विदुर जी ने धृतराष्ट्र को समग्र ज्ञान का उपदेश दिया और धृतराष्ट्र गान्धारी सहित हिमालय की यात्रा में निकल गए। अजातशत्रु युधिष्ठर ने प्रातःकालीन कृत्यों को पूर्ण किया तथा राजमहल में गुरुजनों की चरण वन्दना को पधारे, परंतु धृतराष्ट्र, विदुर तथा गान्धारी के दर्शन न हो पाने पर खेद व्यक्त कर संजय से जानना चाहा पर कुछ न जान सके। तभी तुम्बुरू के साथ देवर्षि नारद आ पहुंचे, प्रणामादि को स्वीकार कर धृतराष्ट्र गान्धारी को विलक्षण चक्षुओं से देखते हुए नारदजी ने धर्मराज से कहा-राजन् माया के गुणों से होने वाले परिणामों को मिटाकर उन्होंने अपने आपको सर्वाधिष्ठान ब्रह्म में एक कर दिया है और आज से पांचवें दिन वे गान्धारी के साथ नश्वर देह का त्याग कर देंगे।
विदुर जी अपने भाई का आश्चर्यमय मोक्ष देखकर हर्षित व वियोग देखकर दुखित हो तीर्थ सेवन को प्रस्थान करेंगे ऐसा कह देवर्षि नारद तुम्बरू के साथ स्वर्ग चले गए। धर्मराज ने उनके उपदेशों को हृदय में धारण कर शोक त्याग दिया। सूत जी शौनकादि ऋषियों से कहते हैं कि धर्मराज को नाना प्रकार के अपशकुन होने लगे और द्वारिका से अर्जुन के आने की बाट देखने लगे, तभी तेजहीन अर्जुन को सामने खड़े देखा और अर्जुन से द्वारिका की कुशलक्षेम पूछी। तब द्वारिका की व पूर्व में घटित एक-एक लीला का चित्रण शोक संतप्त अर्जुन ने धर्मराज से करते हुए यदुवंश के विनाश की लीला व भगवान के स्वधाम गमन की कथा कह सुनायी।
इस दुखद वृत्तांत को जानकर निश्चलमति युधिष्ठिर ने कलियुग का आगमन जानकर उन्होंने अपने विनयी पौ़त्र परीक्षित को सम्राट पद पर हस्तिनापुर में तथा मथुरा में शूरसेनाधिपति के रूप में अनिरूद्ध पुत्र वज्र का अभिषेक कर चीर वस्त्र धारण कर उत्तर दिशा की यात्रा में चले, पीछे-पीछे उनके भाई भीमसेन, अर्जुन आदि पीछे-पीछे चल पड़े, श्रीकृष्ण के चरण कमलों से उनके हृदय में भक्ति-भाव उमड़ पड़ा। उनकी बुद्धि सर्वथा शुद्ध होकर भगवान् श्रीकृष्ण के उस सर्वोत्कृष्ट स्वरूप में अनन्य भाव से स्थिर हो गयी जिसमें निष्पाप पुरूष ही स्थिर हो पाते हैं।
फलतः उन्होंने ‘‘अवापुर्दुरवापां ते असद्र्वििषयात्माभिः। विधूतकल्मपास्थाने विरजेनात्मनैव हि ।। (01/16/48) अपने विशुद्ध अंतःकरण से स्वयं ही वह गति प्राप्त की, जो विषयासक्त दुष्ट मनुष्यों को कभी प्राप्त नहीं हो सकती। संयमी एवं श्रीकृष्ण के प्रेमावेश में मुग्ध भगवन्मय विदुर जी ने भी अपने शरीर को प्रभास क्षेत्र में त्याग दिया। द्रौपदी भी अनन्य प्रेम से भगवान् श्रीकृष्ण का चिंतन करके मंगलमयी कथायें, लीलायें व उनका नाम स्मरण आनंददायी है, जो भगवान् के प्यारे भक्त पांडवों के महाप्रयाण की इस परम पवित्र और मंगलमयी कथा को श्रद्धा से श्रवण करता है, वह निश्चय ही भगवान् की भक्ति सिद्धि और मोक्ष प्राप्त करता है।
महाप्रयाण का एक सुंदर प्रसंग इस प्रकार है- पांडव अपने आराध्य श्रीकृष्ण के चरणों में बुद्धि को समर्पित कर चुके थे। पांडवों की स्थिति द्रौपदी के प्रति निरपेक्ष भाव की हो गयी थी। हिमालय के क्षेत्र में श्रीकृष्ण के चिंतन में लीन पांडव आगे बढ़े जा रहे थे, तभी द्रौपदी ने अपने तेज को श्रीकृष्ण में विलीन कर दिया। द्रौपदी अर्जुन से प्रेम की अधिकता के कारण प्रथम गयी। सहदेव ज्ञान के अहंकार, नकुल रूप के अभिमान, अर्जुन बल के घमंड तथा भीम अधिकाधिक भोजन करने के कारण क्रमशः उत्तमोत्तम गति को प्राप्त हो गए।
उपरांत धर्मराज युधिष्ठिर की यमराज ने श्वान रूप धारण कर परीक्षा ली और धर्मराज ने श्वान को स्वर्ग ले चलने के हठ के कारण धर्मराज (यमराज) को प्रसन्न किया और नरक लोक के संपूर्ण जीवों का कल्याण करते हुए भगवत् धाम को प्राप्त हो गए। पांडवों के स्वर्गारोहण से यह स्पष्ट है कि किसी भी स्थिति में मानव को किसी विषय का अहंकार नहीं करना चाहिए। घमंड रहित होने के कारण ही केवल धर्मराज युधिष्ठिर ही धर्मराज के दर्शन व दिव्य विमान का सुख प्राप्त कर सके, अन्य पांडव नहीं। विचार कर देखा जाय तो श्रीकृष्ण नाम ही परम मंगलकारी, कल्याण प्रदाता व आनंदवृद्धि करने वाला है। कहा भी है- कृष्ण कथा अनंत है, कृष्ण नाम अनमोल। जनम सफल हो जायेगा, कृष्ण कृष्ण राधे-राधे बोल।।