केदारनाथ
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फ्यूचर पाॅइन्ट
व्यूस : 11680 | आगस्त 2010

केदारनाथ: पर्वत शिला के रूप में पूजे जाते हैं शिव यहां पेड़, पहाड़, पानी! चारों ओर हरियाली, प्राकृतिक सौंदर्य का अप्रतिम नजारा। जहां भी देखें आंखें वहीं ठहर जाएं। प्राकृतिक सौंदर्य के इसी रूप का नाम है, उत्तरांचल। परंतु इन दुर्गम पहाड़ियों पर पहुंचना भी कोई आसान काम नहीं। ऐसे ही स्थल केदारनाथ में रमण करते हैं देवों के देव महादेव शिव। प्रस्तुत है उसी केदारनाथ स्थली का चित्र उकेरता आलेख. पर्वतीय प्रदेश देवभूमि उत्तरांचल के क्रोड़ में बसे बारह ज्योतिर्लिंगों में से एक प्रमुख ज्योतिर्लिंग केदारनाथ का भव्य सौंदर्य देखते ही बनता है। चारों ओर हिमाच्छादित पहाड़ियां, शीतल मंद बहती बयार और उदित होते सूर्य की सुनहरी रश्मियां पूरे वातावरण को नैसर्गिक आनंद से भर देती हैं। प्रकृति के इस अप्रतिम नजारे को जो देखे वही अपना अस्तित्व विस्मृत कर दे। यह मनोहर पावन स्थल देश-विदेश के यात्रियों के लिए मुख्य आकर्षण का कंेद्र है।

यहां आने वाले लोग बदरीनाथ यमुनोत्री, गंगोत्री व गोमुख की यात्रा करने का लोभ भी संवरण नहीं कर पाते। केदारनाथ गढ़वाल के उत्तरकाशी जिले में समुद्र तल से 3783 मीटर की ऊंचाई पर स्थित है, जो चीन की सीमा से लगा हुआ है। केदारनाथ का मंदिर लगभग 1000 साल पुराना बताया जाता है। मंदिर का निर्माण विशाल शिलाओं से किया गया है, जिन्हें देखकर हैरानी होती है कि इतनी बड़ी-बड़ी शिलाओं को कैसे उठाया गया होगा। मंदिर में एक गर्भगृह निर्मित है, जहां श्रद्धालु पूजा-अर्चना करते हैं। गर्भगृह के भीतर वृषभ के पृष्ठ भाग के आकार के रूप में भगवान शिव विराजमान हैं। यह स्वयंभू ज्योतिर्लिंग है जिसे किसी मानव ने नहीं बनाया बल्कि यह प्राकृतिक रूप से बना हुआ है। पर्वत के त्रिकोणाकार रूप में शिव की पूजा संभवतया अन्य कहीं नहीं होती होगी। मंदिर के प्रांगण में खड़ी एक विशालकाय नंदी बैल की प्रतिमूर्ति शिव मंदिर की पहरेदारी करती प्रतीत होती है।

शिव की चमत्कारिक शक्तियां हर जगह अपना प्रभाव छोड़ती हैं। केदारनाथ के उद्भव के बारे में भी कुछ ऐसी ही कथा प्रचलित है। कहा जाता है कि जब पांडव कुरुक्षेत्र के युद्ध में अपने संबंधियों के अपने हाथों मारे जाने का पश्चताप करने यहां आए तो शिव के मन में पांडवों से छल करने की सूझी, वे केदारनाथ में बैल के रूप में रहने लगे। लेकिन भीम ने पशुओं के झंुड के बीच शिव को पहचान लिया। शक्तिशाली भीम ने शिव को पकड़ना चाहा लेकिन बैल रूपी शिव धरती में धंस गए, भीम के हाथ में केवल वृषभ की पूंछ ही आ पाई। यह स्थान ‘मुख्य केदार’ के रूप में प्रसिद्ध है। वृषभ रूपी शिव के शरीर के बाकी भाग गढ़वाल में तुंगनाथ, मध्यमहेश्वर, कल्पेश्वर और रुद्रनाथ में अवस्थित हंै। इन पांचों स्थलों की पूजा पंच केदार के रूप में होती है। यहां पांचों पांडवों, शिव-पार्वती, विष्णु लक्ष्मी एवं नारद के मंदिर भी हैं। सर्दियों में केदारनाथ में बहुत बर्फ गिरने के कारण केदारनाथ की चल मूर्ति को ऊखीमठ में लाया जाता है। पूरे शीतकाल में उनकी पूजा-अर्चना यहीं होती है। कहा जाता है कि केदारनाथ के मंदिर का जीर्णोद्धार आदि गुरु शंकराचार्य ने कराया। वर्तमान मंदिर शंकराचार्य का बनाया हुआ है। अन्य दर्शनीय स्थल: शंकराचार्य समाधि मंदिर के पृष्ठ भाग में मंदाकिनी नदी के तट पर ही आदि गुरु ने समाधि ली थी। यहां शंकराचार्य का छोटा सा मंदिर और उनके द्वारा पूजित शिवलिंग अवस्थित है।


