‘‘ज्योतिष’’ शब्द ‘‘ज्योति’’ से बना है। ज्योति का सीधा-सादा शाब्दिक अर्थ है- द्युति, प्रकाश, उजाला, रोशनी, चमक, आभा इत्यादि। ‘‘ज्योतिष’’ एक विज्ञान है। ‘‘ज्योतिषां सूर्यादिग्रहाणां बोधकं शास्त्रम्’’ अर्थात सूर्यादि ग्रह और काल का बोध कराने वाले शास्त्र को ‘‘ज्योतिष शास्त्र’’ कहा जाता है। आकाश मंडल के प्रधान ग्रह, नक्षत्र हम पृथ्वीवासियों को ‘‘ज्योति’’ प्रदान करते हैं। आकाशीय पिंडों से निकलने वाली ये ‘‘ज्योति रश्मियां’’ अपने बल व कोणात्मक दूरी या अंतर के अनुसार हम पृथ्वीवासियों को भिन्न-भिन्न प्रकार से प्रभावित करती हैं। सत्यता यह है कि जन्म के समय की ‘‘ज्योति रश्मियां’’ ही मनुष्य के स्वभाव का निर्माण करती हैं।
हम मनुष्यों के जीवन के विभिन्न पहलुओं पर इन ‘‘ज्योति रश्मियों’’ के प्रभाव का अध्ययन करने वाले विषय का नाम ही ‘‘ज्योतिर्विज्ञान’’ या ‘‘ज्योतिष विज्ञान’’ है। शिक्षा, कल्प (सूत्र), व्याकरण, निरूक्त, छन्द और ज्योतिष वेद के छः अंग हैं। इसीलिए वेद को षडंग वेद कहते हैं।’’ वेदस्य निर्मलं चक्षुज्र्योति शास्त्रमनुत्तमम’’- नारद संहिता के अनुसार ज्योतिष शास्त्र को वेदों का नेत्र माना गया है। ज्योतिष शास्त्र के महत्व को ऋग्वेद का यह श्लोक सिद्ध करता है -‘‘विफलान्यन्यशास्त्राणि विवाद स्तेषु केवलम्। सफलं ज्योतिषं शास्त्रं चन्द्राकौं यत्र सक्षिणौ।।
यथा शिखामयूराणां नागानां मणयों यथा। तद्वद्वेदांगशास्त्रत्राणां ज्योतिषं मूर्धनि स्थितम्।। महाराज चंद्रगुप्त विक्रमादित्य के काल (ई. सन 380 से 414) में महान खगोलविद् गणितज्ञ एवं ज्योतिषविद् आर्यभट्ट प्रथम ने गणितीय आकलन कर ज्योतिष विज्ञान की उन्नति में चार चांद लगाए। आर्यभट्ट ने प्राचीन ऋषि-मुनियों की सूर्य-चंद्र ग्रहण का समय जानने की प्राचीन पद्धति में सुधार कर सही समय निकालने की गणित विधि तैयार की और प्राचीन ऋषि-मुनियों का गौरव बढ़ाया। वैदिक काल के ऋषियों के द्वारा की जाने वाली शुभाशुभ घटनाओं के सही समय जानने हेतु 27 नक्षत्रों पर आधारित एक समय-सारिणी तैयार की। पृथ्वी और पृथ्वीवासियों पर पड़ने वाले ग्रहों के प्रभाव का एक चार्ट भी तैयार किया और ‘आर्यभट्टीय’ नामक ग्रंथ की रचना की। यह प्राचीन भारत में ‘ज्योतिष’ का स्वर्णिम काल था।
आज भी उपरोक्त विधि सारे विश्व में अपनाई जाती है और भारत में इसका सर्वाधिक प्रचलन है। पूर्व मध्य काल में ज्योतिष विज्ञान में और अधिक उन्नति हुई। ‘आचार्य वराह मिहिर’ ने इस विज्ञान को क्रमबद्ध कर इसमें अनेक नवीन तथ्यों का समावेश किया और ‘वृहज्जातकम्’ ग्रंथ की रचना की। तत्पश्चात कल्याण वर्मा, ब्रह्मगुप्त, मुंजाल, चंद्रसेन, श्रीपति, श्रीधर, भट्टवोसरि, मल्लिसैन, बल्लालसैन, नरचन्द्र, अर्द्धदास, मकरन्द महेनद्रसूरी, वैद्यनाथ, केशव, गणेश, ढुण्डिराज, नीलकंठ और आधुनिक काल (19वीं सदी) में मुनीश्वर, दिवाकर, नित्यांनद, उभयकुशल बाघजीमुनि, जसवंतसागर, जगन्नाथ सम्राट, बापूदेव शास्त्री, नीलांबर झा, सुधाकर द्विवेदी आदि अनेकानेक प्रसिद्ध रचनाकारों/टीकाकारों/ समीक्षाकारों ने ज्योतिष पर बहुत कुछ लिखा। इन प्राचीन ऋषि-मुनियों, आचार्यों, लेखकों की ‘ज्ञान रश्मियों’ से निकले शब्दों, वाक्यों, श्लोकों का आज भी उल्लेख किया जाता है।
