संपूर्ण काल सर्प यंत्र सेअनुकूलता की प्राप्ति जिसे ज्योतिष में काल सर्प योग के नाम से प्रतिपादित किया गया है, वह राहु-केतुकी स्थिति के अनुसार होता है। महर्षि पराशर एवं वराह मिहिर जैसे प्राचीनज्योतिषाचार्यों ने भी काल सर्प योग को स्वीकारा है। इसके अतिरिक्त भृगु, बादरायण,गर्ग आदि ने भी इस योग की व्यापक चर्चा की है। ज्योतिष की सारावली में सर्पयोग की व्यापक जानकारी है। जैन ज्योतिष एवं अनेक नाड़ी ग्रंथ भी इस योग कीव्यापक पुष्टि करते हैं। जन्म के समय सूर्य ग्रहण, चंद्रग्रहण जैसे दोषों के होने से जोप्रभाव जातक पर होता है, वही प्रभावकाल सर्प योग होने पर होता है।पाश्चात्य ज्योतिषियों ने राहु-केतु कोकार्मिक एवं प्रभावी माना है। वास्तवमें राहु-केतु छाया ग्रह हैं।कुंडली में काल सर्प होने से जातककी अपेक्षित प्रगति में अड़चनें एवंनिराशाएं उत्पन्न होती हैं। ऐसा जातकशारीरिक एवं आर्थिक दृष्टि से परेशानहोता है। सर्प को अंतरिक्ष एवं पाताललोक का स्वामी माना जाता है। पुराणोंमें शेष नाग सहित अनेक नागों नेपूजनीय कार्य किये हैं, जिन्हें आज भीनकारा नहीं जा सकता। नाग जातिकी आयु कई हजार वर्षों की होती है।कुछ नाग इच्छाधारी भी पाये जाते हैं।काल सर्प योग के परिहार के बारे मेंबहुत ही सीमित स्थानों पर व्याखयामिलती है। यदि काल सर्प योग काजातक इसका समुचित उपाय करे,तो वह अवश्य ही अपने लक्ष्य कोप्राप्त करने में सफल होता है। उपाय : काल सर्प योग में सर्प कोदेवता मान कर नागों कीपूजा-उपासना की जाती है।महामृत्युंजय आदि भी सार्थक सिद्धहोते हैं। क्योंकि नाग जाति के गुरुशिव हैं। इस कारण शिव आराधनाभी की जाती है। इसकी निवृत्ति केलिए इसकी शांति नासिक, त्र्यंबकेश्वर,प्रयाग, भीमाशंकर, काशी आदि शिवसंबंधी समस्त तीर्थों में की जाती है।यदि संभव हो, तो काल सर्प की शांतिके लिए सूर्य एवं चंद्र ग्रहण के दिनरुद्राभिषेक करवाना चाहिए। अधिकशांति पाने के लिए चांदी केनाग-नागिन के जोड़े की पूजा आदिकर के उसे शुद्ध नदी में प्रवाहितकरने से भी काल सर्प की शांति होतीहै। गणेश एवं सरस्वती की उपासनाभी लाभकारी मानी जाती है। निर्धनएवं संस्कृत की जानकारी रखने वालेजातक स्वयं एवं सबल तथा धनीजातकों को गोसाईं ब्राह्मणों (शैवअनुयायी) से शिवाराधना तथा शांतिकरानी चाहिए। काल सर्प योग के समस्त उपायों मेंनाग-नागिन को ही श्रेष्ठ मान करपूजा की जाती है। इसकी शांति चाहेजब की जाए, परंतु शांति करने केसमय काल सर्प यंत्र को ही आधारमान कर नागों की पूजादि करना श्रेष्ठहै। क्योंकि इस यंत्र के प्रभाव सेसंपूर्ण नाग जाति एवं उनके पर्यावरणको संतुष्टि एवं लाभ मिलता है, इसकारण इसकी महत्ता अधिक है। कालसर्प के जातक को राहु-केतु कीदशा-अंतर्दशा, एवं गोचर में स्वराशिपर उनके गोचर के दौरान शांति आदिसे अधिक लाभ मिलता है। राहु-केतुतमोगुणी, विषैले एवं राक्षसी प्रवृत्ति केहोने पर भी ऊर्जा के स्रोत हैं तथानवीन तकनीक से जुड़े विदेशी व्यापारके स्वामी हैं। अतः इनकी उपासनाजीवन को सफल एवं सबल बनातीहै। यदि कोई जातक काल सर्प यंत्रको अपने घर