प्रश्न: रत्न की परिभाषा क्या है अथवा रत्न किसे कहते हैं?
उत्तर: सामान्यतः रत्न प्राकृतिक रूप में पाए जाने वाले पाषाण खंडों के उन छोटे-छोटे अंशों को कहते हैं, जो अपनी दुर्लभता, चमक, बनावट आदि के कारण बहुमूल्य समझे जाते हैं। संस्कृत साहित्य में ‘रत्न’ शब्द का प्रयोग मूल्यवान वस्तुओं एवं बहुमूल्य जवाहरात के लिए हुआ है।
प्रश्न: रत्न और मणि एक दूसरे के पर्याय हैं या उनमें कुछ भेद है?
उत्तर: लोक व्यवहार में प्रायः रत्न और मणियों को एक दूसरे का पर्याय ही मान लिया गया है, तथापि ऋग्वेद में मणि से तात्पर्य ताबीज की भांति पहने जाने वाले रत्न से है। वाजसनेयी संहिता के अनुसार मणि धागे में पिरोकर पहनी जाती थी। सामान्यतः मणियां गोलाकार होती हैं। इसलिए गोलाकृति वाली अनेक वस्तुओं के नामों के साथ ‘मणि’ शब्द भी जोड़ा जाने लगा यथा ‘दिनमणि’, प्रकाशमणि। ‘मणि’ का अन्य प्रयोग भी मिलता है। जैसे तमिलनाडु की एक नदी का नाम ‘मणिमुतारू’ अर्थात् मणि-मोती नदी है। श्रीलंका में भी एक नदी का नाम है- मणिगंगा। इन नदियों में अवश्य ही कभी मणियां अर्थात् रत्न प्राप्त होते होंगे। चूंकि रत्नादि धरती से मिलते हैं, धरती को भी ‘रत्नगर्भा’ या ‘मणिगर्भा’ कहा गया है। अमरकोश में धरती के लिए ‘रत्नगर्भा’ शब्द का भी इस्तेमाल हुआ है।
प्रश्न: रत्नों की उत्पत्ति कैसे होती है?
उत्तर: यदि हम चट्टानों की रचना के विषय में जान लें तो रत्नों की उत्पत्ति की पेचीदगी भी आसानी में समझ आ जाएगी क्योंकि चट्टानों की रचना से खनिजों की निर्मिति का गहरा संबंध है और रत्न, कुछ को छोड़कर, खनिज ही हैं। वस्तुतः चट्टानों को खनिजों का घनीभूत समूह या ठोस रूप ही कहा जा सकता है। सुविधा के लिए चट्टानों को तीन मुख्य श्रेणियों में विभाजित किया गया है। विभाजन का आधार उनकी रचना-प्रक्रिया ही है। ये श्रेणियां हैं, इग्नियस, मेटामाॅरफिक और सेडीमेंटरी। इग्नियस का पर्यायवाची शब्द मैग्मा है। मैग्मा एक पिघला हुआ सिलीकेट पदार्थ है, जो तरल रूप में होता है और जिसमें पानी के साथ-साथ हाडड्रोफ्लोरिक एसिड, कार्बन डाई आॅक्साइड आदि रहते हैं।
यह पिघला हुआ पदार्थ पृथ्वी की ‘क्रस्ट’ अर्थात् परत में होता है। यह माना जाता है कि धरती के कुछ स्थानों पर यह पिघला हुआ पदार्थ मौजूद है। यह ज्वालामुखियों से लावा के रूप में बाहर आता है। लेकिन आगे निकलने की राह न होने पर यह मणिभ या क्रिस्टीलिन चट्टानों का रूप धरने लगता है। मणिभीकरण अर्थात् ‘क्रिस्टलाइजेशन’ की प्रक्रिया के कारण यह तरल पदार्थ एकत्र होता रहता है। निरंतर वृद्धि एक दबाव को जन्म देती है और उससे विशिष्ट विशेषताओं वाला तरल बन जाता है, जो गैस की तरह सचल लेकिन जल की तरह घना होता है।
यह तरल पदार्थ आसपास की चट्टानों में प्रवेश करने लगता है और उनके संपर्क से उसमें कुछ रासायनिक परिवर्तन होते हैं, अर्थात वह कुछ तत्त्व चट्टानों को सौंपता है, और कुछ तत्त्व उनसे ग्रहण करता है। ठंडा होने की इस प्रक्रिया में वह गर्म जल से गुजरता है, उसके रासायनिक तत्त्वों का उसमें समावेश हो जाता है। इसके फलस्वरूप कभी अत्यंत सुंदर मणिभों की रचना हो जाती है।
प्रश्न: रत्न-रंग-बिरंगे क्यों होते हैं?
