ज्योतिषीय दृष्टि से जन्मांग का सप्तम, द्वितीय, द्वादश (पुरुषों के मामलें में) और अष्टम (स्त्रियों के मामले में) भाव, सप्तमेश, द्वितीयेश, द्वादशेश और अष्टमेश तथा वैवाहिक सुख प्रदाता शुक्र वैवाहिक सुख, गृहस्थ सुख से संबंधित भाव, भाव के स्वामी ग्रह और उनके कारक आदि सभी अनुकूल रहते हों तो उन दम्पत्तियों का गृहस्थ जीवन एवं पति-पत्नी के संबंधों के लिए महत्वपूर्ण माने गये हैं। इनके अलावा पंचम भाव और पंचमेश एवं बृहस्पति संतान के प्रतीक माने गये हैं।
अगर ये सभी भाव, कारक एवं ग्रह सुदृढ़ हों तथा बली अवस्था में हों तो विवाह एवं गृहस्थ जीवन सुख, संतुष्टि, प्रसन्नता और सम्मान आदि से भरा रहता है। उनके मध्य अत्यधिक स्नेह और प्रेम बना रहता है, लेकिन जब यह भाव, उनके स्वामी और कारक पीड़ित और प्रतिकूल दशा में रहते हैं, उनके ऊपर सूर्य, मंगल, शनि, द्वादशेश, राहु, केतु जैसे पृथकता एवं त्यागात्मक कारकों का प्रभाव होता है तो उन दम्पत्तियों का वैवाहिक जीवन लड़ाई-झगड़े, कलह, संताप, दुख, दर्द, वैमनस्यता आदि से भर जाता है और उनमें तलाक तक की नौबत पैदा हो जाती है।
वैवाहिक जीवन में आने वाले इस प्रकार के उतार-चढ़ाव को कुछ जन्मांगों के माध्यम से स्पष्ट करने का प्रयास किया जा रहा है - उदाहरण कुंडली-1 धनु लग्न का यह जन्मांग एक बहुत ही अभागिनी नारी का है। इस नारी ने अपने वैवाहिक जीवन में 29 वर्ष केवल कष्ट ही कष्ट झेले। इसे न तो पति का सुख मिला और न ही पति से तलाक ही मिल पाया। यह न तो अपने बच्चों को साथ रख सकी और न ही इसे अपने ससुराल का सुख ही प्राप्त हो पाया। यहां तक कि यह पिछले 23 वर्षों से अपने बड़े पुत्र से एक बार भी नहीं मिल पायी है।
नारी पिछले 23 वर्षों से अपने मायके में रहकर अपना जीवन व्यतीत कर रही है। इनके जन्मांग में सप्तम भाव में मंगल की उपस्थिति मंगली दोष की रचना कर रही है। सप्तम भावस्थ मंगल जीवनसाथी के स्वास्थ्य को क्षति पहुंचाने के साथ-साथ दाम्पत्य जीवन में कलह और व्यापार में निरंतर उथल-पुथल मचाये रखने के लिए जिम्मेदार माना जाता है। यह धन हानि कुटुम्बियों में कलह और उनमें चारित्रिक गिरावट की स्थिति तक पैदा करते देखा गया है। अगर सप्तम भाव में मंगल को मिथुन या कर्क राशि का योग मिल जाए, तो यह मंगल जातक को दुराचारी से लेकर व्यभिचारी तक बना डालता है।
इसके अलावा सप्तम भाव में पंचमेश मंगल के साथ केतु स्थित है तथा लग्न भाव में राहु भी बैठा है। सप्तम भाव में स्वगृही बुध भद्रयोग बना रहा है। पंचमेश और सप्तमेश के योग से स्व-वरण विवाह का योग बना लेकिन विवाह के उपरांत शीघ्र कलह का संकेत भी दे रहा है। सूर्य की षष्ठ भाव में स्थिति भी दाम्पत्य जीवन के लिए शुभ नहीं है। सप्तमेश बुध सप्तम भाव में है।
चंद्रमा लग्न से सप्तम भाव पर उच्च के बृहस्पति और चंद्रमा की शुभ दृष्टि पड़ रही है। बृहस्पति की उच्च दृष्टि कुटुम्ब भाव पर भी है, अतः सप्तम भाव और सप्तमेश बुध विवाह बाधा से मुक्त है। चंद्रमा से सप्तम भाव में कोई ग्रह स्थित नहीं है। यद्यपि चंद्र लग्न से भी सप्तम भाव पर मंगल का अशुभ प्रभाव पड़ रहा है। विवाह कारक शुक्र और पति कारक बृहस्पति भी इस जन्मांग में उत्तम स्थिति में हैं, अतः इस जन्मांग से एक एक तरह शीघ्र विवाह का संकेत है, तो दूसरी तरफ कुछ अशुभ योगों के कारण गृहस्थ सुख में बाधा का संकेत भी है।