में, व्यावसायिक स्थलपर, अथवा अपने आसपास कहीं भीस्थापित करे, तो जातक को पुष्टिमिलती है तथा वह मानसिक, शारीरिक एवं आर्थिक विकास की ओर अग्रसर होने लगता है। यह योग काल कीतरह दीर्घकालिक है, जिस कारण,अन्य उपायों की अपेक्षा, संपूर्ण कालसर्प योग यंत्र स्थापित करना अधिकउचित एवं लाभकारी है। इस यंत्र मेंअन्य कई यंत्रों को समाहित कियागया है, जो, राहु-केतु की समस्तनकारात्मक स्थितियों को परिवर्तित करके, सकारात्मक परिणाम प्रदान करतेहैं। एक ओर अनेक प्रकार के दान-तप,यज्ञ, पूजादि करते समय विघ्नों एवंत्रुटियों का भय बना होता है, तो दूसरीओर वे खर्चीले भी होते हैं। ऐसी स्थितिमें इस यंत्र को स्थापित करना एकप्रकार से समुचित विकल्प माना गयाहै।शास्त्रों में कहा गया है :न देवो विद्यते काष्ठे न पाषाणे नमृण्मये, भावो हि विद्यते देवस्तस्माद्भावोहि कारणम्॥अर्थात, ईश्वर न तो काष्ठ, अथवापत्थर में है, न ही मृत्तिकादि में है।ईश्वर भावना में है। इस आधार परप्रस्तुत यंत्र को शुद्ध भावना से स्थापितमात्र करने से अनोखा लाभ होता है।बिना किसी वस्तु के, बिना किसी मंत्रएवं माला के, मात्र शुद्ध भावना सेमानसोपचार पूजा करना ही समस्तविश्व का सर्वोत्तम यज्ञ है। अतःयदि कोई यह सोचे कि यंत्रको घर में स्थापित करने सेअनेक नियम-संयम पालनकरने होंगे, तो यह उसकामिथ्या भ्रम है। अतः इस यंत्रको कोई भी जातक स्थापितकर के लाभान्वित हो सकताहै। काल सर्प यंत्र की स्थापनाके पश्चात् यदि जातक किसीमंत्र का जप करना चाहे, तो निम्न मंत्रों में से किसी भी मंत्र काजप-पाठ आदि कर सकता है। लघु मृत्युंजय मंत्र : ú हौं जूं सः। मृत संजीवनी मंत्र :úहौं जूंसः ú भूर्भुवः स्वः ú त्र्यम्बकं यजामहे सुगंधि पुष्टि वर्धनम् उर्वारुकमिव वन्धनाम् मृर्त्योमुक्षीय मामृतात् ú स्वः भुवः भूः ú संजूंहौं ˙महामृत्युंजय मत्र : ú हौं ú जूं˙ सः ú भूः ú भुवः ú स्वः ú त्र्यंवकंयजामहे........................मामृतात्॥ ú स्वः úभुवः ú भूः सः ú जूं ú हौं ú ॥ राहु मंत्र : úभ्रां भ्रीं भ्रौं सः राहवे नमः। केतु मंत्र : ú स्रां स्रीं स्रौं सः केतवे नमः। नव नाग स्तुति : अनंतं वासुकिं शेषंपद्म नाभं च कम्बलं।शंख पालं धृत राष्ट्रं तक्षकं कालियंतथा॥ एतानि नव नामानि नागानां चमहात्मनां।सायं काले पठेन्नित्यं प्रातः कालेविशेषतः॥तस्य विषभयं नास्ति सर्वत्र विजयीभवेत्॥ यंत्र स्थापना विधि : वैदिक, तांत्रिक,मानसिक, वाचिक, कायिक, चल, अचलकिसी भी पद्धति द्वारा इसे प्रतिष्ठितकिया जा सकता है। स्वयं के धर्मानुसारजातक स्वतः, अथवा कर्मकांडी से इसेस्थापित करवा सकता है। किसी भीमाह के शुक्ल पक्ष में सोम, बुध, गुरु,शुक्र, वारों में स्थापित कर के, श्रद्धाएवं शुद्ध भावना से यंत्र के सम्मुखकिसी भी मंत्र का जप-पाठ, अथवामात्र दीपक जलाने से भी लाभ होता है। यंत्र अशुद्ध हो जाए, टूट जाए,अथवा चोरी हो जाए, तो शांति पाठकरना चाहिए, अथवा गायत्री मंत्र काजप करना चाहिए। दीपावली, दशहरा,नव रात्रि, शिव रात्रि, सूर्य ग्रहण एवंचंद्र ग्रहण में यंत्र को यथाशक्ति भोगादिलगाने से अधिक लाभ होता है।