साढ़े-साती विषय प्रवेश ज्योतिषीय शास्त्रों में साढ़े-साती का उल्लेख नहीं मिलता है क्योंकि यह एक गोचर स्थिति है जिसमें जन्मकालीन चन्द्रमा और गोचरस्थ शनि सम्मिलित होते हैं। शास्त्रों में इसका उल्लेख न होने के बावजूद भी इसका बोलबाला इसीलिये है क्योंकि चन्द्रमा, मन का कारक होने के साथ-साथ एक छोटा एवं तीव्र गति से चलने वाला नैसर्गिक सौम्य ग्रह है और इसके पूर्ण विपरीत शनि अत्यन्त धीरे चलने वाले विशाल और नैसर्गिक अशुभ ग्रह हैं। दोनों के आस-पास या साथ-साथ होने से इनका परस्पर सामंजस्य नहीं हो पाता है और इस कारणवश मन को दुःख की अनुभूति होती है। क्या ऐसा फल सदैव नहीं मिलता है? इसकी संक्षिप्त चर्चा इस लेख में की गयी है। परिभाषा: साढ़े-साती, साढ़े-सात साल की अवधि होती है जिसको निम्न तीन चरणों में विभाजित किया जाता है। जब गोचर के शनि, जन्मकालीन चन्द्रमा से द्वादश भाव (आरोहम चरण) में प्रवेश करते हैं और उस भाव/राशि को लगभग ढाई वर्ष की अवधि में भोगते हैं, जन्मकालीन चन्द्रमा (जन्म चरण) पर गोचर करने की लगभग ढाई वर्ष की अवधि, एवं जन्मकालीन चन्द्रमा से द्वितीय (अवरोहम चरण) भाव/ राशि को भोगने की लगभग ढाई वर्ष की अवधि।
एक अन्य प्रचलित मत (श्री काटवे जी) के अनुसार समय अंतराल का निर्णय, गोचरस्थ शनि की जन्मकालीन चन्द्रमा से कोणीय दूरी के आधार पर करना चाहिये। अर्थात, गोचरस्थ शनि के जन्मकालीन चंद्रमा से 45 अंश पीछे होने से शुरू होकर 45 अंश आगे होने तक की समय अवधि को साढ़े-साती की अवधि मानना चाहिये। इस लेख में हम, स्वयं को, साढ़े-साती की इस संक्षिप्त परिभाषा तक ही सीमित रखते हुए आगे बढ़ते हैं। फलित दृष्टिकोण: बृहत पराशर होराशास्त्रम् के अथ दशाफलाध्यायः एवं अथ विशेषनक्षत्रदशाफलाध्यायः के अनुसार, ग्रह अपने स्वभाव एवं स्वामित्व अनुसार शुभ-अशुभ फल देते हैं। इस आधार पर, शनि भी कुंडली अनुसार शुभ या अशुभ होते हैं। जैसे शनि, वृषभ और तुला लग्न में योगकारक होते हैं या फिर शुभस्थानगत होते हुए उच्च, मूल त्रिकोण, स्वराशि, वर्गोत्तम आदि हों तो शनि जातक के लिये शुभ फलप्रद होते हैं। अपनी शुभ स्थिति में शनि मन-बुद्धि की एकाग्रता, आध्यात्मिकता में रुझान, प्रगति, मुखिया पद, नौकरी एवं व्यवसाय में धीरे-धीरे उन्नति, न्यायप्रिय एवं उदारवादी दृष्टिकोण आदि देते हैं।
गोचर के नियमों के अनुसार, गोचरस्थ शनि की जन्मकालीन चन्द्रमा से 12, 1 एवं 2 की स्थिति अशुभ फलदायी होती है। परन्तु, गोचर तो उन्हीं फलों को प्रदान कर सकता है जो कुंडली में योगों और दशा द्वारा निर्धारित किये जाते हैं। अर्थात, फलित के सामान्य नियमों के आधार पर साढ़े-साती के प्रत्येक चरण का अलग-अलग विश्लेषण करने के पश्चात ही निष्कर्ष निकालना चाहिये कि क्या वह चरण शुभ होगा या अशुभ। सामान्यतया, यह कहना उचित है कि साढ़े-साती चरण जातक के