गुरु का माहात्म्य
गुरु का माहात्म्य

गुरु का माहात्म्य  

मनोज कुमार
व्यूस : 12947 | जुलाई 2013

गुरुब्र्रह्मा, गुरुर्विष्णु, गुरुर्देवो महेश्वरः। गुरु साक्षात परंब्रह्म, तस्मै श्री गुरवे नमः।। गुरु ही ब्रह्मा हैं, गुरु ही विष्णु हंै, गुरुदेव ही महेश भी हैं अर्थात् गुरु साक्षात् परम बह्म हैं। अतः हे गुरुदेव ! आपको शत्-शत् नमन। गुरु का माहात्म्य आदिकाल से ही स्ािापित है। गुरु के माहात्म्य का बखान करना सूर्य को दीया दिखाने के समान है। गुरु के प्रति ही सम्मान अथवा श्रद्धा सुमन अर्पित करने के उद्देश्य से गुरु पर्व अथवा गुरु पूर्णिमा का त्यौहार मनाया जाता है। गुरु पर्व हर वर्ष आषाढ़ मास की पूर्णिमा को होता है। इस वर्ष गुरु पर्व 22 जुलाई, 2013 को है। गुरु शब्द दो अलग-अलग शब्दों- ‘गु’ तथा ‘रू’ का मेल है। ‘गु’ का शाब्दिक अर्थ होता है- अन्धकार तथा ‘रू’ का शाब्दिक अर्थ होता है अन्धकार को मिटाने वाला। अतः गुरु का अर्थ हुआ वह महान व्यक्ति जो अज्ञानता एवं मूढ़ता रूपी अंधकार को मिटाकर ज्ञान एवं बुद्धि रूपी प्रकाश प्रदान करे।

गुरु हमारे जीवन के अभिन्न अंग हैं। गुरु की महिमा एवं कृपा के बिना हमारा उद्धार नहीं हो सकता। यदि हम ‘गुरु-पर्व’ की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि की ओर दृष्टिपात करें तो पाते हैं कि विभिन्न धर्मावलम्बियों ने अपने-अपने धर्म के महान गुरुओं को सम्मान प्रदान करने के लिए इस पर्व की परिपाटी बनायी। हिन्दू धर्म में यह पर्व महर्षि वेद व्यास जो हिन्दू महाकाव्य ‘महाभारत’? के रचयिता व प्राचीन भारतवर्ष के सबसे सम्मानित गुरु हैं तथा जिन्हें गुरु-शिष्य परंपरा का आदर्श माना गया है, उन्हीं के सम्मान में हिन्दू धर्म के अनुयायी गुरु-पर्व मनाते हैं। बौद्ध धर्म के अनुयायियों के लिए यह दिवस अत्यन्त महत्वपूर्ण इसलिए है क्योंकि भगवान बुद्ध ने बोधगया में ज्ञान की प्राप्ति के उपरान्त अपना प्रथम उपदेश सारनाथ में इसी दिन दिया था। जैन धर्म के अनुसार यह मान्यता है कि 24 वें तीर्थकर वर्धमान महावीर ने ‘कैवल्य’ की प्राप्ति के उपरान्त इसी दिन इन्द्रभूति गौतम को अपना प्रथम शिष्य बनाया तथा स्वयं गुरु कहलाए। भारत वर्ष की तो हमेशा ही अपने गुरुजनों को सम्मान प्रदान करने की परंपरा रही है।

चाहे धर्म, जाति, समुदाय जो भी हो किन्तु गुरु तो हमेशा पूजनीय ही होता है। शास्त्रों में ठीक ही कहा गया है- यस्मान्महेश्वरः साक्षात् कृत्वा मानुवविग्रहम। कृपया गुरुरूपेण मग्नाप्रोद्धरति प्रजाः।। स्वयं महेश्वर ही मनुष्य रूप धारण करके, कृपापूर्वक, गुरु रूप में, माया से बँधे जीवों का उद्धार करते हैं। गुरु दूर से देखने पर बिल्कुल आम मनुष्य से दिखते हैं। पर जैसे-जैसे हम उनके समीप जाते हैं, उनकी महानता एवं विशालता के दर्शन पाते हैं तथा हमें अहसास होता है कि जो हम जैसा दिखता है, वह बिल्कुल हम जैसा नहीं है। इसीलिए जो भी सच्चे गुरु के पास गया, उसने गुरु को भगवान कहा है। गुरु अपना सारा समय और सामथ्र्य शिष्यों के उत्थान एवं उद्धार में लगा देते हैं। सम्पूर्ण धरा के कल्याण हेतु लोक हितकारी कार्य ही गुरु का उद्देश्य होता है।

