जिस जातक की जन्मकुंडली में मंगल चतुर्थ, सप्तम, अष्टम, द्वादश भावों में स्थित होता है, उसे मांगलिक कहा जाता है। उपरोक्त भावों के अलावा द्वितीय भाव में मंगल की स्थिति को भी मंगली दोष मानते हैं। अर्थात यदि वर की जन्मकुंडली के उपयुक्त भावों में से किसी भाव में मंगल हो तो वर या वधू के जीवन को खतरा हो सकता है।
मंगल अग्नि तत्व प्रधान ग्रह है। अनिष्ट व मारकेश होने पर मृत्यु कारक है किंतु इसी एक योग से मंगल मृत्यु का कारण नहीं बन सकता है, क्योंकि मंगल ग्रह साहस, पुरूषार्थ, आत्म बल व उच्च शिखर का कारक है। पापी ग्रह और भी हंै। नव ग्रहों में मंगल ग्रह के अलावा सूर्य, शनि, राहु, केतु पापी ग्रह हैं। बुध इन ग्रहों के साथ होने या संबंध बनाने से पापी है।
अतः यदि एक व्यक्ति के पूर्ण भावों में मंगल के साथ-साथ उक्त ग्रह हों तो वह द्विगुण, त्रिगुण मांगलिक हो जायेगा। पाप ग्रह जहां पर जातक को आकस्मिक धन लाभ प्राप्त कराते हैं वहां पर भौतिक सुखों में कमी लाते हैं एवं मृत्यु कारक होते हैं। लग्न शरीर है, चंद्रमा मन है, शुक्र रति है, मंगल स्वयं कामदेव है, गुरु उच्च शिखर पर ले जाने वाले एवं सुखों की प्राप्ति एवं सम्मान दिलाने वाले हैं।
वर के लिए शुक्र पत्नी कारक है कन्या के लिए गुरु पति कारक है अतः इनकी शुभता व अशुभता का सुगमता से अध्ययन किया जाना आवश्यक है।
1. यदि वर की कुंडली मंगली दोष मुक्त है किंतु उसका सप्तमेश, सप्तम भाव तथा पत्नी सुख कारक ग्रह, शुक्र बलवान हो तो मांगलिक कन्या से विवाह होने पर पत्नी सुख प्राप्त होगा। उसी प्रकार सप्तमेश, सप्तम भाव व गुरु बलवान हो तो मांगलिक वर से विवाह होने पर पति सुख प्राप्त होगा।
2. यदि एक को मांगलिक दोष हो एवं दूसरे का लग्नेश अष्टमेश बलवान हो तो मांगलिक होना आवश्यक नहीं है।
3. यदि एक के मंगल हो एवं दूसरे के मंगल के अलावा शनि, राहु सप्तम भाव में हो या भाव पर दृष्टि डालते हों तो मंगल दोष के सदृश ही कार्य करेंगे। दांपत्य सुख का संबंध सप्तम भाव से ही नहीं है। द्वादश भाव का संबंध भोग तथा चतुर्थ भाव का शयन सुख से है। अतः जीवन साथी के लग्न, चतुर्थ, सप्तम, अष्टम द्वादश में शनि राहु की स्थिति से जीवन साथी का मांगलिक दोष नष्ट हो जाता है।
4. यदि वर वधू की राशि में मैत्री हो, ग्रह स्वामी एक हों अथवा तीस गुण से अधिक गुण मिलान हो तो मांगलिक दोष नहीं रहता।
5. यदि सप्तम भाव में मंगल की मेष, वृश्चिक राशि है एवं मंगल सप्तम भाव में है या कहीं से सप्तम भाव को देख रहा है तो मंगली दोष नहीं होगा क्योंकि सप्तम भाव का स्वामी स्वयं मंगल है। यदि मंगल केंद्र व त्रिकोण का स्वामी होकर केंद्र में बैठा हो तो हानि नहीं करेगा।
6. गुरु, शुक्र बलवान होकर केंद्र में बैठे हों तो मंगली दोष से खतरा नहीं होगा। विवाह में विलंब विवाह में विलंब का कारक ग्रह शनि है। सप्तम भाव, शनि या सप्तमेश से शनि का संबंध हो तो विवाह में विलंब होता है। ऐसे जातक का विवाह 32 वर्ष से 39 वर्ष के मध्य हो पाता है। कभी-कभी यह सीमा 42-43 वर्ष भी पार कर जाती है। शनि व राहु की युति, सप्तमेश व शुक्र निर्बल होने से एवं शनि राहु की सप्तम भाव पर दृष्टि होने से विवाह 50 वर्ष की आयु में होता है। सप्तम भाव में शनि पूर्व जन्म के दोष दर्शाता है एवं पूर्व जन्मों के कर्मों का ज्ञान भी कराता है।
सप्तम भाव विवाह में विलंब, विवाह प्रतिबंध, संन्यास योग आदि दर्शाता है। शनि की सूर्य से युति जातक के विवाह में बाधायें एवं विलंब पैदा करती है। चंद्र से युति घातक एवं राहु मंगल केतु से अनिष्ट कारक होती है। सप्तम भाव केन्द्र भाव है जिसमें शनि बलि होता है। किंतु सप्तम भाव के एक ओर शत्रु भाव एवं दूसरी ओर आयु भाव होता है। अतः सप्तम भाव का स्वामी शनि होने से दोनों भावों में छठे आठवें भावों में एक भाव का स्वामी होगा क्योंकि शनि दो राशियों मकर कुंभ का स्वामी है।
सिद्धांत के अनुसार केन्द्रस्थ, पापग्रह अशुभ फल देते हैं। सप्तमस्थ शनि तुला, मकर, कुंभ राशि में होने से शश योग निर्मित होता है जिससे जातक उच्च पद प्रतिष्ठ होता है किंतु चारित्रिक दोष से बच नहीं पाता।
उपाय
- शनिवार को काली गाय व कौवों को मीठी रोटी एवं बंदरों को लड्डू खिलायें।
- शनिवार को छायादान करें, हनुमानजी की पूजा करें, सूर्य की उपासना करें, शनि के गुरु शिव हंै अतः शिव आराधना करें। दशरथ कृत शनि स्तोत्र का पाठ करें।
- रामायण की चैपाई- सौ तुम जानहू अंतरयामी, पुरवहू मोर मनोरथ स्वामी का जेाप करें।