संत एवं धार्मिक व्यक्तित्व
संत एवं धार्मिक व्यक्तित्व

संत एवं धार्मिक व्यक्तित्व  

आर. के. शर्मा
व्यूस : 9119 | अकतूबर 2011

यह धर्मशास्त्र सम्मत है कि जब-जब पृथ्वी पर धर्म भक्षक, ढ़ोंगियों एवं असुरों का बोलबाला हो जाता है। तब-तब प्रभु अनेक रूपों में इस पुण्य भूमि पर संत, महात्मा, धर्म प्रवर्तक आदि के रूप में अवतरित होते हैं। धर्म और ईश्वर का प्रचार प्रसार करते हैं। मैं इस लेख में, उन्हीं पुण्यात्माओं का जन्म कुंडली के माध्यम से शोध प्रस्तुत करने का प्रयत्न कर रहा हूं। उनकी जन्म कुंडलियों में ऐसे कौन-कौन से योग उत्पन्न हुए, जिसके कारण वे ऐसे धर्म प्राण व्यक्तित्व को लेकर पुण्य धरा पर प्रकट हुए। जन्मकुंडली में लग्न को केंद्र तथा त्रिकोण, दोनों ही रूपों में जाना जाता है। लग्न का स्वामी कोई भी ग्रह हो, वह सदैव शुभ और सशक्त माना जाता है। लग्न या लग्नेश स्वयं का, स्वयं के तन का एवं आत्मा का द्योतक होता है। इसका कारक सूर्य है और आत्म/आत्मा का रूप होता है। पंचम भाव शुभ और मूल त्रिकोण के रूप में जाना जाता है। इसका स्वामी भी शुभ माना जाता है। इस भाव से इष्टदेव की अराधना, विद्या, बुद्धि, विनय आदि सगुण माने जाते हैं। इसका कारक स्वयं गुरु बृहस्पति है। नवम भाव यह सबसे शुभ भाव है, इसका स्वामी अतीव शुभता धारण किये होता है। इस भाव से धर्म, गुरु, आचार्य, तपस्या, विद्या, सदाचार, देव पूजा, सन्यास, अंतःज्ञान आदि सगुण जाने जाते हैं।

इस नवम भाव के कारक देव गुरु बृहस्पति एवं सूर्य हैं। चंद्र चंचल है, अतः यह मन का प्रतीक है। जब तक कोई गुण या अवगुण, मन में पूरी तरह नहीं समाता तब तक वह गुण ऊपर ही ऊपर तैरता रहता है अतः अंतर में समानता आवश्यक है। बुध बुद्धि एवं विवेक प्रतीक है। बृहस्पति तो स्वयं धर्मावतार देवत्व एवं देव गुरु है ही। कुंडली में सगुणों के लक्षण: जन्म कुंडली में नवमेश स्वगृही हो या लग्न स्थान में स्थित हो या पंचम भाव में स्थित हो या चतुर्थ केंद्र में स्थित हो। लग्नेश (चंद्र के अतिरिक्त) पंचम भाव में, या नवम् भाव में स्थित हो या स्वगृही हो। लग्नेश या पंचमेश- लग्न, पंचम या नवम् भाव में स्थित हो या लग्नेश या नवमेश द्वारा पूर्ण दृष्टि से देखा जाता हो या साथ में स्थित हो। लग्न, पंचम तथा नवम भाव में, कोई भी ग्रह न तो नीच राशि का होकर स्थित हो और न ही राहु या केतु इन तीनों ही स्थानों में स्थित हों। लग्नेश, पंचमेश तथा नवमेश के साथ राहु या केतु स्थित भी न हों।

लग्न से छठे, आठवें तथा बारहवें भावेशों का लग्नेश, पंचमेश तथा नवमेश के साथ स्थित होना अथवा लग्नेश, पंचमेश व नवमेशों का भी इन तीनों दुष्ट स्थानों में स्थित न होना चाहिए तो ऐसे शुभ योगों में जन्म लेने वाला जातक सदैव सतोगुणी कार्य करने वाला तथा ईश्वर भक्त होता है।