किसी भी रत्न के भीतर मौजूद आॅक्साइड ही उसे विशिष्ट रंग प्रदान करता है जैसे क्रोमियम आॅक्साइड से लाल रंग, अल्युमीनियम आॅक्साइड से हरा रंग। टाइटेनियम आॅक्साइड से नीला रंग एवं लौह-आॅक्साइड से पीला रंग झलकता है, क्योंकि ये आॅक्साइड इन्हीं रंगों के होते हैं। बाहर का प्रकाश रत्न में प्रविष्ट हो बिखरकर, रंग-विशेष को चमका देता है।
प्रथम: मणिभ अर्थात् क्रिस्टल का क्या अर्थ है?
उत्तर: वे रत्नीय पत्थर जो चट्टान की दरारों या छिद्रों में चिपके रहते हैं, मणिभ या क्रिस्टल कहे जाते हैं। रत्नों और मणिभों में एक मुख्य अंतर यह है कि रत्न जहां अनगढ़ होते हैं, वहीं मणिभ या क्रिस्टल एक निश्चित आकार, चिकनी सतह के साथ-साथ एक निश्चित आंतरिक बनावट वाले पत्थर होते हैं, जिनका बाह्य रूप उनके आंतरिक रूप की ही अनुकृति होता है अर्थात् एक बड़े मणिभ में लाखों छोटे-छोटे मणिभ एक निश्चित आकार के मिलेंगे या यों कहें कि एक जैसे लाखों छोटे-छोटे मणिभ एक बड़े मणिभ की रचना करते हैं।
मणिभों में एक सीमा तक समरूपता होती है, जो इनमें निहित अणुओं की व्यवस्था पर निर्भर करती है। उनकी यह समरूपता बत्तीस वर्गों में विभाजित की गयी लेकिन बाद में इन्हें समानता के आधार पर सात मणिभ पद्धतियों में बांटा गया है। आकार के आधार पर विभाजित मणिभों की सात पद्धतियां हैं- घन-क्यूबिक सिस्टम, चतुष्फलक पद्धति-ट्रेटागोनल सिस्टम, षट्भुजीय पद्धति-हेक्सागोनल सिस्टम, सम चतुर्भुज पद्धति -रोम्बिक सिस्टम, एक पदी पद्धति-मोनोक्लीनिक सिस्टम तथा त्रिपदा पद्धति -ट्राइक्लीनिक सिस्टम।
प्रश्न: क्या कृत्रिम रत्न प्राकृतिक रत्नों की भांति ही मूल्यवान, उपयोगी और सुंदर होते हैं?
उत्तर: कृत्रिम रत्न मूल्यवान तो नहीं होते, हां, वे सुंदर और उपयोगी अवश्य होते हैं।
प्रश्न: रत्नों के प्रकाशीय गुण से क्या तात्पर्य है? उनका क्या उपयोग होता है?
उत्तर: रत्नों के प्रकाशीय गुण को ‘आॅप्टिकल प्रोपर्टीज’ के नाम से भी जाना जाता है। कुछ रत्न पारदर्शी होते हैं, कुछ अपारदर्शी और कुछ में इन दोनों गुणों का सम्मिश्रण होता है। कुछ रत्न प्रकाश परावर्तित करते हैं। यह परावर्तन अनेक धाराओं या रश्मियों में हो सकता है। कुछ रत्न प्रकाश पड़ते ही दैदीप्यमान हो उठते हैं और कुछ यथावत् रहते हैं। उनके दैदीप्यमान होने की क्षमता या उसके अभाव को ही रत्नों का प्रकाशीय गुण समझा जा सकता है। एक प्रकार से रत्न मणिभ ही हैं अतः उनकी संरचना भी मणिभीय होती है। इसे ‘क्रिस्टल फाॅर्मेशन’ भी कहा जाता है।
मणिभीय संरचना होने के कारण रत्नों पर प्रकाश का सहज ही ज्यादा असर पड़ता है। हम जानते हैं कि सूर्य प्रकाश में अर्थात् किरणों में सात रंग होते हैं- लाल, नारंगी, पीला, हरा, नीला, आसमानी और बैंगनी। वर्षा ऋतु में इंद्रधनुष इन्हीं सातों रंगों को दर्शाता है। एक ‘प्रिज्म’ पर प्रकाश डालने से भी ये सातों रंग पृथक-पृथक नजर आने लगते हैं। रत्नों की पहचान में इसका अर्थात् प्रकाशीय गुण का बेहद महत्त्व है। इस गुण की परख के लिए रिफ्रैक्टोमीटर नामक एक उपकरण की सहायता ली जाती है।
प्रश्न: रत्न की कटाई का अर्थ क्या है?
