शयनी या देवशयनी एकादशी व्रत आषाढ़ शुक्लपक्ष एकादशी को किया जाता है। यह एकादशी महान पुण्यदायी, स्वर्ग और मोक्ष प्रदान करने वाली एवं संपूर्ण पापों का हरण करने वाली है। एक समय नंद नंदन मुरली मनोहर भगवान श्रीकृष्ण से धर्मराज युधिष्ठिर ने सादर पूछा, ‘भगवन ! आषाढ़ मास के शुक्लपक्ष की एकादशी का व्रत करने की विधि क्या है? भगवान यशोदानंदन गोविंद ने कहा, ‘हे युधिष्ठिर, जो कथा ब्रह्माजी ने देवर्षि नारद जी को उनकी जिज्ञासा शांत करने हेतु सुनाई थी, वही कथा मैं तुमसे कहता हूं।’
ब्रह्माजी ने कहा पुत्र नारद ! जो मनुष्य एकादशी व्रत करना चाहे वह दशमी को शुद्ध चित्त हो दिन के आठवें भाग में सूर्य का प्रकाश रहने पर भोजन करे, रात्रि में भोजन न करे। दशमी को मन और इंद्रियों को वश में रखकर भगवान से प्रार्थना करे कि कमल के समान नेत्रों वाले भगवान अच्युत ! मैं एकादशी को निराहार रहकर दूसरे दिन भोजन करूंगा। आपकी पूजा करूंगा, आप ही मेरे रक्षक हैं।’
ऐसी प्रार्थना कर रात्रि में ‘नमो नारायणाय’ मंत्र का जप करें। एकादशी के दिन प्रातःकाल सूर्योदय से पूर्व ही नित्यकर्म आदि से निवृत्त होकर स्नान-पूजन आदि करते हुए भगवान से प्रार्थना करें, ‘हे केशव! आज आपकी प्रसन्नता प्राप्ति के लिए किए गए इस व्रत के नियम-संयम का मेरे द्वारा पालन हो, यही प्रार्थना है। हे पुरुषोत्तम! यदि किसी अज्ञानतावश मुझसे व्रत पालन में कोई बाधा हो जाए तो आप मुझे क्षमा करें, फिर कमल पुष्पों से कमललोचन भगवान विष्णु का विधिवत् संकल्प लेकर षोडशोपचार पूजन करंे।
हरि संकीर्तन एवं हरि कथाओं का आनंद लें। रात्रि में जागरण करें। इस प्रकार निश्चय ही इस व्रत के प्रभाव से समस्त पाप राशि उसी प्रकार भस्म हो जाती है, जैसे एक अग्नि की देवशयनी एकादशी व्रत चिंगारी से रूई का विशालकाय ढेर जलकर राख हो जाता है। यह व्रत करने से भगवान विष्णु प्रसन्न होकर मनवांछित फल देते हैं। इस शयनी एकादशी को पद्मा एकादशी के नाम से भी जाना जाता है।