लिये अशुभ नहीं होता अगर शनि, कुंडली में शुभ हो महादशा और अन्तर्दशा शुभ हो गोचरस्थ शनि भाव में स्वराशि, उच्च राशि, मित्र राशि में हो गोचरस्थ शनि का अपने नक्षत्र स्वामी से शुभ सम्बन्ध हो, जैसे वह दोनों परस्पर मित्र हों जन्मकालीन चन्द्रमा की स्थिति एवं बल अच्छा हो जिससे जातक मानसिक सबल होगा चन्द्रमा एवं शनि पर बाकी ग्रहों का शुभ प्रभाव (दृष्टि या युति) हो सभी ज्योतिषी उपरोक्त बिन्दुओं को ध्यान में रखकर ही फलित करते हैं। किन्तु, एक ही परिस्थिति में फलों की भिन्नता भी देखी जाती है इसको समझने के लिये अष्टकवर्ग में कक्षा का सिद्धांत है।
पराशर जी के अथाष्टकवर्गाध्यायः के अनुसार ज्योतिष शास्त्र के दो नियम हैं, सामान्य नियम व विशेष नियम। निश्चित फल जानने के लिये सामान्य नियम प्रभावी होते हैं परन्तु सामान्य नियम से विशेष नियम सदैव बलवान होता है। इसीलिये अगर हम अपने सामान्य नियमों द्वारा निष्कर्षित फल की विशेष नियम यानि अष्टकवर्ग पद्धति से पुष्टि करेंगे तो अधिक सटीकता आयेगी क्योंकि इससे परिणाम में बदलाव आने की भी संभावना होती है जैसे अशुभता में न्यूनता/अधिकता, अशुभता का स्थगन, शुभता में अधिकता/न्यूनता या शुभता का स्थगन आदि। अष्टकवर्ग अष्टकवर्ग पद्धति में सातों ग्रह (सूर्य, चन्द्रमा, मंगल, बुध, गुरु, शुक्र एवं शनि) एवं लग्न अपनी जन्मकालीन स्थिति से निश्चित भावों को शुभ रेखा (मतान्तर से कुछ विद्वान रेखा को अशुभ और बिंदु को शुभ मानते हैं पर हम इस लेख में पराशर जी की पद्धति का अनुसरण कर रहे हैं) प्रदान करते हैं। प्रत्येक ग्रह एवं लग्न की रेखाओं को सारणीबद्ध एवं नियमबद्ध रूप में लिखने पर सबके अलग-अलग प्रस्तारक वर्ग बनते हैं जो कि कुल आठ होंगे। कोई ग्रह जब किसी राशि में गोचरवश प्रवेश करता है तो वह उस राशि/भाव में एक निश्चित रास्ते से होकर गुजरता है। इस रास्ते को आठ भागों में बांटा गया है।
प्रत्येक भाग को कक्षा कहते हैं और प्रत्येक कक्षा का एक निश्चित स्वामी होता है। निम्न सारणी में क्रम से कक्षायें, कक्षा के भोगांश और कक्षा स्वामी वर्णित हैंः कक्षा क्रम ग्रह स्थिति (डिग्री में) कक्षा स्वामी 1 0.00 से 3.45 शनि 2 3.45 से 7.30 गुरु कक्षा क्रम ग्रह स्थिति (डिग्री में) कक्षा स्वामी 3 7.30 से 11.15 मंगल 4 11.15 से 15.00 सूर्य 5 15.00 से 18.45 शुक्र 6 18.45 से 22.00 बुध 7 22.00 से 25.45 चन्द्र 8 25.45 से 30.00 लग्न आठों प्रस्तारक सारणियों का योग करने के बाद जो एक सारणी बनेगी, वह समुदायाष्टक वर्ग कहलायेगी। अगर ग्रहों एवं लग्न की प्रस्तारक सारणी के अंकों को कुंडली रूप में लिखेंगे तो वह उस ग्रह या लग्न का भिन्नाष्टक वर्ग कहलायेगा। सामान्य सिद्धांतों (योग, दशा एवं गोचर) से जब फल के शुभाशुभ एवं उनकी मात्रा का अनुमान लग जाये, तब निम्न नियमों से शुभाशुभता एवं मात्रा की पुष्टि करनी चाहिये। तीनों नियमों को सदैव क्रमशः ही लगाना चाहिये। समुदाय अष्टकवर्ग भिन्नाष्टक वर्ग गोचरवश ग्रह की स्वयं के प्रस्तारक में कक्षा (साढ़े-साती में शनि का प्रस्तारक) अर्थात, समुदायाष्टकवर्ग स्थूल रूप से शनि की गोचरवश भाव स्थिति अनुसार शुभता-अशुभता बताता है।
