भलीभांति प्रेमपूर्वक इस विषय को सुनो। महेश्वरी ! जो रुद्राक्ष बेर के फल के समान होता है वह उतना छोटा होने पर भी लोक में उत्तम फल देने वाला तथा सुख-सौभाग्य की वृद्धि करने वाला होता है।
जो रुद्राक्ष आंवले के फल के बराबर होता है वह समस्त अरिष्टों का नाश करने वाला होता है। जो गंजाफल (रत्ती) के समान बहुत छोटा होता है वह संपूर्ण मनोरथों को पूर्ण करने वाला और फलों की सिद्धि करने वाला होता है। ‘‘देवी भागवत महापुराण’’ के अनुसार - एक समय महर्षि नारद जी ने भगवान श्री विष्णु से पूछा, हे अनद्य ! कृपा करके आप मुझे रुद्राक्ष के प्रभाव और उसकी विशिष्टताओं के संबंध में बतायें जिसके कारण रुद्राक्ष देवता के समान महान पुरुष से पूजित है तो इसका कारण क्या है? भगवान विष्णु ने कहा कि इसी प्रकार का प्रश्न भगवान कार्तिकेय जी ने भगवान शिव से किया था। उसका उत्तर जिस प्रकार भगवान शिव ने दिया उसे तुम ध्यानपूर्वक सुनो।
भगवान शिव बोले हे कार्तिकेय ! उस परमतत्व के संबंध में मैं जो कुछ बता रहा हूं उसे सुनो। एक बार पूर्वकाल में त्रिपुर नामक एक महान दैत्य उत्पन्न हुआ जिसे कोई भी जीत नहीं सकता था। उस दैत्य ने ब्रह्मा, विष्णु इत्यादि सभी देवताओं को तिरस्कृत (उपेक्षित) कर दिया तो समस्त देवगणों ने मेरे पास आकर प्रार्थना की। तब मैंने उस दैत्य का वध करने के लिए देवताओं की रक्षा एवं विघ्न के नाश हेतु सभी देवताओं की शक्तियों को समन्वित कर दिव्य अमोघ अस्त्र के निर्माण का विचार बनाया। इसी के लिए मैंने दिव्य सहस्त्र वर्षों तक नेत्र बंद कर तपस्या की और जब नेत्र खोले तो मेरे नेत्रों से कुछ अश्रुबिंदु गिरे। उन अश्रुबिंदुओं से ही मेरी आज्ञानुसार सबके हित के लिए रुद्राक्ष के वृक्ष उत्पन्न हुए। (एकादश स्कंध, अध्याय चार) ‘‘संवत्सर प्रदीप के अनुसार: त्रिपुर नामक दैत्य का वध करने के पश्चात जब भगवान शिव के नेत्रों से अश्रुजल इस भूतल पर गिरा तब उनसे रुद्राक्ष वृक्ष की उत्पत्ति हुई।
‘‘वृहज्जाबालोपनिषद् के अनुसार - भृगु ऋषि ने भगवान कालाग्नि रुद्र से रुद्राक्ष उत्पत्ति व उसके धारण से क्या फल प्राप्त होते हैं के संबंध में पूछा तब भगवान कालाग्नि रुद्र बोले जब मेरे द्वारा दिव्य सहस्त्र वर्षों तक तप करने के पश्चात त्रिपुरासुर का वध करने के लिए जैसे ही नेत्र खोले तो उनसे इस धरा पर अश्रुजल गिरा जिससे यह रुद्राक्ष वृक्ष उत्पन्न हुए। इस प्रकार अन्य ग्रंथों में भी भगवान शिव के नेत्रों से गिरे अश्रुओं से ही रुद्राक्ष की उत्पत्ति बताई गई है। रुद्राक्ष कब धारण करें? रुद्राक्ष धारण करने हेतु फाल्गुन मास में महाशिवरात्रि का दिन सर्वश्रेष्ठ माना गया है। लेकिन शुक्ल पक्ष का सोमवार भी शुभ माना जाता है।
रुद्राक्ष धारण करने के लिए प्राचीन ग्रंथों में माह, पक्ष, वार, तिथि, लग्न, नक्षत्र व मुहूर्तानुसार वर्णन प्राप्त होता है जो पाठकों की सुविधा हेतु इस लेख में प्रस्तुत है। रुद्राक्ष धारण करने हेतु माह: रुद्राक्ष धारण करने हेतु शास्त्रों में आश्विन, कार्तिक मास सर्वश्रेष्ठ माने गये हैं। मार्गशीर्ष व फाल्गुन मध्यम व आषाढ़ तथा श्रावण अधम माने गये हैं। इसके विपरीत भाद्रपद, पौष व अधिकमास (मलमास) अशुभ माने जाते हैं। पक्ष: सूर्य आध्यात्मिक शक्ति का दाता है, जबकि चंद्र भौतिकता प्रदान करने वाला है। शुक्ल पक्ष को सात्विक व कृष्ण पक्ष को तामसी माना गया है। अतः आध्यात्मिक शक्तियों को प्रबल करने हेतु कृष्ण पक्ष में रुद्राक्ष को धारण करना चाहिए। सांसारिक व भौतिक सुख-सुविधाओं की प्राप्ति हेतु शुक्ल पक्ष में रुद्राक्ष को धारण करना चाहिए।
वार: रविवार, सोमवार, बुधवार, गुरुवार व शुक्रवार श्रेष्ठ वार है। मंगलवार व शनिवार को रुद्राक्ष धारण करना अशुभ माना गया है। तिथि: द्वितीया, पंचमी, दशमी, त्रयोदशी व पूर्णिमा को रुद्राक्ष धारण करने से श्रेष्ठ व शुभ फल प्राप्त होते हैं। लग्न: मेष, कर्क, तुला, वृश्चिक, मकर व कुंभ लग्न को शुभ माना गया है। नक्षत्र: रुद्राक्ष धारण करने हेतु अश्विनी, रोहिणी, उत्तराफाल्गुनी, हस्त, स्वाति, विशाखा, ज्येष्ठा, उत्तराषाढ़ा, धनिष्ठा व शतभिषा इत्यादि नक्षत्र शुभ माने गये हैं। इन नक्षत्रों में रुद्राक्ष धारण करने से श्रेष्ठ व शुभ फलों की प्राप्ति होती है। देवी भागवत पुराण के ग्यारहवें स्कंध के अनुसार- ‘‘ग्रहणे विषुवे च एव संक्रमे अयने यथा। अमावस्या पौर्णमासे च पुण्येषु दिवसे अपि।।’’
अर्थात किसी भी सूर्य-ग्रहण, चंद्र ग्रहण, तुला, मकर संक्रांति, अयन, शिव चतुर्दशी, अमावस्या व बसंत पंचमी को रुद्राक्ष को अभिमंत्रित करने के पश्चात धारण किया जा सकता है।