समस्त सोलह संस्कारों का अत्यंत महत्त्व है किंतु विद्वानों द्वारा यज्ञोपवीत संस्कार का विशेष महत्त्व माना गया है। व्यास स्मृति द्वारा कहे गये सोलह संस्कारों में यज्ञोपवीत संस्कार का वेदोक्त वर्णाश्रम धर्म के साथ अत्यंत गहरा संबंध है। समस्त संस्कार वर्णाश्रम व्यवस्था और वैदिक सनातन धर्म की आधारशिला माने गये हैं। वेदों में वर्णाश्रम का स्पष्ट रूप से उल्लेख हुआ है। पुरुष सूक्त में चार वर्ण-ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य एवं शूद्र की उत्पत्ति विराट पुरुष के विभिन्न अंगों से होने का उल्लेख प्राप्त होता है। यज्ञोपवीत संस्कार की विधि यज्ञोपवीत संस्कार का परिवार के लिये विशेष महत्त्व होता है। इसलिये यज्ञोपवीत संस्कार को संपन्न करने में सभी में उत्साह तथा प्रसन्नता का भाव होता है।
चूंकि इस संस्कार के साथ ही बालक का दूसरा जन्म माना जाता है, इस संस्कार के पश्चात ही वह बालक धार्मिक कार्यों को संपन्न करने के योग्य बनता है, इस कारण सभी इस संस्कार में उत्साह के साथ प्रवृत्त होते हैं। धर्मशास्त्रों में किसी भी मांगलिक कार्यों को संपन्न करने के पहले पुण्याहवाचन करने का निर्देश है। यज्ञोपवीत संस्कार में भी पुण्याहवाचन के पश्चात बालक के बाल कटवा कर स्नान करवाया जाता है, नये वस्त्र पहनाये जाते हैं। इसके पश्चात बालक को अग्नि के समक्ष बिठाकर हवन कराया जाता है। तब बालक को यज्ञोपवीत (जनेऊ) पहना कर गायत्री मंत्र का उपदेश करवाया जाता है। पहले इस समय बालक को विशेष प्रकार के वस्त्र पहनाकर एक नया वेश धारण कराया जाता था।
इसमें तन को ढंकने के लिये मृगचर्म, कमर में मूंज मेखला तथा दायें हाथ में पलाशदंड दिया जाता था। इन समस्त वस्तुओं को धारण कराये जाने का विशेष अर्थ होता था जिसका भाव इस प्रकार है- देह की रक्षा करने के लिये, दृढ़ निश्चय से मन को नियंत्रित रखते हुए अर्थात् ब्रह्मचर्य का पालन करते हुये वेद विद्या प्राप्त करना। इसके पश्चात अग्नि के उत्तर की ओर आचार्य पूर्व की तरफ मुख करके बैठते हैं और अपने पास ही बालक को बिठा लेते हैं। आचार्य अपने हाथों की हथेलियों को मिलाकर अंजलि बनाते हैं। बालक भी इसी प्रकार से अंजलि बनाकर आचार्य की अंजलि के नीचे रखता है। तब आचार्य अपनी अंजलि में जल भरते हैं और थोड़ा-थोड़ा बालक की अंजलि में गिराते हैं। इसका तात्पर्य यह है कि आचार्य अपनी समस्त शिक्षा इस प्रकार धीरे-धीरे करके बालक को देंगे और बालक इस शिक्षा को इसी प्रकार से ग्रहण करेगा।
इस क्रिया के संपन्न हो जाने के पश्चात आचार्य बालक का दायां हाथ थामकर कहते हैं कि सविता ने तेरा हाथ थामा है और अग्नि तेरे आचार्य हैं। इसका गूढ़ अर्थ यह लगाया जाता है कि आचार्य यज्ञोपवीत धारण करने वाले बालक को अपने साथ आश्रम ले जायेंगे और वह उसे वेद विद्या सिखायेंगे। यह वेद विद्या भगवान सूर्य तथा अग्नि देवता की कृपा से ही प्राप्त करनी है। इसके बाद आचार्य बालक को भगवान सूर्य को प्रणाम करने को कहते हैं क्योंकि वही सबको प्रकाश अर्थात् ज्ञान देने वाले देवता हैं। तब आचार्य भगवान सूर्य को प्रणाम करते हैं और सूर्य को संबोधित करते हुये कहते हैं- ‘ हे सविता देव, अब यह बालक आपका ब्रह्मचारी है, इसकी रक्षा करें। इस क्रिया के पश्चात बालक सूर्य एवं अग्नि आदि देवताओं से बुद्धि, बल तथा सद्गुणों को देने की प्रार्थना करता है।
इसके बाद आचार्य बालक को हृदय पर दायां हाथ रखकर कहते हैं कि ‘मैं जिस सदाचार व्रत का पालन करता हूं, तू उसका अनुसरण करे। मेरे चित्त का अनुसरण तेरा चित्त करता रहे। मेरी वाणी जैसी ही तेरी वाणी हो। विद्या के देव बृहस्पति तुझे संपूर्ण विद्याओं से पूर्ण करें।’ इसके पश्चात् बालक गुरु के पास रहकर बारह वर्ष तक अर्थात् विद्या पूर्ण होने तक विद्या ग्रहण करता रहे। तब बालक वेद विद्या तथा धर्म का ज्ञान प्राप्त करके और ब्रह्मचर्याश्रम को पूरा करके गुरु आज्ञा से गृहस्थाश्रम में प्रवेश करता है।