1. श्री रामकृष्ण परमहंस (18.2.1836) Û लग्नेश शनि नवम् भाव में उच्च राशि तुला में स्थित है। Û नवमेश शुक्र भी अपनी उच्च राशि मीन में द्वितीय भाव में स्थित है। Û पंचमेश बुध लग्न में सूर्य के साथ स्थित होकर बुधादित्य योग बना रहा है एवं साथ में मन का स्वामी चंद्र भी है। Û बृहस्पति, नवमेश शुक्र एवं लग्नेश शनि (उच्च) का प्रभाव लेकर पंचम भाव में स्थित होकर, लग्न तथा लग्न में स्थित तीनों ग्रहों को, लग्नेश शनि को अपनी नवमी तथा पंचम दृष्टि से देख रहा है। गुरु अपनी राशि धनु को सप्तम दृष्टि से देख रहा है। स्वामी रामकृष्ण परमहंस, कलयुगी योगेश्वर थे। वे मां काली के परमभक्त थे, मां काली स्वयं आकर इनको दुग्धपान कराती थीं। वे योगिराज के साथ परमहंस (विदेह) होने के साथ-साथ महान तपस्वी भी थे। वे परमात्मा के साथ आत्मसात सन्यासी हो गये थे। पत्नी के साथ रहते हुए भी आपने ब्रह्मचर्य व्रत का पालन किया। स्वामी विवेकानंद जैसे महान संत आपके श्रेष्ट शिष्य थे।

2. स्वामी विवेकानंद (12 जनवरी 1863) Û लग्नेश शनि चंद्र का प्रभाव लिए नवम भाव में मित्र राशि कन्या में स्थित है। Û नवमेश बुध लग्न में, सूर्य के साथ बुधादित्य योग बना कर स्थित है। Û लग्न में शुक्र-दशमेश होकर, गुरु का प्रभाव लिए स्थित है, शुक्र पंचमेश भी है। Û शनि द्वितीय वाणी भाव का भी स्वामी है। Û शनि एवं चंद्र की नवम भाव में स्थिति युति वैराग्य कारक है। Û गुरु द्वादशेश यानी विदेश यात्रा का भाव है। इस कुंडली में बुद्धि, धर्म, वाणी व शरीर (लग्न) का शुभ संबंध बना है। स्वामी विवेकानंद ने विदेशों में अपनी धर्मवाक शक्ति द्वारा लोगों को चमत्कृत किया तथा भारतीय संस्कृति तथा हिंदू धर्म की पताका विदेशों में फहरायी और अपने गुरु स्वामी रामकृष्ण परमहंस के उपदेशों का प्रचार प्रसार किया।

3. श्री आदि शंकराचार्य Û धर्मेश गुरु लग्न में उच्च राशि में स्थित होकर पंचम भाव तथा अपने नवम भाव को देख रहा है। Û पंचमेश मंगल जो कि दशमेश भी है, केतु के साथ शतगुणा शक्ति लेकर द्वितीय वाणी भाव में बैठ कर अपने पंचम भाव तथा नवम भाव को देख रहा है। Û पंचमेश मंगल की मेष राशि दशम भाव में वाणीश-आत्मकारक सूर्य, बुध के साथ बुधादित्य योग बन रहा है। साथ में चतुर्थेश एवं एकादशेश शुक्र भी युति कर रहा है। सूर्य आत्मकारक उच्च का भी है। Û लग्नेश चंद्र, अपनी उच्च (वृष) राशि में बैठा है। Û लग्न पर उच्च के शनि की दशम दृष्टि तथा शुक्र-सूर्य एवं बुध का केंद्रीय प्रभाव है, जो गुरु (नवमेश) पर भी है। आदि शंकराचार्य ने धर्म तत्व का विशेष ज्ञान प्राप्त कर संसार में वेदोक्त धर्म, दर्शन शास्त्र का महान उपदेश व प्रचार किया। आप हिंदू धर्म के महान तत्वज्ञ शास्ज्ञ व प्रचारक रहे हैं। आज भी उनके द्वारा स्थापित चार शंकराचार्य पीठ एवं उपपीठ स्थित है। उनका पीठाधिकारी शंकराचार्य की उपाधि प्राप्त करता है। यहां बुध विदेश का भावेश भी है अतः संपूर्ण संसार में अपने भाग-दौड़ करके अपने धर्म उपदेश का प्रचार-प्रसार किया। राहु केतु के कारण लक्ष्य सिद्धि में भारी परेशानी, दौड़ धूप करनी पड़ी। शास्त्रार्थ में विश्व विजयी रहे थे आप, आपको ईश्वर की उपाधि भी प्राप्त हुयी, जनता ने आपको शिव का अवतार माना।

