विवाह जातक के जीवन काल की सबसे महत्वपूर्ण स्मरणीय घटना होती है। हमारे भारत देश में लड़के और लड़के के माता-पिता के आपसी संपर्क व सहयोग से धार्मिक व सामाजिक रीति-रिवाजों के अनुसार विवाह होते हैं। विवाह मानव जीवन में एक अपरिहार्य संस्कार है। विवाह के पश्चात ही एक पुरूष को एक स्त्री के साथ रहने का वैध अधिकार प्राप्त होता है। ब्राह्मणों दैवस्तयैवार्थः प्राजापत्यस्तथासुरः। गान्धर्वो राक्षसश्चैव पैशाचश्चाष्टमोऽधयः।। मनुस्मृति 3.21 ।।
समस्त धर्मसूत्रकारों और स्मृतिकारों ने विवाह के आठ प्रकारों को स्वीकार किया है। इन आठ प्रकारों को पुनः दो श्रेणियों में विभक्त किया गया है - प्रशस्त और अप्रशस्त। प्रथम चार प्रकार प्रशस्त और अंतिम चार प्रकार अप्रशस्त स्वीकारे गये हैं। इन आठ प्रकार के विवाहों का संक्षिप्त परिचय प्रस्तुत है: ब्राह्म विवाह आच्छाद्य चार्चयित्वा व श्रुतिशीलवते स्वयम्। आहूय दानं कन्याया ब्राह्मो धर्मः प्रकीर्तितः।। ।। मनु स्मृति 3.27 ।।
सर्वाधिक प्रशस्त, शुद्ध, विकसित और सम्प्रति प्रचलित विवाह-प्रकार ब्रह्म विवाह है। कन्या का पिता विद्वान व शीलवान वर को स्वयं आमंत्रित कर उसका विधिवत् सत्कार कर उससे शुल्क इत्यादि स्वीकार न कर, दक्षिणा के साथ यथाशक्ति वस्त्राभूषणों से अलंकृत कन्या का दान करता है इसे ब्राह्म विवाह कहा जाता है। यह विवाह परम पवित्र व सर्वोत्तम है। 2. दैव विवाह यज्ञे तु वितते सम्यगृत्विजे कर्म कुर्वते। अलंकृत्य सुतादानं दैवं धर्म प्रचक्षते।। मनु स्मृति 3.28 ।। जिस विवाह में यज्ञ कराते हुए ऋत्विज पुरोहित को वस्त्राभूषणों से सुसज्जित कन्या दान किया जाय, उसे दैव विवाह कहते हैं। यह प्रथा बहु-विवाह की पोषक उपपत्नी प्रथा थी।
यह विवाह ब्राह्मणों में प्रचलित था, क्योंकि पौरोहित्य का कार्य ब्राह्मण ही करता था। इसको ‘दैव’ इसलिए कहा जाता है कि यज्ञ में देवों की पूजा होती है। बृहत्पाराशर ने इसे ‘दैविक’’ कहा है। इस विवाह में पिता के मन में यह भावना भी रहती है कि कन्या पाकर पुरोहित प्रसन्नतापूर्वक