भिन्नाष्टक वर्ग में उसी भाव के अंकों द्वारा उस फल की सूक्ष्म रूप से पुष्टि होती है और प्रस्तारक वर्ग की कक्षा से उस सूक्ष्म रूप शुभ-अशुभ फल की अवधि का पता चलता है क्योंकि एक चरण के ढाई वर्ष में फलों की शुभता और अशुभता में उतार-चढ़ाव हो सकता है। अगर सामान्य नियमों द्वारा फल की पुष्टि हो रही है तो फलकथन सटीक हैं और अगर अष्टकवर्ग द्वारा फल विपरीत हैं तो अष्टकवर्ग के फल की प्रधानता होगी। समुदाय अष्टकवर्ग बृहत पराशर होराशास्त्रम् के अथ समुदायाष्टकवर्गाध्यायः के अनुसार जिस राशि/भाव में 30 से अधिक रेखा हों तो वह शुभ फलप्रद, 25-30 के बीच तो मध्यम फलप्रद और 25 रेखा से कम तो दुःख फलप्रद होती हैं। अर्थात, जब गोचरस्थ शनि शुभ फलप्रद राशि/भाव में रहे, तभी वह शुभ फल देने की क्षमता रखेगा। तात्पर्य यह है कि अगर साढ़े-साती में शनि स्थित भाव/राशि में 30 से अधिक अंक हैं, भिन्नाष्टक और प्रस्तारक वर्ग की कक्षा का भी सहयोग है तो शनि अपने अशुभ फल न दे पायेगा बल्कि शुभता ही प्रदान करेगा।
भिन्नाष्टक वर्ग समुदायाष्टकवर्ग से निष्कर्ष निकालने के पश्चात फलों की सूक्ष्म पुष्टि के लिये शनि के भिन्नाष्टक वर्ग का अध्ययन करें। इसमें यह देखा जाता है कि शनि ने अपनी गोचरस्थ स्थित राशि में कितनी शुभ रेखा प्रदत की है। संक्षिप्त नारद पुराण के पूर्व भाग, द्वितीय पाद, अष्टकवर्ग कथन के अनुसार चार से अधिक रेखा को शुभ माना गया है (कुछ विद्वान अपने अनुभवानुसार शनि के लिये 4 रेखाओं को भी शुभ मानते हैं क्योंकि शनि कुल 39 शुभ रेखा प्रदत करता है और प्रत्येक भाव का औसत 39/12 = 3.25 होता है जबकि नारद पुराण या पराशर जी ने इस प्रकार के किसी भी भेद का वर्णन नहीं किया है)। 2.3 प्रस्तारक वर्ग द्वारा कक्षा शनि एक राशि में लगभग ढाई वर्ष रहते हैं और भाव प्रवेश के बाद निश्चित आठ कक्षाओं में भ्रमण करते हैं। कक्षा में गोचर के नियम जब शनि किसी ऐसी कक्षा में गोचर करते हैं, जिस कक्षा के स्वामी ने उन्हें शुभ रेखा प्रदत्त की है तो गोचर की वह अवधि (दिनों में औसत अवधि निकालने के लिये शनि एक राशि में लगभग 30 महीने या 900 दिन रहता है और इन 900 दिन में आठ कक्षाओं से भ्रमण करता है। एक कक्षा में रहने का समय = 900/8 = लगभग 112 दिन) शुभ होती है। इसके विपरीत अगर शुभ रेखा प्रदान नहीं की है तो अशुभ परिणाम ही मिल सकते हैं।