4. पं. श्रीराम शर्मा आचार्य (आश्विन कृष्ण 13, संवत् 1968) Û धर्मेश बुध, कर्मेश एवं मन का स्वामी चंद्र, लग्नेश शुक्र, तीनों ही लाभ स्थान में एक साथ बैठ गये हैं। तीनों की दृष्टि बुद्धि (पंचम) भाव पर पड़ रही है। Û चतुर्थेश (जनता भावेश) तथा पंचमेश शनि की दृष्टि लग्न, नवम एवं स्वराशि चतुर्थ भाव पर पड़ रही है। इसी प्रकार गुरु की भी शनि पर दृष्टि है। Û आत्मकारक सूर्य- चंद्र, बुध, शुक्र का प्रभाव लेकर विदेश भाव द्वादश में बैठा है। पं. श्रीराम शर्मा ने वेदमाता गायत्री का प्रवचन साहित्य हवन आदि द्वारा देश-विदेश में प्रचार-प्रसार किया। सैकड़ों-हजारों पुस्तकें, पत्र, पत्रिकायें लिखी। गायत्री के सहस्र कुंडीय यज्ञों द्वारा जन-जन के मन-मस्तिष्क में गायत्री मंत्र की अमिट छाप एवं प्रभाव छोड़ा, जो अब तथा आगे भी गायत्री मां का यज्ञ सदैव चलता रहेगा। आप इस कलयुग में मां गायत्री के पुर्नसंस्थापक-प्रचारक रहे हैं। आप की पूजा देवता के रूप में होती है और होती रहेगी।

5. भगवान गौतम बुद्ध (बौद्ध धर्म के प्रवर्तक) Û लग्नेश चंद्र जनता- चतुर्थ भाव में स्थित है। जिस पर आत्मकारक सूर्य, धर्मेश नवमेश गुरु, राज्येश (स्वराशिस्थ) तथा पंचमेश मंगल, चतुर्थेश शुक्र एवं केंद्रेश शनि की दृष्टि है। Û लग्नेश चंद्र की भी इन पांचों ग्रहों पर शुभ दृष्टि है। इन पांचों ग्रहों को केंद्रिय प्रभाव लग्न पर भी है। Û बुद्धिकारक बुध जो विदेश भाव का स्वामी भी है, लाभ भाव में बैठकर पंचम भाव को देख रहा है। Û इन्हीं सब योगों के प्रभाव से आप एक महान चमत्कारी व्यक्ति, प्रभु की उपाधि युक्त, महान तपस्वी हुए। आपने अपना स्व. धर्म संपूर्ण संसार में फैलाया जो अनेकों राष्ट्रों का राष्ट्र धर्म बन गया। बौद्ध धर्म के करोड़ों अनुयायी संपूर्ण विश्व के भूभागों में फैले हुए हैं। Û सबसे महत्वपूर्ण योग यह है कि पांच ग्रहों का नवम भाव में युति करना तथा उन पर लग्नेश चंद्र का भी प्रभाव शामिल है। ज्योतिष नियमों के अनुसार तीन-पांच एवं चार ग्रहों का केंद्र तथा त्रिकोण में एक साथ बैठना एक विशिष्ट प्रभावशाली योग होता है। ऐसा जातक विश्व में महान कार्य करता है, देव तुल्य होता है, तपस्वी तथा महान चमत्कारी व्यक्ति बनता है तथा महान ज्ञानी, वैराग्यी और सन्यासी बन कर अमर हो जाता है। Û गौतम बुद्ध को शांति अहिंसा त्याग धर्म मूर्ति सदैव मानते हुए भगवान माना जायेगा।

6. गुरु नानक (18 नवंबर 1470) Û पंचमेश गुरु वाणी स्थान में, स्वस्थान से दशम (द्वितीय) भाव में बैठकर, स्वराशि मीन को देख रहा है। साथ ही अपनी नवम दृष्टि से शनि व चंद्र को भी देख रहा है। Û लग्नेश सूर्य स्वराशिस्थ चतुर्थेश (जनता) मंगल के तथा बुध के साथ बैठकर बली है और वे दोनों उसके मित्र भी है। यहां बुधादित्य योग भी बन रहा है। Û चतुर्थ भाव में सूर्य बुध मंगल तथा दशम कर्म भाव/राज्य भाव में शनि व चंद्र (मन) आपस में एक दूसरे को देख रहे हैं। Û विदेश मन भावेश चंद्र उच्च का होकर, राज्य भाव में स्वराशिस्थ मित्र शनि के साथ शुभ युति कर रहा है। Û लग्नेश (आत्म तन कारक) सूर्य, चतुर्थेश-नवमेश मंगल एवं लाभेश वाणीश बुध के साथ युति करता हुआ बलवान है। Û राज्येश शु़क्र-शनि चंद्र का प्रभाव लेकर स्वराशिस्थ पुरुषार्थ भाव तृतीय में बली है जो नवम भाव को देख रहा है। गुरु नानक ने अपना स्वधर्म चलाया। आप ईश्वर के महान भक्त एवं तपस्वी थे। आपने गृह त्याग किया तथा विवाह नहीं किया। आपने अपने उपदेशों का प्रचार-प्रसार किया। आपको ईश्वरत्व की उपाधि प्राप्त है। आपके खालषा धर्म के मानने वाले सिक्ख करोड़ों की संख्या में संपूर्ण विश्व में उपस्थित है। आप सदैव अमर रहेंगे।

