वेद, उपनिषद, रामायण और महाभारत जैसे प्राचीन ग्रंथों में राशि, नक्षत्र और ग्रहों का अनेक स्थानों पर वर्णन ज्योतिर्विद्या के प्राचीनतम् होने का संकेत है। उस काल में इस विद्या का प्रादुर्भाव सूर्य, ब्रह्मा, व्यास, वशिष्ठ, अत्रि, पराशर, कश्यप, नारद, गर्ग, मरीचि, मनु, अंगिरा, लोमश, पौलिश, भृगु, च्यवन, यवन, शौनक और पुलस्तय नामक 19 ऋषियों की दूरदृष्टि से हुआ था। लगभग 600 वर्ष ईसा पूर्व सूर्य सिद्धांत नामक ग्रंथ की रचना हुई, जिसमें आकाशीय पिंडों की गति का गणितीय ज्ञान है। ईसा पश्चात वराहमिहिर, कालिदास, आर्यभट्ट, गणेश, ढूंढीराज, मंत्रेश्वर, वेंकटेश और भास्कर जैसे विद्वानों ने इस विद्या का पालन-पोषण करके ज्योतिष फलित के अनेक नियमों का प्रतिपादन किया। लालकिताब में इसी विद्या का वर्णन एक अनूठे और निराले रुप में किया गया है।
लाल किताब का इतिहास
लाल किताब को अरुण संहिता भी कहते हैं। इस संदर्भ में यह किंवदन्ति है कि प्रचीनकाल में सूर्य ऋषि के सारथी अरुण ने इस विद्या के सिद्धांतों को प्रतिपादित किया, जिनका ज्ञान लंकेश रावण को हुआ। रावण से यह ज्ञान जब अरब वासियों को हुआ, तो उन्होंने इसे अरबी और फारसी भाषा में लिपीबद्ध कर दिया। समय के चक्र में यह ज्ञान लुप्त प्रायः हो गया या कुछ ही गिने-चुने लोगों तक सिमित होकर रह गया। भारत में यह ज्ञान पंजाब में फरवाला गांव के निवासी पंडित रुपचंद जोशी, जो ब्रिटिश सेना के लेखा विभाग में कार्यरत् थे, को हुआ। यद्यपि जोशी जी के परिवार में ज्योतिष का कार्य करने की परंपरा नहीं थी और शायद इसीलिए उन्हें भी इस विद्या में कोई रुचि नहीं थी। किंतु विघाता ने जोशी जी के माध्यम से इस विद्या का पुनः प्रादुर्भाव किया, कैसे?
रुपचंद जोशी की हिमाचल प्रदेश में नियुक्ति होने पर उनकी मुलाकात सेना के एक ऐसे जवान से हुई, जो अंग्रेज अफसरों को ज्योतिष के कुछ विशिष्ट सिद्धांतों के आधार पर कुछ बातें बताया करता था। एक अंग्रेज अफसर ने उस जवान से प्रभावित होकर उसके निराले ज्योतिषीय ज्ञान के स्रोत के बारे में जब जानना चाहा, तो उस जवान ने बताया कि वह हिमाचल का रहने वाला है और उसके खानदान में यह ज्ञान पीढ़ी दर पीढ़ी चलता आ रहा है। जिज्ञासु अंग्रेज अफसर ने उस जवान से उस ज्ञान को लिखवा लिया, किंतु वह क्रमबद्ध नहीं था। उस जवान को जैसे जैसे बातें याद आती गई, वह उन्हें लिखता गया। अपना लेखन कार्य समाप्त करने के बाद उस जवान ने लिखी गई सामग्री उस अंग्रेज अफसर को सौंप दी, किंतु वह उसे समझ नहीं सका और वह सामग्री रुपचंद जोशी को पढ़ने और समझने के लिए दे दी। काफी मशक्कत के बाद रुपचंद जी को जो कुछ समझ में आया, उसे सन् 1939 में 383 पृष्ठों की एक पुस्तक के रुप में अमृतसर के कलकत्ता फोटो हाउस के माध्यम से प्रकाशित करा दिया। इसके बाद सन् 1940, 1941 और 1942 में शेष सामग्री को प्रकाशित कराया। तत्पश्चात इन सभी पुस्तिकाओं का संकलन उर्दू भाषा में 1171 पृष्ठों के एक ग्रंथ के रुप में हुआ, जो दिल्ली में स्थित नरेंद्रा प्रेस में छपी थी। इन प्रकाशित किसी भी पुस्तक में लेखक का नाम नहीं है, बल्कि एक चित्र है, जिसके नीचे मुद्रक और प्रकाशक का नाम गिरधारी लाल शर्मा लिखा हुआ है।