शनि और चन्द्र की राशिगत स्थिति और अन्य प्रभाव, फलों की प्रबलता को कम या अधिक करते हैं लेकिन शुभता या अशुभता का निर्णय अष्टकवर्ग के आधार पर ही लेना अधिक उपयोगी होता है। यहाँ हम एक बात पर जोर देना चाहेंगे कि अष्टकवर्ग की इस पद्धति से केवल गोचर के फलों की पुष्टि की जा रही है। उदाहरण ऐसे अनेक उदाहरण हैं जिनमें जातक को साढ़े-साती के दौरान सफलता के शिखर की प्राप्ति हुई और ऐसे भी है जिनमें जातक को कष्ट मिला। जैसे, श्री जवाहर लाल नेहरु, श्रीमती इंदिरा गाँधी एवं श्री मोरारजी देसाई साढ़े-साती के दौरान प्रधानमंत्री बने। यहाँ हम ऐसे उदाहरण प्रस्तुत कर रहे हैं जो सामान्य तौर पर हमारे सामने आते हैं। उदाहरण-1 जातक विवरण: पुरुष, 11 जन. 1991, 11ः00, लोनी, गाजियाबाद। जातक ने 30 मई 2014 को लेखक से सलाह मांगी थी, जब वह चार्टर्ड एकाउंटेंट परीक्षा (अंतिम दोनों ग्रुप) की तैयारी कर रहा था। वह मानसिक तौर से कुछ भ्रमित सा था क्योंकि एक तो अत्यन्त कड़ी परीक्षा और ऊपर से पास के पंडित जी ने साढ़े-साती की अशुभता का डर मन में बैठा दिया था। पंडित जी ने कहा था कि शनि जब नवंबर 2014 में नीच चन्द्रमा पर गोचर करेगा तो वह अत्यंत अशुभ होगा और उसे काला धागा बाँधते हुए कुछ उपाय करने की सलाह दी।
इससे जातक को अपने असफल होने के आसार साफ-साफ नजर आने लगे और वह अपना ध्यान पढ़ाई पर केन्द्रित नहीं कर पा रहा था। कृपया ध्यान दें कि हम यहां पर कुंडली के सामान्य नियमों की चर्चा नहीं कर रहे हैं क्योंकि वह इस लेख का विषय नहीं है परन्तु उन सबकी अनुकूलता देखने के पश्चात ही हम फलों की प्राप्ति के लिये गोचरस्थ परिणाम की अष्टकवर्ग से शुद्धि कर रहे हैं। उस जातक को यह सलाह दिया गया कि सितम्बर-14 के अंत से उसके लिये लगभग एक साल तक का समय बहुत अच्छा रहेगा। उसे धैर्य और अंतर्मुखी होकर अपने कार्यों पर ध्यान केन्द्रित करना चाहिए। उसको सफलता मिलने की सम्भावना बहुत अधिक है। इस फलकथन का निम्न आधार था: साढ़े-साती अवधि क्रम राशि शुरू अंत चरण 1 तुला 15 नवं.11 15 मई 12 आरोहम 2 तुला 04 अग. 12 02 नवं. 14 आरोहम 3 वृश्चिक 03 नवं. 14 26 जन. 17 जन्म 4 धनु 27 जन. 17 20 जून 17 अवरोहम 5 वृश्चिक 21 जून 17 26 अक्तू. 17 जन्म 6 धनु 27 अक्तू. 17 23 जन. 20 अवरोहम 15 मई 12 से 04 अग. 12 की अवधि में शनि कन्या में थे डी-1 समुदायाष्टक वर्ग शनि का रेखा भिन्नाष्टकवर्ग शनि का रेखा प्रस्तारकवर्ग एवं कक्षा कक्षा/ राशि 1 2 3 4 5 6 7 8 9 10 11 12 योग शनि । । । । 4 गुरु । । । । 4 मंगल । । । । । । 6 सूर्य । । । । । । । 7 शुक्र । । । 3 बुध । । । । । । 6 चन्द्र । । । 3 लग्न । । । । । । 6 योग 3 3 5 3 1 4 4 5 3 3 1 4 39 दशा-अंतरदशा क्रम महादशा/अन्तर्दशा दशा अवधि 1 बुध / केतु 03 जुलाई 11 से 30 जून 12 2 बुध / शुक्र 30 जून 12 से 30 अप्रैल 15 3 बुध / सूर्य 30 अप्रैल 15 से 06 मार्च 16 4 बुध / चन्द्र 06 मार्च 16 से 06 अगस्त 17 5 बुध / मंगल 06 अगस्त 17 से 03 अगस्त 18 6 बुध / राहु 03 अगस्त 18 से 02 फरवरी 21 30-मई-14 को शनि गोचरवश तुला में थे।