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यह स्थान नैसर्गिक सौंदर्य से भरपूर है। चोराबाड़ी ताल: केदारनाथ से 2 किमी की दूरी पर यह एक छोटा सा खूबसूरत सरोवर है। सरोवर के ऊपर नाव की तरह तैरती बर्फ देखने वालों को मंत्रमुग्ध कर देती है। कहा जाता है कि युधिष्ठिर ने इसी स्थान से स्वर्ग के लिए प्रस्थान किया था। वासुकि ताल: केदारनाथ से लगभग 8 किमी की दूरी पर यह एक अत्यंत रमणीक स्थल है। इसकी ऊंचाई समुद्र तल से 4,135 मीटर है। यहां जाने का मार्ग बहुत कठिन है, रास्ते में कोई विश्राम स्थल भी नहीं है। गौरी कुंड: यहां दो कुंड हैं - एक गर्म पानी का दूसरा ठंडे पानी का। शीतल कुंड को अमृत कुंड कहा जाता है। कहते हैं, माता पार्वती ने इसी में प्रथम स्नान किया था। गौरी कुंड का जल पर्याप्त उष्ण है। माता पार्वती का जन्म यहीं हुआ था। यहां पार्वती का मंदिर है, यहां से केदारनाथ लगभग 14 किमीहै। सोमप्रयाग: यहां सोम नदी मंदाकिनी में मिलती है। यहां से पुल पार छिन्नमस्तक गणपति हंै। त्रियुगी नारायण: सोम प्रयाग से 5 किलोमीटर की दूरी पर स्थित इस पर्वत शिखर पर नारायण भगवान का मंदिर है। यहां भगवान नारायण भूदेवी तथा लक्ष्मी देवी के साथ विराजमान हैं।

यहां एक सरस्वती गंगा की धारा भी है जिससे चार कुंड बनाए गए हैं- ब्रह्म कुंड, रुद्रकुंड, विष्णु कुंड और सरस्वती कुंड। रुद्रकुंड में स्नान, विष्णु कुंड में मार्जन, ब्रह्मकुंड में आचमन और सरस्वती कुंड में तर्पण होता है। कहते हैं कि इसी स्थल पर शिव पार्वती का विवाह संपन्न हुआ था। उनके विवाह की साक्षी अग्नि आज भी अखंड धूनी के रूप में मंदिर के प्रांगण में प्रज्वलित रहती है। त्रियुगी नारायण का मार्ग कठिन चढ़ाई का है। यहां जहरीली मक्खियों के उपद्रव का भी सामना करना पड़ता है। शाकंभरी देवी: जो लोग त्रियुगीनारायण जाते हैं, उन्हें लगभग दो मील की चढ़ाई के बाद शाकंभरी देवी का मंदिर मिलता है। इन्हें मनसा देवी भी कहते हैं। देवी को चीर चढ़ाया जाता है। गुप्त काशी: यहां अर्धनारीश्वर शिव की नंदी पर आरूढ़ सुंदर मूर्ति है और काशी विश्वनाथ की लिंग मूर्ति भी है। यहां एक कुंड में दो धाराएं मिलती हैं जिन्हें गंगा-यमुना कहते हैं। प्राचीन काल में ऋषियों ने भगवान शंकर की प्राप्ति के लिए यहीं तप किया था। यहां यात्री स्नान करके गुप्त दान करते हैं। यहां डाकबंगला व क्षेत्र की धर्मशाला भी है। आवश्यक बातें: पहाड़ी क्षेत्र में यात्रा करने के लिए आवश्यक जूते, सूती-ऊनी कपड़े, बरसाती कोट, इमली, औषधियां, टार्च, लालटेन, मोमबत्ती, सुई धागा, वैसलिन आदि साथ रखें। चलते-चलते झरने का जल सीधे न पीकर बर्तन में थोड़ी देर रख कर पीएं, ताकि उसमें स्थित रेत या अन्य पदार्थ नीचे बैठ जाएं।

ऋषिकेश से बिच्छू घास (झुनझुनिया) मिलने लगती है, उसके स्पर्श से बचना चाहिए। केदारनाथ मार्ग में जहरीली मक्खियां होती हैं जिनके काटने पर खुजली और खुजलाने पर फोड़े हो जाते हैं, इसलिए पूरे शरीर को ढकने वाले कपड़े पहनने चाहिए। केदारनाथ मार्ग पर कई लोगों को एक पहाड़ी फूल की गंध भी लगने लगती है जिससे प्रायः चक्कर भी आ जाते हैं। खट्टा आदि खाने से इसका असर कम हो जाता है। बासी या गरिष्ठ भोजन नहीं करना चाहिए। शीतल जल में अधिक देर स्नान नहीं करना चाहिए। यात्रा प्रातः से 11 बजे तक और शाम को 3 बजे के बाद सूर्यास्त तक करनी चाहिए। इतना अधिक नहीं चलें कि थकान हो जाए और तबीयत खराब हो जाए। कब जाएं/कैसे जाएं: केदारनाथ जाने का सबसे उत्तम समय मई से अक्टूबर के बीच रहता है। निकटतम हवाई अड्डे जौली ग्रांट, देहरादून और रेलवे स्टेशन ऋषिकेश एवं कोटद्वार हैं। सड़क मार्ग से गौरी कुंड तक देश के प्रमुख पहाड़ी स्टेशनों से गाड़ियां जाती हैं।


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