लाल किताब की विशेषता
यह किताब जो प्रमुख रुप से हस्त रेखा पर आधारित है, अपने ही विशेष सिद्धांतों से अनुभूत हैं, जिनके आधार पर जातक की कुंडली विश्लेषण का ढंग भी विशेष है। इसके अनुसार इस संसार में इंसान अपने ही लेख से बंधा हुआ है जिसे विधाता ने लिखा है। उसकी लिखी हुई बातों को अपने वक्त से पहले ही जाहिर करना कोढ़ की बिमारी की तरह बुरा है। ज्योतिष विद्या को कोई जादू न समझे, बल्कि यह शैतानी शक्तियों से अपनी रक्षा और अपनी आत्मा की शांति के लिए समय पर किए जाने वाले उपायों के ज्ञान का एक माध्यम है, न कि दूसरों पर हमला करने का। विधाता ने इंसान के भाग्य में जो कुछ लिख दिया है, उसे हम घटा या बढ़ा नहीं सकते, बल्कि उसके भाग्य के मार्ग (उन्नति) में यदि कोई रुकावट आती है तो उसे कुछ उपायों के द्वारा दूर कर सकते है।
इंसान बंधा खुद लेख से अपने, लेख विधाता कलम से हो।
कलम चले खुद कर्म पे अपने, झगडा अक्ल ना किस्मत हो।
यद्यपि भारतीय ज्योतिष फल प्रतिपादन में पूर्ण सक्षम है, किंतु सूक्ष्म अध्ययन हेतु लग्न कुंडली के अतिरिक्त चंद्र लग्न, चलित चक्र, षोडशवर्ग, ग्रह स्पष्ट, भाव स्पष्ट, महादशा और अंतर्दशाओं का भी विवेचन किया जाता है, जो एक उबाऊ और जटिल गणितीय प्रक्रिया है। अनिष्ट ग्रहों के उपचार हेतु भारतीय ज्योतिष में दीर्घकालीन मंत्र जप, व्रत और बहुत खर्चीले दान आदि की व्यवस्था है, जो जन-साधारण के सामथ्र्य से बाहर है। लालकिताब में अनिष्ट ग्रहों और अनिष्ट समय से मुक्ति का बेहद सरल तरीका टोटकों के रुप में दिया गया है, जिसे आम आदमी बिना किसी परेशानी के कर सकता है। व्यवहारिक रुप में इन टोटकों का त्वरित प्रभाव भी अनुभव किया गया है, जिसके कारण इस किताब का सामाजिक महत्व प्रकट हुआ है।
लाल किताब के आधार पर कुंडली निर्माण
जन्मकुंडली दो प्रकार से बना सकते हैं- परंपरागत ज्योतिष के आधार पर और हस्त संरचनाओं के आधार पर। लाल किताब प्रमुख रुप से हस्त संरचना पर आधारित है, जिसके अनुसार कुंडली का निर्माण किया जाता है। विधाता ने इंसान के कार्यों को उसकी हथेली पर इस प्रकार अंकित किया है कि वह कहीं गुम न हो सके। हथेली के उठे हुए भाग जिन्हें पर्वत कहते हैं, जितने सुडौल होंगे, उतने ही वे जातक की उन्नति के लिए मददगार होंगे और आपदाओं से जातक की रक्षा भी करेंगे। कुंडली निर्माण हेतु जातक की हथेली रुपी महाद्वीप को 12 भागों (भावों) में विभाजित किया गया है और पर्वतों को 9 भाग माना है। ये 12 भाग इंसानी ताकत और 9 भाग गैबी ताकत (दैव शक्ति) के रुप में होते हैं। हाथ की रेखाओं और चिन्हों आदि के आधार पर जातक की जन्मकंुडली बनाई जा सकती है। उंगलियों पर 1 से 12 तक के अंक राशियों के हैं। जन्मकाल के अनुसार ग्रहों के स्थान परिवर्तन होते रहते हैं।
