आज ही नहीं वर्षों-वर्षों से लोगों के दिलों में - ‘मंगली या मांगलिक दोष के भय का भूत - घर कर गया है। वे किसी भी ज्योतिषी से या मंदिर के किसी पुजारी से, कन्या की कुंडली में मंगली दोष’ सुनकर घबरा जाते हैं। विवाह तो करना ही है, कब तक बेटी को घर में बिठा कर ‘ओवर एज’ करते रहेंगे? सोचकर उसकी ‘कुंडली को छिपाकर - ‘नाॅन-मांगलिक कुंडली, बनवाकर बेटे वालों को सौंप देते हैं।
शुभ विवाह सादर संपन्न करा दिया जाता है। इससे तो लड़की को बेगार या कबाड़ की तरह त्याग दिया। क्या इस कर्तव्य से लड़की की कुंडली के ग्रह दोष समाप्त हो गये? विवाह के कुछ समय पश्चात् मानसिक तनाव, तलाक, गृह-कलह, आत्म हत्या, संतान का न होना और भी कई तरह से ‘दांपत्य-जीवन’ में बाधक घटनाएं बढ़ती हैं तब पछतावा होता है।
फिर क्या हो सकता है सिवाय रोने के। मंगलीक कुंडली की पूर्ववर्ती कारिकायें सर्वार्थ चिंतामणि, चमत्कार चिंतामणि, देव केरलम, अगस्त्य संहिता-भाव दीपिका आदि अनेक ज्योतिष ग्रंथों में मंगल के बारे में मुख्य रूप से एक प्रशस्त श्लोक मिलता है- ‘लग्ने व्यये च पाताले, जामित्रे चाष्ट मे कुजे। कन्या भर्तु विनाशाय भर्तुः कन्या विनाशकृत।। अर्थात् जन्म-कुंडली के लग्न स्थान से 1-4-7-8-12 वें स्थान पर मंगल हो तो ऐसी कुंडली ‘मंगलीक’ कहलाती है। यह बात सभी जानते हैं कि ‘वर-वधू’ दोनों ही ‘मंगली’ होने अति आवश्यक है। ज्योतिष सूचनाओं व संभावनाओं का शास्त्र है।
इसका सही समय पर जो उपयोग कर लेता है, वह धन्य हो जाता है और जो सोचता है वह सोचता ही रह जाता है, उसके पास सिवाय पछतावे के कुछ शेष नहीं रहता। चंद्र से मंगल श्लोक में लग्न से लिखा है तो क्या चंद्रमा से भी पांचों भावों में स्थित मंगल को देखना चाहिये। जी हां, लग्न एवं चंद्र दोनों से ही विचार करना चाहिये क्योंकि चंद्र भी लग्न है, यह हमें जातक की राशि का ज्ञान कराती है।
इसका मुख्य कारण यह भी है कि किसी की कुंडली बनी ही न हो, किसी को अपनी जन्मतिथि ही पता न हो वहां बोलता नाम ही मुख्य होता है। वह जन्म-राशि मानी जाती है। यह राशि चंद्र से ही तो प्राप्त होती है। वर या वधू की कुंडलियां हों तो दोनों की कुंडलियों से अथवा किसी एक की कुंडली न हो, तो उस स्थिति में दोनों केवल नाम से ‘मिलान’ किया जाएगा।