जिस समय सच्चे गुरु मिल जाएं, उस समय अहं को मिटाकर उनकी शरण में चले जाना चाहिए और वे हमें जिस प्रकार उपदेश दें या शिक्षा दें, चाहे हमें वह गलत ही मालूम पड़े, दूसरे लोगों या पुस्तकों से उसकी पुष्टि न होती हो, फिर भी बिना सोचे-विचारे अंधविश्वासी बनकर उस पर चल पड़ना चाहिए। जब तक शिष्य में गुरु के प्रति पूर्ण श्रद्धा, संकल्प, विश्वास एवं समर्पण की भावना नहीं होगी, गुरु प्रसाद दुर्लभ है। जो शिष्य आज्ञा पालन करने में लापरवाही करते हैं, समय-समय पर शिकायतें करते हैं, अपनी चिंता आप करते हैं और जो उनकी बात पर विश्वास न करके दिल में कुतर्क करते हैं, मन में कपट भाव रखते हैं, ऐसे लोग बीच भंवर में ही रह जाते हैं। उत्तर कांड में गुरु का वर्णन काग भुशंुडी एवं गरूड़ संवाद में इस प्रकार आया है: गुरु की अवहेलना को शिव जी भी सहन नहीं कर सके, यद्यपि गुरु को कोई हर्ष या विषाद नहीं हुआ।

फिर भी शिष्य शिव जी द्वारा अभिशापित हुआ और गुरु कृपा से वंचित रहा। अतः यह निर्विवाद स्थापित सत्य है कि ज्ञानार्जन की दोनों विधाओं- अपरा अर्थात् सांसारिक ज्ञान तथा परा अर्थात आध्यात्मिक ज्ञान की पूर्ण प्राप्ति बिना गुरु के सान्निध्य एवं आशीर्वाद के संभव नहीं है। खासकर आध्यात्मिक उद्देश्य में लगे लोगों के लिए गुरु की सहायता अनिवार्य एवं अपरिहार्य है। आध्यात्मिक कल्याण के लिए भगवान शिव को सबसे बड़ा गुरु माना गया है। ये समय-समय पर किसी न किसी रूप में, शिष्यों को साधना का गुप्त मार्ग प्रदर्शित कर गुप्त रहस्यों को समझाकर तिरोहित हो जाते हैं। किंतु उनके भी इंगित मार्ग का अनुसरण करने के लिए इहलौकिक गुरु का सान्निध्य एवं मार्गदर्शन आवश्यक है।

अध्यात्म वह रहस्य है जिसको जान लेने पर मनुष्य जीवन-मरण के रहस्यों से परिचित हो जाता है। आध्यात्मिक उत्थान के लिए कुछ शक्तियों को जागृत करना आवश्यक है। सत्संग, मनन, श्रद्धा, प्रेम, विश्वास और अभ्यास जैसी शक्तियों के द्वारा इस मार्ग परआसानी से पांव रखा जा सकता है। जो ज्ञान इंद्रियों, मन एवं बुद्धि से परे है, यानि जिस ज्ञान द्वारा आदि, अनादि, अविनाशी परम ब्रह्म को जाना जाता है, उनका अनुभव किया जाता है, उनका साक्षात दर्शन किया जाता है, इन अन्तरंग रहस्यों एवं गुप्त ज्ञान को सद्गुरु के सान्निध्य एवं मार्गदर्शन में ही आत्मसात किया जा सकता है। इस विद्या का ज्ञान न तो वाणी द्वारा और न ही लेखनी द्वारा दिया जा सकता है। इसे तो गुरु-शिष्य परंपरा के अंतर्गत, गुरु अपनी आत्मा से शिष्य की आत्मा में ‘पश्यंति वाणी’ द्वारा पहुंचाते हैं। इस लेन-देन में ज्ञान की उष्णता एवं तीव्रता मधुर हो जाती है।

यही यथार्थ ज्ञान है। इसी ज्ञान को आध्यात्मिक ज्ञान कहते हैं। महर्षि वेदव्यास, बुद्ध, महावीर, रामकृष्ण परमहंस आदि ऐसे महान गुरु हुए जिन्होंने अपने शिष्यों को ज्ञानवाणी तथा मार्गदर्शन से आध्यात्मिक वैतरणी पार करवाई तथा गुरु के माहात्म्य को संस्थापित किया।



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