जाविवाह 20 वर्ष की आयु में सप्तमेश बुध की महादशा में बिना किसी परेशानी के संपन्न हो गया। बुध की महादशा में ही इसे दो पुत्रों की प्राप्ति भी हुई किंतु सप्तम भाव और कुटुंब भाव पर द्वादशेश मंगल की अशुभ दृष्टि, शुक्र, सप्तम भाव एवं सप्तमेश पर राहु के प्रभाव तथा लग्न से अष्टम भाव में सुखेश बृहस्पति की स्थिति एवं उन पर पापमय शनि की दृष्टि ने जातिका को पति एवं गृहस्थ सुख से सदैव वंचित ही बनाए रखा। परिणाम यह हुआ कि इस जातिका को ससुराल और मायके, दोनों में से किसी भी स्थान पर परिवार का सुख भी नसीब न हो पाया। इसके अतिरिक्त सप्तम भाव में पाप ग्रह अशुभ योग बनाकर बैठा है।
चंद्रमा और शुक्र पर भी पाप ग्रह शनि की दृष्टि है। षष्ठेश षष्ठ भाव से बारहवें भाव में स्थित है। ये सभी योग पति का चरित्र पतन करने के कारण बन रहे हैं। जन्मांग में इन योगों के कारण पति का दूसरी स्त्रियों के साथ अनैतिक संबंध बना और उसने अपने से कम उम्र की स्त्रियों को रखैल बनाकर अपने पास रखा। इसी प्रकार षष्ठेश और अष्टमेश पर शनि की दृष्टि, द्वितीय और सप्तम भाव पर मंगल का प्रभाव निश्चित ही विवाह विच्छेद का योग बना रहा है। इस योग ने सदैव इस जातिका को पीड़ा पहुंचायी। जातिका को दिसंबर, 1990 से केतु की महादशा शुरु हुई। किंतु जन्मांग में सप्तमेश बुध के साथ सप्तम भाव में ही स्थित है।
अतः इसी दशा के शुरुआत से ही पति-पत्नी के मध्य, घृणा कलह और लड़ाई, झगड़े ने गंभीर रूप धारण करना शुरु किया। कुछ समय में ही इनकी नफरत इस हद तक बढ़ गयी कि इनका एक साथ रह पाना मुश्किल हो गया। 1991 से जातिका अपने छोटे बेटे के साथ अपने मायके में आ गयी। दिसंबर 1997 से इसे शुक्र की दशा शुरु हुई और धनु लग्न के लिए शुक्र, अशुभ ग्रह की भूमिका निभाता है। अतः शुक्र ने इनके मध्य सदैव प्रेम की जगह अविश्वास और घृणा को ही बढ़ावा दिया। शुक्र की महादशा में सूर्य की अंतर्दशा लगते ही इनमें तलाक का मुकद्मा शुरु हो गया।
सूर्य जातिका के षष्ठ भाव में स्थित है और महादशा स्वामी शुक्र का भी घोर शत्रु है अतः इनमें तलाक का मुकदमा हुआ और अन्ततः दोनों का तलाक भी हो गया। उदाहरण कुंडली-2 यह जन्मांग एक ऐसी स्त्री का है, जिसका विवाह 27 वर्ष की आयु में एक संपन्न परिवार में हुआ किंतु विवाह के तत्काल बाद ही उसे कई तरह की परेशानियों का सामना करना पड़ा। विवाह के कुछ समय बाद ही पति-पत्नी के बीच अविश्वास घिरने लगा और स्थितियां इस कदर बिगड़ गयीं कि इनका एक साथ रह पाना मुश्किल हो गया, परिणामस्वरूप सात महीने बाद इस जातिका ने अपने पति के घर को त्याग दिया और अपने पिता के घर चली गई और फिर वापिस नहीं लौटी और अंततः इनके मध्य तलाक के बाद ही शांति हो सकी। जातिका के जन्म चक्र में मंगल चतुर्थ भाव में स्थित होकर मंगली दोष उत्पन्न कर रहा है, चतुर्थ भावस्थ मंगल यद्यपि गृह, भूमि, खेत, खलिहान जैसी अचल सम्पतियों के लिए अनुकूल रहा है।
परंतु चतुर्थ मंगल की यह स्थिति गृहस्थ सुख के लिए कदापि अनुकूल नहीं मानी जा सकती। यद्यपि सप्तमेश के रूप में मंगल की सप्तम भाव पर स्वगृही दृष्टि विवाह संपन्न कराने, व्यापार और नौकरी आदि के लिए कुछ हद तक अनुकूल मानी जा रही है, किंतु सप्तमेश के रूप में इस मंगल पर और सप्तम भाव पर पापी शनि की भी क्रूर दृष्टि है, सप्तम भाव पर मंगल शनि के अतिरिक्त अष्टमेश बृहस्पति एवं राहु की भी दृष्टि है, अतः इस जातिका के विवाह में कुछ परेशानियां तो अवश्य आयीं और दो बार सगाई होकर भी टूट गयी, पर बृहस्पति की दृष्टि एवं स्वगृही मंगल के प्रभाव से अनेक बाधाओं को पार करके संपन्न परिवार में जातिका का विवाह संपन्न करा दिया।
