बहुत पूर्वकाल से इस विद्या की खोज जारी है। महाभारत एवं वेद पुराण और कादंबरी आदि ग्रंथों से यह पता चलता है कि इस विद्या से भारतवासी पुराने समय से परिचित हैं। बाल्मीकि रामायण के युद्धकांड में कथा है कि जब त्रिजटा - राक्षसी ने सीता को राम की मृत्यु हो जाने का झूठा संवाद सुनाया तो सीता ने उत्तर दिया-‘‘ हे त्रिजटा ! मेरे पांवों में पद्मों के चिह्न हैं जिनसे पति के साथ राज्याभिषेक होना प्रकट होता है, मेरे केश पतले, समानाकार तथा काले हैं, भौंहें खुली हुई, जंघायें रोम रहित तथा गोल, दांत जुड़े हुए कुंदकली से, नख गोल चिकने, स्तन मिले हुए मोटे, रोम कोमल, रंग उज्ज्वल हैं इसलिए पंडितों ने मुझे शुभ लक्षण वाली, सौभाग्यशालिनी कहा है, रामजी के न होने से यह सब लक्षण मिथ्या हो जायेंगे?’’ इस कथन से विदित होता है कि त्रेतायुग में आकृति-विज्ञान की जानकारी स्त्रियों को भी थी। आर्यों से यह विद्या चीन, तिब्बत, ईरान, मिस्र, यूनान आदि में फैली, पीछे अन्य देशों में भी इसका प्रचार हुआ।
ईसा के 250 वर्ष पूर्व टाॅलेमी के दरबार में एक ‘मेलाम्पस’ नामक विद्वान रहा करता था, उसने इस विषय पर एक अच्छी पुस्तक लिखी थी। वर्तमान समय में यूरोप अमेरिका के वैज्ञानिक रक्त एवं पसीने की कुछ बूंदों का रासायनिक-विश्लेषण करके मनुष्य के स्वभाव तथा चरित्र के बारे में बहुत कुछ रहस्योद्घाटन करने में सफल हो रहे हैं। ‘कीरो’ आदि विद्वानों ने तो नये सिरे से इस संबंध में गहरा अनुसंधान करके अपने जो अनुभव प्रकाशित किये हैं उनसे एक प्रकार की हलचल मच गई है। प्रकृति ने थोड़ा-बहुत इस विद्या का ज्ञान हर मनुष्य को दिया है। साधारणतया हर मनुष्य किसी दूसरे पर दृष्टि डालकर यह अंदाजा लगाता है कि विश्वास करने योग्य है या इससे बचकर दूर रहना चाहिए। यह दूसरी बात है कि किसी के पास उसकी मात्रा कम हो किसी के पास अधिक। जिस प्रकार व्यायाम से बल, पढ़ने से विद्या और प्रयत्न से बुद्धि बढ़ती है, उसी प्रकार अभ्यास से इस ज्ञान की भी उन्नति हो सकती है।
किस प्रकार आकृति देखकर दूसरों की पहचान की जा सकती है? आप किसी व्यक्ति के चेहरे की बनावट पर, नेत्रों से झलकने वाले भावों पर, पहनावा, तौर-तरीकों पर बहुत गंभीरता से, इस इच्छा के साथ दृष्टि डालिए कि यह व्यक्ति किस स्वभाव का है। यदि मन एकाग्र और स्थिर होगा तो आप देखेंगे कि आपके मन में एक प्रकार की धारणा जमती है। इसी प्रकार दूसरे व्यक्ति के ऊपर दृष्टिपात कीजए और उस चित्र को जमने दीजिए। इन दोनों धारणाओं का मुकाबला कीजिए और देखिए कि किन-किन लक्षणों के कारण कौन-कौन से संस्कार जमे हैं। तुलनात्मक रीति से इसी प्रकार अनेक व्यक्तियों को देखिए, उनके लक्षणों पर विचार कीजिए और मन पर जो छाप पड़ती है, उसका विश्लेषण कीजिए यह अन्वेषण और अभ्यास यदि आप कुछ दिन लगातार जारी रखें तो इस विद्या के संबंध में बहुत कुछ जानकारी अपने आप प्राप्त होती जायेगी और अनुभव बढ़ता जायेगा। कोई दो प्राणी एक-सी आकृति एवं स्वभाव के नहीं होते।