सर्वाष्टक वर्ग: तुला में 39 अंक, अर्थात शुभ। शनि भिन्नाष्टक: तुला में 4 अंक, अर्थात, न शुभ न अशुभ। शनि की गोचरवश स्थिति 6/24 थी। अर्थात वह चन्द्र की कक्षा में थे जिसमें उन्हें चन्द्र द्वारा कोई रेखा प्राप्त नहीं है। इससे परेशानी और मानसिक अवसाद के फल की पुष्टि हो गयी। सितम्बर-14 को, शनि गोचरवश चन्द्र की कक्षा से निकल कर लग्न की कक्षा में आ रहे थे जहां उन्हें लग्न ने शुभ रेखा प्रदान की हुई है जो अशुभता में कमी आने को इंगित कर रही थी। औसतन शनि, एक कक्षा में लगभग 112 दिन रहते हैं। अर्थात, सितम्बर-14 से समय बेहतर होना तय था। नवम्बर-14 में शनि के वृश्चिक में प्रवेश होना था जहाँ पर जन्मकालीन चन्द्रमा नीच राशि में स्थित हैं। सर्वाष्टक वर्ग के वृश्चिक राशि में 38 रेखा हैं जो कि शुभ है। भिन्नाष्टक में 5 अंक हैं जो कि औसत से अधिक हैं, अर्थात शुभ। प्रस्तारक में शनि की प्रथम कक्षा स्वयं शनि की ही है और द्वितीय गुरु की। दोनों कक्षाओं में रेखा हैं। अर्थात, नवम्बर-14 से लगभग आठ महीनों में शुभ फल प्राप्त होना निश्चित है। उपरोक्त गणना के आधार पर ही यह निष्कर्ष निकाला गया कि साढ़े-साती शिखर में और नीच चंद्रमा के ऊपर होने के बावजूद जातक को नवम्बर-14 से लगभग आठ महीने शुभ फल ही प्राप्त होंगे। जातक ने मार्च-15 में फोन द्वारा सूचित किया कि उसने सी.ए.-फाईनल के दोनों ग्रुप एक ही बार में पास कर लिये हैं और वह अब ऑन-कैंपस नियुक्ति शिविर में हिस्सा ले रहा है। उदाहरण 2 जातक विवरण: पुरुष, 17-दिसंबर-1979, 10ः10, अलवर। जातक, व्यवसाय से एक कर्मकाण्ड पंडित और ज्योतिषी है। सितम्बर-2014 को जब उन्होंने अपने नये घर खरीदने की मिठाई खिलाई और बताया कि उन्हें साढ़े-साती के बावजूद शुभ फल प्राप्त हो रहे हैं क्योंकि उन्होंने उसके उपर्युक्त उपाय किये हुए हैं अनुभव से अगर उपाय श्रद्धापूर्वक किये जायें तो फल का आकार/स्वरूप बदल सकता है या फिर कुछ समय के लिए फलों का स्थगन हो जाता है। परन्तु प्रारब्ध के फल तो भोगने ही पड़ते हैं)। उन्होंने अपना विवरण देते हुए विश्लेषण का अनुरोध किया। उन्होंने, यह भी बताया कि वह पश्चिम दिल्ली के एक मंदिर में पुजारी के रूप में कार्यरत हैं। कुंडली देखने के पश्चात, उन्हें कहा गया कि नवंबर-14 के पश्चात उन्हें सतर्क रहने की आवश्यकता है क्योंकि कुंडली अनुसार समय प्रतिकूल दिखता है। बात कही-अनसुनी हो गयी परन्तु एक माह पूर्व फोन पर उन्होंने अशुभ फलों की पुष्टि करते हुए बताया कि उनका मंदिर बंद कर दिया गया है। काम मिलने में बहुत अधिक परेशानी हो रही है और मानसिक और आर्थिक समस्याओं ने घेर लिया है। आइये, सतर्कता बरतने की सलाह का विश्लेषण करते हैं:
