अनादि काल से ही हिंदू धर्म में अनेक प्रकार की मान्यताओं का समावेश रहा है। विचारों की प्रखरता एवं विद्वानों के निरंतर चिंतन से मान्यताओं व आस्थाओं में भी परिवर्तन हुआ। क्या इन मान्यताओं व आस्थाओं का कुछ वैज्ञानिक आधार भी है? यह प्रश्न बारंबार बुद्धिजीवी पाठकों के मन को कचोटता है। धर्मग्रंथों को उद्धृत करकेेेेे ‘बाबावाक्य प्रमाणम्’ कहने का युग अब समाप्त हो गया है। धार्मिक मान्यताओं पर सम्यक् चिंतन करना आज के युग की अत्यंत आवश्यक पुकार हो चुकी है।
प्रश्न: यज्ञोपवीत क्यों? उत्तर: यज्ञोपवीत शब्द ‘यज्ञ’ और ‘उपवीत’ इन दो शब्दों से बना है जिसका अर्थ है- यज्ञ को प्राप्त करने वाला। अर्थात जिसको धारण करने से व्यक्ति को सर्वविध यज्ञ करने का अधिकार प्राप्त हो जाता है उसे यज्ञोपवीत कहते हैं। यज्ञोपवीत धारण किये बिना किसी को वेदपाठ या गायत्रीजप का अधिकार प्राप्त नहीं होता है। उपनयन उपर्युक्त संस्कार का पर्यायवाची शब्द है जिसका अर्थ होता है, ऐसा संस्कार जिसके द्वारा बालक गुरु के समीप ले जाया जाता है।
प्रश्न: जनेऊ शब्द से क्या तात्पर्य है? उत्तर: वस्तुतः यज्ञ शब्द का अपर पर्यायवाची है- ‘यजन’ सो यकार छोड़कर ‘जन’ और उपवीत के ‘उ’ मात्र जोड़ने से ‘जनेऊ’ शब्द जो कि यज्ञोपवीत का ही संक्षिप्त संस्करण है। लोक व्यवहार व अपभ्रंश के रूप में ग्रामीण अंचल में आज भी लोग यज्ञोपवीत को ही जनेऊ, जनोई वगैरह कहते हैं।
प्रश्न: ब्रह्मसूत्र क्यों? उत्तर: यज्ञोपवीत को ही ब्रह्मसूत्र कहते हैं क्योंकि इस सूत्र के पहनने से व्यक्ति ब्रह्म के प्रति समर्पित हो जाता है, इसलिये इसे ‘ब्रह्मसूत्र’ भी कहा जाता है। यह बल, आयु तथा तेज को देने वाला सूत्र कहा गया है। यज्ञोपवीत को व्रतबंध भी कहा जाता है क्योंकि इसके पहनते ही व्यक्ति अनेक प्रकार के व्रत-नियमों में बंध जाता है व दृढ़प्रतिज्ञ हो जाता है।
प्रश्न: मौंजीबंधन क्यों? उत्तर: उपनयन संस्कार में मंूजमेखला ब्रह्मचारी के कमर पर बांधी जाती है। इस पावन संस्कार की स्मृति में उपनयन को मौंजीबंधन संस्कार भी कहा जाता है।
प्रश्न: यज्ञोपवीत कब बदलें और क्यों? उत्तर: टूट जाने पर, घर में किसी के जन्म या मृत्यु हो जाने पर, रजस्वला, चांडाल व शव आदि से स्पर्श हो जाने पर, श्रावणी कर्म, सूर्य-चंद्र ग्रहण के बाद, क्षौरकर्म के पश्चात स्नानपूर्वक विधि के साथ यज्ञोपवीत अवश्य बदलना चाहिये क्योंकि इन सब परिस्थितियों में यज्ञोपवीत अपवित्र हो जाता है।
प्रश्न: लघुशंका व दीर्घ शंका के समय जनेऊ कानों पर क्यों? उत्तर: प्रथमतः लघु व दीर्घ शंका काल में ब्रह्मसूत्र को अपवित्रता से बचाने के लिये कानों द्वारा ऊपर खींच लिया जाता है। दूसरा कारण यह है कि लौकिक दृष्टि से कान पर यज्ञोपवीत होने से मनुष्य के अपवित्र हाथ-पांव होने का संकेत चिह्न है जिसे देखकर व्यक्ति दूर से ही समझ जाता है कि अमुक व्यक्ति जब तक मिट्टी आदि से हाथ मांजकर शुद्धि आदि न कर ले तब तक वह अस्पृश्य है।
प्रश्न: लघु शंका के समय जनेऊ दायें कान पर ही क्यों? उत्तर: शास्त्रकारों ने दाहिने कान को ज्यादा महत्त्व दिया है। कहा गया है- ‘आदित्या वसवो रुद्रा, वायुरग्निश्च घर्यराट्। विप्रस्य दक्षिणे कर्णे, नित्यं तिष्ठन्ति देवताः।।’ अर्थात ब्राह्मण के दाहिने कान में देवताओं का निवास है अतः पवित्रता के महान केंद्र पर जनेऊ रखने का विधान शास्त्रीय मर्यादाओं के अनुकूल है।