1. शास्त्रों में उल्लेख संक्षिप्त नारद पुराण के पूर्व भाग, द्वितीय पाद, श्लोक 435-438 में विवाह के इक्कीस दोष बताये गये हैं। इनमें से छठा दोष है “भौम महादोष” अर्थात मंगल का लग्न से अष्टम भाव में होना। श्लोक 435-438 में कहा गया है कि यदि मंगल उच्च का हो एवं तीन शुभ ग्रह लग्न में हों तो इस लग्न का त्याग नहीं करना चाहिये (अर्थात, ऐसी स्थिति में अष्टम मंगल का दोष खत्म हो जाता है)
गौर करें कि हमारे पुराण ने ही परिहार का रास्ता भी दिखाया है। दृष्टि: श्लोक 23 के अनुसार सभी ग्रह अपने-अपने आश्रित स्थान से - 3, 10 भाव को एक चरण से - 5, 9 भाव को दो चरण से - 4, 8 भाव को तीन चरण से Û 7 भाव को चार चरण (पूर्ण) से देखते हैं। किन्तु, शनि तीसरे और दसवें भाव को, गुरु पांचवें और नवें भाव को और मंगल चैथे और आठवें भाव को भी पूर्ण दृष्टि से ही देखते हैं। मंगल की अष्टम में स्थिति और उसकी दृष्टियां जातक पर क्या प्रभाव डालेंगी? आइये देखते हैं, कुंडली के माध्यम से। मंगल के नैसर्गिक अशुभ ग्रह होने के कारण उनकी अष्टम भाव स्थिति से जातक के आयु भाव (विवाह आयु, दुर्घटना, आय का अनैतिक या नैतिक दूसरा स्रोत भी), लाभ भाव, धन भाव और साहस/पौरुष भाव प्रभावित हो रहे हैं।
2. समय के साथ बदलती परिभाषा समय के साथ-साथ विद्वानों ने शास्त्रों की व्याख्या और नयी कृतियों की रचना की। इन नयी-नयी व्याख्याओं में “भौम महादोष” मांगलिक दोष बन गया और उसकी परिभाषा बदलती चली गयी। इस बदलाव का आधार विद्वानों का अपना अनुभव या उनके समक्ष प्रस्तुत परिस्थिति ही रही होंगी। किसी अज्ञात स्रोत से निम्न श्लोक आया और लगभग हर पुस्तक में आपको इसका जिक्र मिलेगा: लग्नेव्यये च पाताले, जामित्रे चाष्टमे कुजे। कन्याभर्तुर्विनाशय, भर्तुः कन्या विनाशकः ।। अर्थात, कुंडली में 1, 4, 7, 8, 12 भाव में मंगल हो तो कन्या, भर्ता का और भर्ता, कन्या का नाश करते हैं। श्री आर्यभट्ट-पंचांगम (2014-15, पृष्ठ 156) ने तो यहाँ तक कह दिया है कि यह श्लोक किसी ऋषि द्वारा लिखा प्रतीत नहीं होता क्योंकि वर को भर्तु की संज्ञा दी गयी है और भर्तु तो विवाह के पश्चात कहना ही उचित होता है। विद्वानों ने यहां तक कह दिया है कि इन सभी मांगलिक भावों को लग्न के अतिरिक्त, चंद्रमा और शुक्र से भी देखना चाहिये। मांगलिक दोष को शुक्र से सबसे कम, चन्द्रमा से उससे अधिक और लग्न से सबसे अधिक कहा जाता है।
दक्षिण भारत में द्वितीय भाव को भी सम्मिलित किया जाता है। इस संदर्भ में वर्णित श्लोक, उपरोक्त श्लोक जैसा ही है परन्तु प्रथम शब्द “धनभावे” से शुरू होता है। इस प्रकार अगर मांगलिक दोष को देखेंगे तो शायद ही कोई व्यक्ति बचे जो मांगलिक नहीं होगा। इन भावों को सम्मिलित करने के पीछे निम्न कारण रहे होंगे:
1. प्रथम भाव का मंगल तनु भाव, सुख भाव, विवाह भाव, और आयु भाव (विवाह की आयु भी) को पीड़ित करेगा।
2. द्वितीय भाव का मंगल धन भाव, संतान व शिक्षा भाव, आयु भाव और भाग्य भाव को पीड़ित करेगा।
3. चतुर्थ भाव का मंगल सुख भाव, विवाह भाव, कर्म भाव और लाभ भाव को पीड़ित करेगा।
4. सप्तम भाव का मंगल विवाह भाव, धन भाव, तनु भाव एवं कर्म भाव को पीड़ित करेगा।