साढ़े-साती अवधि: उदाहरण-1 से देखें डी 1: लग्न समुदायाष्टकवर्ग शनि का रेखा भिन्नाष्टकवर्ग शनि का रेखा प्रस्तारकवर्ग एवं कक्षा कक्षा/ राशि 1 2 3 4 5 6 7 8 9 10 11 12 योग शनि । । । । 4 गुरु । । । । 4 मंगल । । । । । । 6 सूर्य । । । । । । । 7 शुक्र । । । 3 बुध । । । । । । 6 चन्द्र । । । 3 लग्न । । । । । । 6 योग 3 3 5 3 1 4 4 5 3 3 1 4 39 दशा-अंतरदशा क्रम महादशा/अन्तर्दशा दशा अवधि 1 बुध / शनि 22 जन. 12 से 01 दिसं. 14 2 केतु 01 अक्तू. 14 से 01 अक्तू. 21 सितम्बर-14 में नवमेश/लग्नेश की दशा चल रही थी और शनि गोचरवश कर्म भाव में थे। तुला राशि में 33 अंक और शनि के भिन्नाष्टक में 5 अंक हैं, अर्थात शुभ फल की ही सम्भावना थी। गोचरवश शनि ने 04 नवंबर 14 को वृश्चिक में प्रवेश किया और उससे कुछ पहले 01-अक्तूबर-14 से उनकी केतु की महादशा शुरू हो गयी थी जो कि द्वितीय भाव में विराजमान हैं। बृहत पराशर अथ दशाफलाध्याय श्लोक 75 के अनुसार दूसरे भाव का केतु अशुभ होता है। अन्य कष्टों के अलावा स्थानच्युति (स्थानभ्रंश) भी देता है।
जातक का जन्म चन्द्र क्षीण, निर्बल एवं पीड़ित है। अर्थात, दशा और गोचर प्रतिकूल हैं। अब आगे अष्टकवर्ग से पुष्टि करते हैं कि क्या यह फल बदलेंगे या इनकी पुष्टि होगी? सर्वाष्टक वर्ग में 32 अंक, अर्थात शुभ भिन्नाष्टक में 3 अंक, अर्थात अशुभ प्रस्तारक में शनि की प्रथम कक्षा स्वयं शनि की ही है और उसमें शुभ रेखा है। गुरु की द्वितीय कक्षा से, जिसमें शनि ने 5-दिसम्बर को प्रवेश किया था, सूर्य की कक्षा समाप्त होने तक (लगभग 14 दिसंबर-15 तक) कोई शुभ रेखा नहीं है। अतः फलों के अशुभ ही रहने की प्रबल संभावना है। साढ़े-साती के तृतीय चरण में भी इन्हें अच्छे परिणाम मिलने की आशा कम है क्योंकि अशुभ दशा, सर्वाष्टक में केवल 24 अंक (मतान्तर से कई विद्वान त्रिकभाव में औसत से कम रेखा को शुभ मानते हंै। लेखक के अनुसार पराशर जी ने ऐसा कोई भेद अथ समुदायाष्टक वर्गाध्यायः में नहीं किया है। कम शुभ रेखा तो भाव को निर्बल ही बनायेंगी। हाँ, तुलनात्मक दृष्टि से देखें जैसे द्वादश में एकादश से कम, षष्टम एवं अष्टम में लग्न से कम तो त्रिक भाव में शुभ रेखा तुलनात्मक तौर पर ठीक लगता है) और भिन्नाष्टक में केवल 3 अंक हैं। परन्तु, गुरु की कक्षा से सूर्य की कक्षा तक शुभ रेखा होने से अशुभता दिसम्बर-2017 से दिसम्बर-2018 तक कम ही रहेगी। निष्कर्ष साढ़े-साती के विषय में समाज में बहुत डर है और अनेकों अंधविश्वास इससे जुड़े हैं। अनेकों ज्योतिषियों और लेखकों ने इस विषय पर लिख कर समाज की भ्रान्तियों को दूर करने का सुप्रयास किया है। मूलतः गोचरस्थ शनि की, जन्मकालीन चन्द्रमा से 12, 1, 2 की स्थिति अशुभ तो होती है परन्तु कुंडली अनुसार इसके परिणाम अलग-अलग हो सकते हैं। अतः किसी भी निष्कर्ष पर पहुँचने के पूर्व कुंडली का सही अध्ययन और गोचर परिणाम की अष्टकवर्ग द्वारा शुद्धि अति आवश्यक है।