मौन व्रत भारतीय संस्कृति में सत्य व्रत, सदाचार व्रत, संयम व्रत, अस्तेय व्रत, एकादशी व्रत व प्रदोष व्रत आदि बहुत से व्रत हैं, परंतु मौनव्रत अपने आप में एक अनूठा व्रत है। इस व्रत का प्रभाव दीर्घगामी होता है। इस व्रत का पालन समयानुसार किसी भी दिन, तिथि व क्षण से किया जा सकता है। अपनी इच्छाओं व समय की मर्यादाओं के अंदर व उनसे बंधकर किया जा सकता है। यह कष्टसाध्य अवश्य है, क्योंकि आज के इस युग में मनुष्य इतना वाचाल हो गया है कि बिना बोले रह ही नहीं सकता। उल्टा-सीधा, सत्य-असत्य वाचन करता ही रहता है। यदि कष्ट सहकर मौनव्रत का पालन किया जाए तो क्या नहीं प्राप्त कर सकता? अर्थात् सब कुछ पा सकता है। कहा भी गया है- ‘कष्ट से सब कुछ मिले, बिन कष्ट कुछ मिलता नहीं। समुद्र में कूदे बिना, मोती कभी मिलता नही।।’ जैसे- जप से तन की, विचार से मन की, दान से धन की तथा तप से इंद्रियों की शुद्धि होती है।
सत्य से वाणी की शुद्धि होनी-शास्त्रों तथा ऋषियों द्वारा प्रतिपादित है, परंतु मौन व्रत से तन, मन, इंद्रियों तथा वाणी-सभी की शुद्धि बहुत शीघ्र होती है। यह एक विलक्षण रहस्य है। व्रत से तात्पर्य है- कुछ करने या कुछ न करने का दृढ़ संकल्प। लौकिक एवं पारलौकिक दोनों प्रकार की सिद्धियों की प्राप्ति दृढ़ संकल्प से ही होती है। यह संसार भी सत्य स्वरूप भगवान के संकल्प से ही प्रकट हुआ है। मौन-व्रत से मनुष्य मस्तिष्क या मन में जो संकल्प-विकल्प उठते रहते हैं, उन पर नियंत्रण होता है। यदि संकल्प-विकल्प भगवन्निष्ठ हों तो सार्थक होता है, परंतु सदैव ऐसा नहीं होता।
भगवान की माया शक्ति का प्रत्यक्ष प्रभाव है- यह जगत्। मनुष्य इस संसार की महानतम भौतिक उपलब्धियों को प्राप्त करने के लिए ही नाना प्रकार के संकल्प-विकल्प करता रहता है। फलतः मन की चंचलता निरंतर बनी रहती है। जितने क्षण मन कामना (संकल्प-विकल्प)- शून्य हो जाता है उतने क्षण ही योग की अवस्था रहती है। मौन-व्रत द्वारा निश्चित रूप से मन को स्थिर किया जा सकता है। ऋणात्मक ऊर्जा को धनात्मक ऊर्जा में परिवर्तित किया जा सकता है। मौन-व्रत रखने से भौतिक कामनाओं से मुक्ति के साथ-साथ परस्पर अनावश्यक वाद-विवाद से भी बचा जा सकता है। राग और द्वेष पर तो विजय मिल ही जाती है। जितने समय तक साधक मौन-व्रत रखता है, उतने काल तक असत्य बोलने से मुक्त रहता है। साथ ही मन तथा इंद्रियों पर संयम रहने से साधन-भजन में सफलता मिलती है। भजन में एकाग्रता एवं भाव का अधिक महत्व है। भाव सिद्ध होने पर क्रिया गौण तथा भाव प्रधान हो जाता है।
मौन-व्रत से आत्मबल में बहुत अधिक वृद्धि होती है। संसार में अनेक प्रकार के बल हैं यथा-शारीरिक, आर्थिक, सौंदर्य, विद्या तथा पद (सŸाा) का बल। लौकिक दृष्टि से उपर्युक्त सभी प्रकार के बल अपना महत्व रखते हैं, परंतु आत्म बल इन सभी बलों में सर्वोपरि है। अभौतिक और जागतिक सभी प्रकार की उन्नति के लिए आत्म बल की परम आवश्यकता होती है। मौन-व्रत से आत्म बल में निरंतर वृद्धि होती है। मनुष्य सत्य वस्तु की ओर बढ़ता हैं भगवान् सत्यस्वरूप हैं और उनका विधान भी सत्य है। शरीर, धन, रूप, विद्या तथा सŸाा का बल मनुष्य को मदांध कर देता है। इनमें से एक भी बल हो तो मनुष्य दूसरे लोगों के साथ अनीतिमय व्यवहार करने लगता है। जरा सोचें, जिनके पास ये पांचों बल हों उसकी गति क्या होगी! मौन-व्रत ही ऐसा साधन है जिससे व्यक्ति स्वस्थ हो सकता है। मौन व्रत के पालन से वाणी की कर्कशता दूर होती है, मृदु भाषा का उद्गम बनता है।
अंतरात्मा में सुख की वृद्धि होती है फिर विषय का त्याग करता हुआ जीवन के अद्वितीय रस भगवद् रस को प्राप्त करने लगता है। साधक को मौन-व्रत के पालन में अंदर तथा बाहर से चुप होकर निष्ठापूर्वक एकांत में रहकर भगवान नाम-जप करना चाहिए। ऐसा करने से ही आत्म बल में वृद्धि तथा नाम-जप में कई गुना सिद्धि प्राप्त होती है। प्रत्येक साधक को दिन में एक घंटे, सप्ताह में एक दिन एकांत वास कर मौन-व्रत धारण कर भगवद्भजन करना चाहिए। यह बड़ा ही श्रेयष्कर साधन है। यूं भी साधक को नियमित जीवन मंे ंउतना ही बोलना चाहिए जितना आवश्यक हो। अप्रिय सत्य नहीं बोलना चाहिए।
निरंतर निष्ठा पूर्वक भगवन्नाम जप से वाकसिद्धि हो जाती है। मौन-व्रत का पालन बहुत सावधानी पूर्वक करना चाहिए। प्राचीन समय में हमारे ऋषि-मुनि मौन-व्रत तथा सत्य भाषण के कारण ही वाक्सिद्ध थे। यदि हमारी इंद्रियां तथा मन चलायमान रहें तो मौन-व्रत पालन करना छलावा मात्र ही रहेगा। मूल रूप से वाणी संयम तो आवश्यक है ही, किंतु उससे भी अधिक आवश्यक है चिŸा वृŸिायों का संयम। चिŸा वृŸिायों का संयम ही वास्तव में मुख्य मौन-व्रत है। यह साधनावस्था की उच्चभूमि है जहां पहुंचकर ब्रह्मानंद, परमानंद, आत्मानंद की स्वतः अनुभूति होने लगती है। अतः धीरे-धीरे वाक् संयम का अभ्यास करते हुए मौन व्रत की मर्यादा में प्रतिष्ठित होने का प्रयत्न करना चाहिए।