विवाह कारक शुक्र इस जन्मांग में अपनी उच्च राशि का होकर एकादश भाव में सूर्य और बुध के साथ स्थित है और उस पर मंगल की अष्टम दृष्टि भी है। सूर्य के साथ शुक्र अस्त है। अतः उच्च का शुक्र होने के बावजूद यह सामान्य ही बना हुआ है। पति कारक बृहस्पति यद्यपि लग्न भाव में स्थित है, लेकिन उस पर राहु के अतिरिक्त शनि का केंद्रीय प्रभाव और सूर्य का राशि प्रभाव पड़ रहा है। यहां राहु,, सूर्य और शनि आदि बृहस्पति पर पृथकता जनक प्रभाव डाल रहे हैं। इतना ही नहीं बृहस्पति वृषभ राशि में शून्य अंश और 42 कला लेकर उदय हो रहा है। इन सबने पति कारक बृहस्पति को इस जन्मांग में लगभग बलहीन ही बना दिया है।
यद्यपि सप्तमेश पर बृहस्पति की शुभ दृष्टि विवाह कराने में सक्षम है। इस जातिका का विवाह चंद्रमा की महादशा लगते ही मंगल की अंतर्दशा के दौरान 27 वर्ष की आयु में संपन्न हुआ। लेकिन चंद्र के मध्य राहु की अंतर्दशा लगते ही इनके मध्य वैमनस्य पनपने लगा। विवाह के केवल सात माह बाद यह जातिका अपने पति को छोड़ मायके चली गई और राहु भुक्ति के लगभग अंत में सितंबर 1994 में इन दोनों का तलाक हो गया। उदाहरण कंुडली-3 इस जन्मांग में भी अष्टम भाव में मंगल, शनि, राहु की स्थिति के कारण प्रबल मांगलिक दोष बना हुआ है।
इसके अतिरिक्त जन्मांग में भाग्येश मंगल लग्न से अष्टम भाव में तथा नवम से द्वादश भाव में स्थित होकर जातक के भाग्य, सुख, गृहस्थ जीवन आदि में अवनति होने का संकेत दे रहा है। षष्ठ भाव में शत्रु क्षेत्री सूर्य और अष्टम भाव में शनि, मंगल, राहु के कारण सप्तम भाव एवं द्वितीयेश (कुटम्ब भाव का स्वामी) बुध पर पापकर्तरी योग बना हुआ है। इनका विपरीत प्रभाव लग्न से द्वितीय और द्वादश भावों पर भी है। अतः सप्तम और लग्न के साथ-साथ द्वादश और द्वितीय भाव पर भी बुरा प्रभाव पड़ रहा है, स्वयं लग्नेश सूर्य भी षष्ठ भाव में स्थित है।
इन सभी पर किसी तरह का कोई शुभ प्रभाव नहीं है। इसलिए इस जातक को शारीरिक स्वास्थ्य के साथ-साथ पत्नी का सुख, गृहस्थ का सुख और परिवार का सुख भी बहुत कम ही नसीब हुआ। यद्यपि सप्तम भाव में बुध की स्थिति, उस पर पंचमेश बृहस्पति की शुभ दृष्टि, विवाह कारक शुक्र की पंचम भाव में स्थिति और उस पर चंद्र के साथ बृहस्पति की पंचम दृष्टि ने तमाम बाधाओं के बावजूद 25 वर्ष की आयु में ही जातक का विवाह संपन्न तो करवा दिया, लेकिन जातक पापी ग्रहों के विपरीत प्रभावों से बचने में सक्षम नहीं हो पाया। अशुभ ग्रहों ने अपना प्रभाव दिया और जातक को वैवाहिक सुख प्राप्त नहीं होने दिया।
इन बुरे ग्रहों के प्रभाव से उसकी अपनी पत्नी से पट नहीं पायी। पत्नी के साथ वैचारिक मतभेद बने रहने से उनमें निरंतर अनबन रहने लगी और अंततः उन दोनों ने 5 वर्ष के वैवाहिक जीवन के बाद एक-दूसरे से अलग होने का निश्यय कर लिया। इस प्रकार तलाक के रूप में उनके गृहस्थ जीवन का अंत हो गया। 1988 में उनका तलाक संपन्न हुआ। उस समय जातक को शनि की महादशा में बुध की अंतर्दशा चल रही थी। शनि जन्मांग में षष्ठ भाव का स्वामी है और बुध कुटुम्ब भाव का स्वामी होकर सप्तम भाव में स्थित है।
बुध की राशि में कलह कारक केतु भी स्थित है। इस जन्मांग में केमदु्रम नामक अशुभ योग भी निर्मित हो रहा है इस योग के कारण भी जातक सदैव पुत्र एवं स्त्री सुख से वंचित, संबंधियों से दुःखी और बेवजह इधर-उधर भ्रमण करता रहा। इस जन्मांग में एक से अधिक विवाह की संभावना भी बनी हुई है। अगर इसके जन्मांगों का मिलान ठीक से किया जाता तो संभवतः इसे भी वैवाहिक सुख मिल सकता था।