आकृति की बनावट के कारण स्वभाव नहीं बनता वरन् स्वभाव के कारण आकृति का निर्माण होता है। आंतरिक विचार और व्यवहारों की छाया चेहरे पर दिखाई देने लगती है। यही कारण है कि आमतौर पर भले-बुरे की पहचान आसानी से हो सकती है। धोखा खाने या भ्रम में पड़ने के अवसर तो कभी-कभी ही सामने आते हैं। मनुष्य के कार्य आमतौर से उसके विचारों के परिणाम होते हैं। यह विचार आंतरिक विश्वासों का परिणाम होते हैं। दूसरे शब्दों में इसी बात को यूं भी कहा जा सकता है कि आंतरिक भावनाओं की प्रेरणा से ही विचार और कार्यों की उत्पत्ति होती है, जिसका हृदय जैसा होगा, वह वैसे ही विचार व्यक्त करेगा और वैसे ही कार्यों में प्रवृत्त रहेगा। संपूर्ण शरीर और भावनाओं के चित्र से बहुत कुछ झलक आते हैं, अन्य अंगों की अपेक्षा चेहरे का निर्माण अधिक कोमल तत्वों से हुआ है। अन्य अंगों की अपेक्षा चेहरे पर आंतरिक भावनाओं का प्रदर्शन अधिक स्पष्टता के साथ होता है।
यह विचार और विश्वास जब तक निर्बल और डगमग होते हैं तब तक तो बात दूसरी है पर जब मनोगत भावनाएं दृढ़ हो जाती हैं तो उनको प्रकट करने वाले चिह्न चेहरे पर उग (दृढ़) आते हैं। आपने देखा होगा कि यदि कोई आदमी चिंता, शोक, क्लेश या वेदना के विचारों में डूबा हुआ बैठा होता है तो उसके चेहरे की पेशियां दूसरी स्थिति में होती हैं कितु जब वह आनंद से प्रफुल्लित होता है तो होंठ, पलक, गाल, कनपट्टी, मस्तक की चमड़ी में अन्य तरह की सलवटें पड़ जाती हैं। हंसोड़ मनुष्यों की आंखों की बगल में पतली रेखाएं पड़ जाती हैं। इसी प्रकार क्रोधी व्यक्ति की भवों मंे बल पड़ने की, माथे में खिंचाव की लकीरें बन जाती हैं। इसी प्रकार अन्य प्रकार के विचारों के कारण आकृति के ऊपर जो असर पड़ता है उसके कारण कुछ खास तरह से चिह्न, दाग, रेखा आदि बन जाते हैं। जैसे -जैसे वे भले-बुरे विचार मजबूत और पुराने होते जाते हैं वैसे ही वैसे चिह्न भी स्पष्ट और गहरे बन जाते हैं।
दार्शनिक अरस्तु के समय के विद्वानों का मत था कि पशुओं के चेहरे से मनुष्य के चेहरे की तुलना करके उसके स्वभाव का पता लगाया जा सकता है। जिस आदमी की शक्ल-सूरत जिस जानवर से मिलती-जुलती होगी उसका स्वभाव भी उसके ही समान होगा। जैसे भेड़ की सी शक्ल मूर्ख होना प्रकट करती है। इसी प्रकार सियार की चालाकी, शेर की बहादुरी, भेड़िए की क्रूरता, तेंदुए की चपलता, सुअर की मलीनता, कुत्ते की चापलूसी, भैंसे का आलसीपन, गधे की बुद्धिहीनता आदि प्रकट करती है। यह मिलान आज भी ठीक बैठता है, पर अब तो इस विद्या ने बहुत तरक्की कर ली है। निस्संदेह चेहरा मनुष्य की आंतरिक स्थिति को दर्पण के समान दिखा देता है। आवश्यकता इस बात की है कि उसे देखने और समझने योग्य ज्योति आंखों में हो।