7. संत ज्ञानेश्वर Û पौरुष भावेश चंद्र, बुध तथा शुक्र का प्रभाव लेकर लग्न में उच्च राशिस्थ होकर बैठा है। Û बुध पंचमेश तथा वाणीश है, शुक्र लग्नेश है। ये दोनों पौरुष भाव में युति कर रहे हैं। यहां लग्नेश शुक्र तथा तृतीयेश चंद्र का भाव परिवर्तन योग है। Û पंचम भाव में राज्येश तथा नवमेश शनि बैठा है, शनि लाभेश स्वराशिस्थ गुरु को देख रहा है। ऐसा ही लाभेश गुरु भी शनि को देख रहा है। Û स्वराशि गुरु पंचम दृष्टि से बुध तथा शुक्र को देख रहा है। Û चतुर्थेश सूर्य चतुर्थ भाव में ही स्वराशिस्थ बैठा है। आपने भारत के महाराष्ट्र प्रांत में ही नहीं संपूर्ण भारत में एक भक्ति आंदोलन किया था। आपको ईश्वर तुल्य उपाधि प्राप्त हुयी, आप एक महान भक्त के रूप में सदैव अमर रहेंगे।

8. गोस्वामी तुलसी दास (सं. 1600 श्रावण शुक्ल सप्तमी - शुक्रवार) Û नवमेश एवं द्वादशेश बुध लाभ भाव में लाभेश स्वराशिस्थ सूर्य तथा लगनेश शुक्र के साथ बैठा है। Û लग्नेश शुक्र लाभेश सूर्य और नवमेश बुध के साथ लाभ भाव में स्थित है। इन पर गुरु की दृष्टि है। गुरु पंचम भाव में सिथत होकर नवम-पंचम तथा लग्न भाव को देख रहा है। Û राज्येश चंद्र, वाणीश मंगल का प्रभाव लेकर लग्न में स्थित है। मंगल की चतुर्थ लग्न एवं चंद्र पर, उच्चाभिलाषी होकर चतुर्थ भाव पर तथा पंचम भाव और गुरु पर दृष्टि है। Û चतुर्थेश व पंचमेश शनि मित्र भाव विदेश भाव में बैठकर, वाणीश भाव, मीन राशि (षष्ठ) तथा नवम (मिथुन) भाव को देख रहा है। Û नीच मंगल, राहु-केतु आदि के कारण इन्हें माता, पिता, पत्नी व संतान सुख प्राप्त नहीं हुआ। आपने जिस समय हिंदू धर्म तथा सनातन धर्म लोप हो रहा था जन्म लिया। राम नाम की सनातन हिंदू धर्म की तथा राम भक्ति की विश्व विजयी पताका फहराई। आपने रामचरित मानस जैसा महान ग्रंथ लिखा साथ में राम भक्ति पर अनेकों पुस्तकें भी लिखीं। आपको रामायण ग्रंथ के महान रचयिता महर्षि बाल्मिकी का कलयुगी अवतार माना जाता है।

राम कथा के अमर कथाकार के रूप में, ईश्वर तुल्य उपाधि प्राप्त है। आप सदैव अमर रहेंगे। आपने राम, सीता सहित सभी भाईयों एवं श्री हनुमान जी के दर्शन एवं कृपा पायी। महान संत तुलसी के समय सम्राट अकबर का राज्य था। संत तुलसीदास के समय ही अनेकों संतों का पृथ्वी पर अवतरण हुआ था। जिनमें मीराबाई, सूरदास, संत ज्ञानेश्वर, कबीर दास आदि जैसे महान भक्त एवं संत थे। जब मीराबाई अपने श्रेष्ठ राणा द्वारा प्रताड़ित परेशान की जा रही थी। उस समय मीराबाई ने अपना दुःख लिख कर संत तुलसी दास को भेजा तो संत तुलसी दास ने उत्तर में लिखा था - जाके प्रिय न राम वैदेही, तजिये ताहि कोटि बैरी सम, जद्यपि परम सनेही। इस उत्तर को पाकर कृष्ण दीवानी मीरा ने घर त्याग दिया।



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