तीसरा संस्कार ‘सीमन्तोन्नयन’ है। गर्भिणी स्त्री के मन को सन्तुष्ट और अरोग रखने तथा गर्भ की स्थिति को स्थायी एवं उत्तरोत्तर उत्कृष्ट बनते जाने की शुभाकांक्षा-सहित यह संस्कार किया जाता है। समय-पुंसवन वत् प्रथमगर्भे षष्ठेऽष्टमेवा मासे अर्थात् प्रथम गर्भ स्थिति से 6 ठे या आठवें महीने यह संस्कार किया जाता है। कोई इसे प्रथम गर्भ का ही संस्कार मानते हैं, कोई इसे अन्य गर्भों में कर्तव्य मानते हैं, परन्तु उनके मत में 6 ठे या 8 वें महीने का नियम नहीं है। ‘सीमन्तोन्नयन’ शब्द का अर्थ है ‘स्त्रियों के सिर की मांग’। यह एक साधारण प्रथा है कि सौभाग्यवती स्त्रियां ही मांग भरती है। यह उनकी प्रसन्नता, संतुष्टि आदि का सूचक है। यहां पति अपने हाथ से पत्नी के बाल संवार कर मांग में सिंदूर दान करता है।
चरक में लिखा हैः- ‘सा यद्यदिच्छेत्ततदस्य दद्यादन्यत्र गर्भापघातकरेभ्यो भावेभ्यः’। अर्थात् गर्भवती स्त्री, गर्भविनष्ट करने वाली वस्तुओं को छोड़कर जो भी कुछ मांगे वह देना चाहिए। ‘‘सौमनस्यं गर्भधारकारणम्।’’ लब्धदौहृदा तु वीर्यवन्तं चिरायुषं च पुत्रं प्रसूते। गर्भवती स्त्री को प्रसन्न रखना चाहिए। उसकी इच्छा पूरी होने से सन्तान वीर्यवती और दीर्घायु होती है।
संकल्प सीमन्तोन्नयन संस्कार के दिन यजमान पत्नीसहित मंगल द्रव्ययुत जल से स्नान कर चीरेदार दो शुद्ध वस्त्र धारण कर शुभासन पर बैठकर आचमन प्राणायाम कर निम्नलिखित संकल्प पढ़ेः- (देष-काल का कीर्तन कर) अस्याः मम भार्यायाः गर्भा- तदा चास्य चेतना प्रव्यक्ता भवति। ततष्च प्रभृति स्पन्दते, अभिलाषं पंचेन्द्रियार्थेषु करोति। मातजं चास्य हृदयं तद्रसहारिणीभिः धमनीभिः मातृहृदयेनाभिसम्बद्धं भवति। तस्मात्तयोस्ताभिः श्रद्धा सम्पद्यते। तथा च दौहृद्यां ‘नारी दोहृदिनी’ त्याचक्षते। अर्थात् गर्भस्थ जीव को चेतना (इच्छा) चैथे महीने में स्पष्ट होने लगती है। उस समय गर्भ का स्पन्दन आरम्भ होता है।
पांचों इन्द्रियों के विषय में वह इच्छा करने लगता है। इस गर्भ का हृदय माता के बीज-भाग के हृदय के साथ जुड़ा होता है। इसलिए दोनों में एक समान इच्छा होती है और अब दो हृदयों के कारण स्त्री को दो हृदिनी कहने लगते हैं। सा प्राप्तदौहृदा पुत्रं जनयेत् गुणान्वितम्। अलब्धादौहृदा गर्भं लभेतात्मनि वा भयम्।। अर्थात् दोहृद पूरा न होने पर गर्भ या माता के जीवन को भय रहता है। आठवें महीने में अष्टमेऽस्थिरी भवति ओजः। तत्र जातष्चेन्न जीवेन्निरोजस्त्वात्। नैर्ऋतभागत्वाच्च वयवेभ्यस्तेजोवृद्धयर्थं क्षेत्रगर्भयोः संस्कारार्थं गर्भसमद्भवैनो निबर्हणपुरस्सरं श्रीपरमेष्वरप्रीत्यर्थं सीमन्तोन्नयनाख्यं संस्कारकर्म करिष्ये। तत्र निर्विघ्नार्थं गणपतिपूजनं, स्वस्तिपुष्याहवाचनं मातृकानवग्रहादिपूजनं यथाषक्ति सांकल्पिकं नान्दीश्राद्धं होमं च करिष्ये।
सामान्य विधि संकल्प पढ़ने के पश्चात् स्वस्तिवाचनादि सामान्य विधि प्रकरण में उक्त रीति से सम्पन्न करे और अन्त में कुषकण्डिका समेत विस्तृत होम विधि करे। विशेष विधि तत्र विषेषः पात्रासदने। आज्यभागान्तरं तुण्डलतिलमुद्गानां क्रमेण पृथगासादनम्। उपकल्पनीयानि मृदुपीठं, युग्मान्योदुम्बरफलानि एकस्तबक निबद्धानि, त्रयोदर्भपिंजूलाः,त्रयेणी शलली, वीरतरुषंकुः, शरेषीका आष्वत्त्थो वा शंकुः पूर्णं चात्रं, वीणागाथिनौ चेति। आज्यमधिश्रित्य चरुस्थाल्यां मुद्गान् प्रक्षिप्याधिश्रित्य ईषच्छृतेषु मुद्गेषु तिलतण्डुलप्रक्षेपं कृत्वा पर्यग्निकरणं कुर्यात्। आठवें महीने में अभी ओज अस्थिर होता है। इस मास में उत्पन्न सन्तान प्रायः जीती नहीं। ओज का दूसरा नाम वीर्य है।