इसी काल में तक्षशिला, नालंदा, मगध, काशी, उज्जैन, तंजौर, जयपुर आदि स्थानों पर ज्योतिष की उत्तम वेधशालाएं स्थापित की गईं। इन वेधशालाओं में भारतीय एवं विदेशी विद्यार्थी ज्योतिष विज्ञान का ज्ञानार्जन किया करते थे। यद्यपि अब इनमें कई केंद्र नष्ट हो गये हैं। संसार के प्राचीन राष्ट्रों में जिन्हें ‘ज्योतिष शास्त्र’ का पूर्ण ज्ञान प्राप्त हुआ। वे केवल दो राष्ट्र हैं, भारत तथा भारत के पश्चात ग्रीक। ईस्वी सन् के हजारों वर्ष पूर्व भारतवर्ष में ‘ज्योतिष शास्त्र’ का वटवृक्ष इतना ऊंचा था कि इसकी घनी छाया में दुख के तीक्ष्ण बाणों से त्रसित हुए अन्य देश के लोग विश्रान्ति पाया करते थे। मानव जीवन में ज्योतिष का महत्व व उपयोगिता: मानव के समस्त कार्य ज्योतिष के द्वारा ही चलते हैं।
व्यवहार में अत्यंत महत्वपूर्ण एवं उपयोगी दिवस, समय, तिथि, वार, सप्ताह, पक्ष, मास, ऋतु, वर्ष, अयन, नक्षत्र, योग, करण, चंद्र संचार, सूर्य स्थिति आदि का ज्ञान ज्योतिष से ही होता है। इस जानकारी के लिए प्रत्येक वर्ष अनेकानेक स्थान व नाम आधारित पंचांगों का निर्माण किया जाता है। इसमें धार्मिक उत्सव, दिवस, सामाजिक त्यौहारों के दिवस, महापुरूषों के जन्मदिवस, राष्ट्रीय पर्व दिवस, महत्वपूर्ण घटनाओं के दिवस दिये होते हैं। साधारण मनुष्य भी सुनकर या पढ़कर उन्हें समय पर मना सकते हैं। इसी प्रकार बहुत सी ऐतिहासिक तिथियों का भी पता लग जाता है। उन पर भी हम मिल बैठकर विचार कर सकते हैं और सुझाव दे सकते हैं तथा सही निर्णय ले सकते हैं। जलचर राशि या जलचर नक्षत्रों में अच्छी वर्षा के आसार होते हैं।
अनपढ़ देहाती किसान आकाश मंडल की स्थिति देखकर इसका आसानी से अनुमान लगा लेते हैं। फसल बोने का समय भांप लेते हैं ताकि अच्छी पैदावार हो। समुद्री जहाज के कप्तान भी समुद्री यात्रा के दौरान सूर्य-चंद्र की गति स्थिति देखकर समुद्री मौसम का अंदाज लगा लेते हैं और ठीक समय पर समुचित एवं निरापद मार्ग का अनुसरण करते हैं। इससे क्षति की संभावना समाप्त हो जाती है। ज्योतिष की शाखा रेखागणित से पर्वतों-पहाड़ों की ऊंचाई एवं समुद्र की गहराई मापी जा सकती है। सूर्य-चंद्र ग्रहण के आधार पर प्राचीनतम् ऐतिहासिक तिथियों की जानकारी हो जाती है। भूगर्भ से प्राप्त पुरातत्व की वस्तुओं के समय व उनकी आयु का भी पता लग जाता है। अक्षांश व रेखांश रेखायें दिशा ज्ञान कराती है। इस दिशा ज्ञान के आधार पर विश्व के किसी भी भूभाग या स्थान पर पहुंचना सरल और सुविधाजनक हो जाता है।
सृष्टि के अनेकांे रहस्य तथा युगों की जानकारी, सूर्य-चंद्र ग्रहण तिथि व समय, ज्वार-भाटे की तीव्रता की ठीक समय आदि ज्योतिष द्वारा जान लेते हैं। गुणकारी दवाओं के बनाने का स्थान व समय का ज्ञान हो जाता है। रोगों के उपचार हेतु समयानुसार उचित दवाई देने से अवगत हो जाते हैं। विभिन्न प्रकार के शुभ मुहूर्तों का ज्ञान होता है। इस प्रकार ज्योतिष विज्ञान प्रत्यक्ष एवं परोक्ष रूप से हम पृथ्वीवासी मनुष्यों, जीवधारी पशुओं, पक्षियों और जड़ वस्तुओं के लिए सर्वथा उपयोगी एवं लाभकारी है, अज्ञानता के अंधकार को घटाने वाला ज्योतिर्दीप ‘ज्योतिर्विज्ञान’ है।
इसी ज्योतिर्विज्ञान को सहस्त्राधिक वर्ष के घोर प्रयत्न द्वारा पाश्चात्य विद्वानों, ज्योतिषज्ञों व संशोधकों ने अपने ज्ञान द्वारा पाश्चात्य ज्योतिष पद्धति को जन्म दिया। फलित ज्योतिष पर पाश्चात्य देश के तत्वज्ञों को इतनी अधिक श्रद्धा हो गयी कि इंग्लैंड में इस विषय पर चर्चा करने हेतु एक ऐसी संस्था संघटित हुई जिसमें पुस्तक, भाषण, व्याख्यान द्वारा लोक समुदाय को शास्त्र शुद्ध ज्ञान दिया जाता है। अमेरिका में इस विषय पर विशेष महाविद्यालयों की स्थापना की गई है जिनमें योग्य विद्यार्थियों को परीक्षा उतीर्ण होने पर पद्वी प्रदान की जाती है।