कन्या की कुंडली से पति का विचार करते समय सूर्य एवं मंगल इन दो ग्रहों से विचार करना चाहिये। सूर्य की स्थिति से पति का बल, आयु, शिक्षा, दिशा और प्रेम का विचार करना चाहिए। मंगल की स्थिति से पति की आयु, उत्साह, सामथ्र्य, इज्जत, व्यवसाय, उन्नति आदि का विचार करना चाहिए। सूर्य हमारे देश में विवाह (शादी) के समय वर-वधू की कुंडली में मंगलीक-दोष का बहुत विचार किया जाता है। आमतौर पर मंगल के वर के लिए मंगल की वधू ठीक समझी जाती है अथवा गुरु और शनि का बल देखा जाता है।
मांगलिक दोषानुसार पति या पत्नी की मृत्यु का होना माना जाता है। इस योजना के अपवाद भी हैं- लग्न में मेष, चतुर्थ में वृश्चिक, सप्तम में मकर, अष्टम में कर्क तथा व्यय भाव में धनु राशि में मंगल हो तो यह मंगल वैधव्य योग अथवा द्विभार्या योग नहीं करता। शनि द्वारा दूषित हो तो पति अधिक आयु का, दुर्बल, रोगी, निर्दयी, दुष्ट मिलता है ऐसा पाश्चात्य ज्योतिषियों का मत है। ऐसी स्थिति में अनेकों जगह यत्न करने के बाद विवाह देरी से होता है।
विवाह के समय पिता दरिद्र होता है अथवा उसकी मृत्यु के बाद विवाह होता है। किंतु पति तरुण होता है और प्रेमी भी। विवाह के पश्चात् पिता की प्रगति होती है। मंगल शनि द्वारा दूषित हो-इनमें युति, केंद्र, द्विद्र्वादश अथवा प्रतियोग हो या मंगल से चतुर्थ या अष्टम भाव में शनि हो तो अशुभ फल मिलते हैं। विधवा होना, विभक्त होना, संतान का न होना आदि फल मिलते हैं। सन्तति न होने पर ही संपत्ति मिलती है।
पुत्र होते ही दिवाला निकलना, नौकरी छूटना, सस्पेंड होना, रिश्वत के अपराध में फंसना आदि प्रकार होते हैं और आत्म हत्या अथवा देश-त्याग का विचार करने लगते हैं। जब जन्मस्थ मंगल से गोचर शनि का भ्रमण होता है तब ये फल मिलते हैं, पति बुद्धिमान, कलाकुशल, उत्साही होकर भी कुछ नहीं कर पाता, 50वें वर्ष तक स्थिरता प्राप्त नहीं होती। ऐसे में पति दूसरा विवाह भी कर सकता है। सौत आने पर भाग्योदय होता है।
लग्नादि पांच स्थानों से अन्य स्थानों में मंगल हो तो बाधक नहीं समझा जाता। किंतु शनि द्वारा दूषित हो तो उन स्थानों से भी ये ही अशुभ फल मिलते हैं। अब आगे कुंडलियों द्वारा उदाहरण स्पष्टीकरण करते हैं- विवाह हुआ परंतु पति से कभी संबंध नहीं हुआ। पति ने इसे हमेशा के लिए त्याग दिया। इस कुंडली में पतिकारक दोनों ग्रह सूर्य तथा मंगल, शनि से सप्तम में हंै और चंद्र शनि के साथ अष्टम में है।
इस व्यक्ति (पति) ने पत्नी का परित्याग कर असामाजिक स्त्री से पुनर्विवाह किया। पत्नी की कुंडली में मंगल के पीछे शनि है। दोनों की कुंडली में लग्नस्थ शनि है। अतः मृत्यु योग नहीं हुआ। कन्या विवाह के 6 वर्ष बाद विधवा हुई। यहां मंगल के पीछे शनि है। पत्नी - आश्विन, शक - 1847, ईष्ट-58.46 मुंबई पति - आषाढ़ कृष्ण-3, शक-1836, इष्ट-58.45ः रत्नागिरी विवाह होते ही पति पागल हो गया। दोनों के लग्न में सू., श., बु. तथा मं. है।
पत्नी की कुंडली में मं. श. से पीछे है। स्त्री को विवाह का सुख नहीं मिला। सन् 1939 में विवाह होते ही पति बीमार हुआ और 1941 में उसकी मृत्यु हुई, दोनों ही मंगली हैं। स्त्री का लग्न दूषित होने से वैधव्य योग हुआ। वशिष्ठ ने कहा है- ‘‘मूर्तो राहर्क भौमेषु रंडा भवति कामिनी’’ अर्थात लग्न में राहु, सूर्य या मंगल हो तो वह स्त्री विधवा होती है। पति श्रावण बदी- 9, शक-1815, इष्ट-37, ता. 4-9-1893 पत्नी मार्गशीर्ष कृष्ण-9 शक-1829, इष्ट-36.54 घटी इन दोनों ने विवाह के बाद गरीबी में ही दिन बिताए किंतु दोनों में बहुत प्रेम था और संतान भी अच्छी हुई। पत्नी की कुंडली में अष्टम में मंगल के पीछे शनि है।
किंतु पति की कुंडली में लग्न में सूर्य, मंगल तथा धन भाव में शनि, शुक्र है। अतः दुष्परिणाम नहीं हो सका। श्रीमती हरिगंगाबाईशहा-बसई, भाद्रप्रदवदी, चतुर्थी, शक-1811 सूर्योदय, सूरत (गुजरात)। इसके जन्म के तीसरे महीने में पिता की मृत्यु तथा 13 वें वर्ष में विवाह हुआ। विवाह के तीसरे महीने में पति की मृत्यु हुई। संतान नहीं हुई, लग्न में सूर्य, मंगल तथा शनि का प्रभाव रहा है। निष्कर्ष: कन्या की कुंडली में शनि-मंगल का अशुभ योग हो, चतुर्थ या सप्तम में पापग्रह हो तो उसका विवाह नहीं होता, हुआ तो उसे वैवाहिक सुख नहीं मिलता अथवा वैधव्य प्राप्त होता है।
ऐसी कन्या के वर की कुंडली में शुक्र और शनि का अशुभ योग होना चाहिए। युति, प्रतियोग अथवा द्विद्र्वादश योग होना चाहिए। उन दोनों का जीवन गरीबी में किंतु सुख-पूर्वक बीतेगा। कन्या की कुंडली में मंगल दूषित हो, तो पति पर अनिष्ट प्रभाव होता है।
उसी तरह पति की कुंडली में शुक्र दूषित हो, तो पत्नी पर अनिष्ट प्रभाव होता है। इसलिए इन दोनों अशुभ योगों के दोनों की कुंडलियों में इकट्ठे आने पर सुखमय जीवन बीतता है। अतः दोनों की कुंडलिया में केवल मंगली-मंगली का दोष देखकर ही विवाह नहीं कर देना चाहिए। सूर्य और शनि के संबंध भी देखने चाहिए।