परंपरागत ज्योतिष के आधार पर बनी हुई कुंडली में जन्म लग्न राशि और नक्षत्र को महत्वपूर्ण माना है, मगर लाल किताब में इनका कोई महत्व नहीं है। अतः उस विधि से बनी हुई कुंडली में से राशियों के नाम (राशियों की संख्या) मिटा कर साधारण रुप से 1, 2, 3.... 12 तक लिख देते हैं। इसका अर्थ है कि प्रथम भाव में सदैव मेष, द्वितीय भाव में वृष, तृतीय में मिथुन राशि.... और इसी क्रम से द्वादश भाव में मीन राशि स्थित हैं। इस प्रकार सभी 1 से 12 भावों में मेष पर्यन्त राशियों की निश्चित स्थिति है, जन्मकाल विविधता के कारण केवल ग्रहों की स्थिति परिवर्तनशील है। अतः परंपरागत ज्योतिष और लाल किताब के ज्योतिष के अनुसार निर्मित कुंडली में राशियों को छोड़ कर ग्रहों की स्थितियों में कोई परिवर्तन नहीं होता। इसके अतिरिक्त लाल किताब में परंपरागत 9 ग्रहों को ही माना है, यूरेनस, नेप्चून और प्लूटों को नहीं।
राशि छोड नक्षत्र भुलाया, न ही कोई पंचांग लिया।
मेष राशि खुद लग्न को गिनकर, बारह पक्का घर मान लिया।।
इसके आधार पर सूर्य सदैव प्रथम भाव में उच्च और सप्तम भाव में नीच होगा। चंद्रमा द्वितीय भाव में उच्च और अष्टम भाव में नीच, मंगल चतुर्थ में नीच और दशम में उच्च, बुध षष्ठ में उच्च और द्वादश में नीच, बृहस्पति चतुर्थ में उच्च और दशम में नीच, शुक्र षष्ठ में नीच और द्वादश में उच्च तथा शनि प्रथम भाव में नीच और सप्तम में उच्च होगा।
उदाहरण हेतु श्री कृष्ण की परंपरागत ज्योतिष के अनुसार वृष लग्न की कुंडली 1 है, जिसमें चंद्रमा उच्च का माना गया है। इस कुंडली में से अंक मिटाकर कुंडली 2 बनती है, तत्पश्चात साधारण रुप से 1, 2, 3.... 12 तक लिख कर कुंडली 3 बन जाती है, जो लालकिताब के अनुसार है। अब इस कुंडली में चंद्रमा मेष राशिस्थ माना जायेगा, जो उच्च का नहीं है।
लाल किताब में ग्रहों की प्रकृति
परंपरागत ज्योतिष में ग्रहों की प्रकृति का स्व, उच्च या नीच राशिस्थ, दृग्बली, दिक्बली, चेष्टा बली आदि के रुप में उद्भोदन किया गया है, किन्तु लाल किताब में कायम ग्रह, धर्मी ग्रह, नकली ग्रह, अंधा ग्रह, साथी ग्रह, मुकाबले का ग्रह, सुप्त-जाग्रत ग्रह, बलि का बकरा ग्रह जैसे शब्दों के द्वारा ग्रहों की प्रकृति बताई गई है। इसके अतिरिक्त कुंडली में ग्रहों के पक्के घर निश्चित किए गये है, जैसे-
अंधे ग्रह: दशम भावगत ग्रह यदि पापी हों, एक दूसरे के नैसर्गिक शत्रु हों, या पाप ग्रहों से दृष्ट हों तो वे अंधे होते हैं। ऐसे ग्रह भले ही उच्च हों, उनके फलों की अनिश्चितता रहती है। इसलिए इन ग्रहों के द्वारा प्रदत्त फलों की भविष्यवाणी करने में असमंजस की स्थिति रहती है।
धर्मी ग्रह: शनि राहु और केतु अत्यंत पापी होने पर भी विशेष परिस्थितियों में धर्मी होकर अपने पाप फल नहीं देते। जैसे राहु और केतु चतुर्थ भाव में या चंद्रमा के संग किसी भी भाव में स्थित होकर और शनि एकादश भाव में या बृहस्पति के संग किसी भी भाव में स्थित होकर पापी नहीं होंगे, बल्कि धर्मी होकर अपने शुभ फल प्रकट करेंगे।