उत्तर: जैसा कि हम जानते हैं कि मूल रूप में कीमती पत्थर अनगढ़ रूप में मिलते हैं। इन पत्थरों की कटाई उन्हें एक विशिष्ट आकार देने तथा उनकी चमक और उनके रंग को और निखारने के लिए की जाती है। वस्तुतः इसके बाद ही उन्हें ‘रत्न’ नाम भी मिलता है और वे आभूषणों में जड़ने योग्य बन जाते हैं। रत्नों का रूप लेने वाले अनगढ़ कीमती पत्थरों की कटाई में बेहद सावधानी बरती जाती है। उनकी कठोरता, उनके क्लीवेज अर्थात् चिराव या दरार भी विशेष ध्यान दिया जाता है।
प्रश्न: चिराव या दरार से क्या तात्पर्य है?
उत्तर: चिराव या दरार का अर्थ अपने आप में स्पष्ट है तथापि सुविधा के लिए यह बताना प्रासंगिक होगा कि रत्नों के काटे जाने के बाद उनकी सतहें चिकनी रहें, इसलिए यह देखा जाता है कि रत्न-विशेष में कहां से उसे तोड़ा या काटा जा सकता है ताकि उसकी सतहें समरूप अर्थात चिकनी रहें। मणिभों की चर्चा करते हुए हमने पहले बताया है कि मणिभों के अणुओं की संरचना के कारण उनमें एक समरूपता (सिमेट्री) होती है। ऐसी बत्तीस समरूपताओं का अनुमान किया गया है तथापि सुविधा के लिए उन्हें सात वर्गों में बांटा गया है।
प्रश्न: कटाई का महत्त्व क्या है?
उत्तर: पुराने जमाने में अधिकांश रत्नीय पत्थरों का उनके प्राकृतिक पहलुओं वाले मणिभ रूप में इस्तेमाल किया जाता था। ज्यादा से ज्यादा उन्हें गोलाकार देकर चमका लिया जाता था। फ्रेंच भाषा का एक शब्द है- केबोके, जिसका अर्थ सिर होता है। चूंकि रत्न के ऊपरी भाग को सिर जैसा ही गोल रखने के लिए कटाई की जाती थी, अतः इस कटाई या काट का नाम ‘केबोकोन’ कटाई रख दिया गया। आजकल केबोकोन कटाई सीमित पारदर्शिता वाले पत्थरों में ही इस्तेमाल की जाती है। मूल्यवान पत्थरों की वक्राकार या गोल सतह उनकी कुछ खास विशिष्टताओं को उजागर कर देती है अतः पत्थर की ऐसी सतह बनाने के लिए भी यह कटाई की जाती है।
गत तीन सौ वर्षों से बहुमूल्य पत्थरों में कई पहलू बनाने वाली कटाई का प्रचलन बढ़ा है। यह कटाई पारदर्शी पत्थरों की खूबसूरती को बेहतर दर्शाती है। इसका कारण यह है कि प्रकाश रत्न के ऊपरी पहलुओं के साथ-साथ उसमें अर्थात् रत्न में प्रवेश कर उसके निचले पहलुओं में भी परिलक्षित होता है। इस तरह की काट हीरे की विशेषताओं को उनकी समग्रता से प्रस्तुत करती है। हीरे में न केवल प्रकाश-परावर्तन वरन उस प्रकाश को इंद्रधनुषी धाराओं में भी प्रतिबिंबित करने की क्षमता होती है। यह कटाई हीरे के इसी गुण को सामने लाती है।