5. अष्टम भाव का मंगल आयु भाव (विवाह की आयु भी), लाभ भाव, धन भाव और पौरुष भाव को पीड़ित करेगा।
6. द्वादश भाव का मंगल शयन सुख भाव, पौरुष भाव, रोग/ऋण भाव एवं विवाह भाव को पीड़ित करेगा।
3. निरस्तीकरण “भौम महादोष” का परिहार आगे वर्णित है। जिस प्रकार समय के साथ-साथ परिभाषा बदली, उसी प्रकार नये-नये दोषों के परिहार भी आये। कुछ मुख्य एवं अधिक प्रचलित मांगलिक दोष के निम्न परिहार हैं (आधुनिक विधि से कुंडली की विवेचना - श्री मेहता एवं श्री थपलियाल एवं कौन मांगलिक नहीं दृ प. गोस्वामी):
Û अष्टम में स्थित मंगल अगर स्वराशि या उच्च का हो। यह मेष, कन्या या मिथुन लग्न में ही संभव है। इस परिहार का संकेत तो नारद पुराण ने ही दे दिया था।
Û द्वितीय भाव में मंगल बुध की मिथुन या कन्या राशि में हो।
Û चतुर्थ भाव में मंगल स्वराशिस्थ हो। यह मकर लग्न या सिंह लग्न में ही संभव है।
Û सप्तम भाव में कर्क अथवा मकर राशि का मंगल। अर्थात, नीच या उच्च का मंगल जो कि मकर लग्न या कर्क लग्न में ही संभव है।
Û अष्टम भाव में बृहस्पति की राशियों का मंगल। यह वृषभ लग्न या सिंह लग्न में ही संभव है।
Û द्वादश भाव में शुक्र की राशियां हों। यह मिथुन लग्न या वृश्चिक लग्न में ही संभव है
Û सिंह और कुम्भ राशियों में मंगल हो (किसी भी मांगलिक भाव में)।
Û मंगल-बृहस्पति या मंगल-चन्द्रमा की युति से मांगलिक दोष नगण्य सा हो जाता है। Û वक्री, नीच, अस्त मंगल हो तो भौम दोष नहीं रहता।
Û मंगल की स्थिति से कुंडली में रुचक महापुरुष योग बन रहा हो।
Û अगर वर एवं कन्या दोनों की कुंडलियों में मांगलिक दोष हो।
Û एक की कुंडली में जिस स्थान पर मंगल हो, दूसरे की कुंडली में उसी स्थान में शनि, राहु या केतु हों।
Û मांगलिक जातक की आयु के 28 वर्ष पूर्ण हो चुके हों। कृपया गौर करें कि यह कुछ मुख्य एवं अधिक प्रचलित मांगलिक दोष के परिहार हैं। यह पूर्ण सूची नहीं है।
4. विवाह के अन्य महत्वपूर्ण घटक समय में बहुत बदलाव आ गया है। प्राचीन समय में समाज पुरुष प्रधान था और आधुनिक समय के विकसित देशों में तो प्रधानता पुरुष-स्त्री में संतुलित प्रतीत होती है। हमारे देश में भी पुरुष प्रधानता में धीरे-धीरे कमी आ रही है। समय के साथ स्त्रियाँ आध्यात्मिक एवं आर्थिक तौर पर आत्मनिर्भर हो रही हैं। इस परिवर्तन से पुरुष और स्त्री दोनों एक-दूसरे को समझने का अधिक प्रयास करते हैं
और जीवन की हर स्थिति में परस्पर सहयोग की अपेक्षा करते हैं। इसीलिये आधुनिक परिप्रेक्ष्य में, अगर मांगलिक दोष को सर्वाधिक महत्व न देकर कुंडली के अन्य घटकों का भी विश्लेषण करेंगे तो वैवाहिक जीवन शांतिप्रिय और सुखी रहने की सम्भावना अधिक है। उदाहरण के तौर पर वर/कन्या की आयु, कर्म भाव, लाभ एवं धन भाव, संतान क्षमता, चरित्र इत्यादि।
5. निष्कर्ष साढ़े-साती की तरह ही मांगलिक दोष के विषय में भी समाज में बहुत डर है और बहुत से अंधविश्वास इससे जुड़े हैं। हमारे अनुभव अनुसार केवल मंगल की वर्णित भावों में स्थिति के आधार पर वैवाहिक दोष का निर्णय नहीं करना चाहिए बल्कि कुंडली के अन्य भावों को भी महत्व दिया जाना चाहिये।