यह ओज आठवें मास में अस्थिर रहता है- कभी माता में कभी सन्तान में जाता-आता रहता है। इसलिए इस महीने को ‘नगण्य’ (गिनती में न लाने योग्य) कहते हैं। इस ओज को बढ़ाने के लिए माता को प्रसन्न रखना आवष्यक है। इन्हीं कारणों से गर्भवती पत्नी को विषेषतः प्रसन्न रखने के लिए और उसमें प्रसन्न रहने की धारणा को पुष्ट करने के लिए इस संस्कार का समय गर्भ का चैथा व आठवां मास नियत है। इन मासों में जब चन्द्रमा पुनर्वसु, पुष्य आदि पुल्लिंग नक्षत्रों से युक्त हो तब इस संस्कार को करें।
इस संस्कार की कुषकण्डिका में विषेष बात यह है कि दूसरी सब वस्तुओं के साथ आज्य के पश्चात् चावल, तिल, मूंग को क्रमषः अलग-अलग रखें और कोमलासन सहित पटड़ा (भद्रपीठ), एक गुच्छे में बन्धे गूलर फलों के जोड़े, कुषाओं की तीन पिंजूलि, तीन स्थान पर श्वेत सेही का एक कांटा, अर्जुन या पीपल की एक खूंटी, पीले सूत से भरा तकुआ और दो वीणावादक। घृत को पकने के पश्चात् चरु (सामग्री) पात्र में मूंग डालकर उनको पकायें, कुछ पक जाने पर उनमें तिल-चावल मिलायंे और घृत की भांति इसमें भी जलते हुए तृण को घूमाकर रखें। (पर्यग्निकरण) कुशकण्डिका के पश्चात् होम विधि प्रारम्भ करंे।
होम विधि में स्विष्टकृति आहुति के पश्चात् पूर्वसिद्ध स्थालीपाक (खिचड़ी) की आहुति निम्न मन्त्र से देंः- ऊँ प्रजापतये त्वा जुष्टं निर्वपामि ऊँ प्रजापतये त्वा जुष्टं प्रोक्षामि। फिर महा व्याहृति आदि प्राजापत्य आहुति पर्यन्त आहुतियां शेष स्थालीपाक से दे। पश्चात् बर्हिहोम पर्यन्त होमविधि सम्पूर्ण करें। सीमन्तोन्नयन इसके पश्चात् स्नाता एवं शुद्ध वस्त्रा, गर्भिणी पत्नी को, अग्नि के पष्चिम भाग में, एकान्त में अथवा संस्कार भूमि पर ही एक ओर पटड़े पर कोमल आसन बिछाकर बिठायें और उसके पीछे बैठकर तेरह-तेरह कुओं की तीन पिंजुली, तीन स्थान में श्वेत सेही का एक कांटा, पीला सूत लिपटे लोहे का तकुवा और तीक्ष्ण अग्रभाग समेत बिलस्त भर काठ की एक घूंटी’ और बिल्व इन पांचों से एक साथ पत्नी के सिर का विनयन करें अर्थात् फल स्वच्छ कर, पट्टी निकाल पीछे की ओर सुन्दर जूड़ा बांधे।
मांग करते समय निम्न मन्त्रभाग का पाठ करेंः- ऊँ भूर्विनयामि। ऊँ भुवर्विनयामि। ऊँ स्व र्विनयामि। पश्चात् निम्न मन्त्र का पाठ करता हुआ बाल संवारने की पांचों वस्तुओं को जूड़े में ही बांध देंः- ऊँ अयमूर्जावतो वृक्ष ऊर्जीव फलिनी भव पष्चात् वीणावादक निम्नलिखित मन्त्र का गान करेंः- ऊँ सोम एव ते राजेमा मानुषीः प्रजाः। अविमुक्तचक्र आसीरंस्तीरे तुभ्यम्......... पश्चात् अन्य वामदेव्य गान आदि गान करें। अब अभ्यागत ब्राह्मणादि का दक्षिणा भोजनादि से सत्कार कर, आषीर्वाद ग्रहण कर, देवगणों का विसर्जन करें। तदन्तर स्रुवा मूल द्वारा कुण्ड में से भस्म लेकर विधि पूर्वक भस्म धारण और आरती आदि करें।