विवाह संस्कार
विवाह संस्कार

विवाह संस्कार  

विजय प्रकाश शास्त्री
व्यूस : 5647 | मई 2015

सोलह संस्कारों में विवाह संस्कार का विशेष स्थान है। एक प्रकार से विवाह संस्कार के द्वारा ही स्त्री तथा पुरुष मिल कर पूर्णता को प्राप्त करते हैं। विवाह के बिना व्यक्ति का जीवन अधूरा एवं व्यर्थ माना गया है। विवाह संस्कार द्वारा व्यक्ति पितृ ऋण से मुक्ति प्राप्त करता है, संतान के जन्म से उसका वंश आगे को बढ़ता है। विवाह के पश्चात् ही व्यक्ति गृहस्थाश्रम में प्रवेश करता है। मानव जीवन के चार आश्रमों में गृहस्थाश्रम को विशेष महत्व प्राप्त है। गृहस्थ जीवन में व्यक्ति अपनी पत्नी के साथ मिलकर अनेक पारिवारिक एवं सामाजिक उदरदायित्वों को पूर्ण करता है।

विवाह के द्वारा ही उसके जीवन में एक ऐसी स्त्री का आगमन होता है जो जीवनपर्यन्त उसके साथ मिलकर जीवन के संघर्षों को जीतने में उसका साथ देती है। ऐसा माना जाता है कि पुरुष के जीवन से अगर स्त्री को अलग कर दिया जाये तो इस सृष्टि का आकर्षण ही समाप्त हो जायेगा, पुरूष के जीवन से आनंद समाप्त होकर नीरसता का समावेश होने लगेगा और अंततः जीवन का मूल्य ही समाप्त हो जायेगा। विवाह के द्वारा ही पुरुष को स्त्री का सान्निध्य प्राप्त होता है, इसलिये विवाह संस्कार को विशेष स्थान प्राप्त है।

विवाह संस्कार को सबसे अधिक महत्त्व क्यों दिया जाता है, इस पर भी विचार किया जाना आवश्यक है। कुछ व्यक्ति एवं अल्पज्ञानी विद्वान विवाह संस्कार को विवाह संपन्न होने तक के विधि-विधानों तक सीमित करके देखते हैं। वर-वधू का विवाह संपन्न हो गया, इसी के साथ विवाह संस्कार भी पूर्ण हो गया ... किंतु वास्तव में ऐसा नहीं हे। विवाह के साथ ही व्यक्ति गृहस्थाश्रम में प्रवेश करता है। गृहस्थ जीवन में रहते हुए ही उसे अनेक प्रकार के पारिवारिक और सामाजिक दायित्वों को पूरा करना पड़ता है।

वर्तमान में व्यक्ति मृत्युपर्यन्त गृहस्थ जीवन में ही लिप्त रहता है। इस कारण विवाह संस्कार को सर्वाधिक महत्त्व प्राप्त है। इसके अतिरिक्त विवाह संस्कार से अंतिम संस्कार अर्थात् अन्त्येष्टि संस्कार के बीच कोई अन्य संस्कार भी नहीं है। इसलिये भी इसका बहुत अधिक महत्त्व माना गया है।

1. विवाह के माध्यम से पिता अपनी कन्या के भविष्य की चिंता से मुक्त हो जाता है क्योंकि विवाह के बाद उसकी समस्त आवश्यकताओं की पूर्ति तथा उसकी सुरक्षा करने का उत्तरदायित्व उसके पति का हो जाता है।

2. विवाह के माध्यम से ही व्यक्ति अपने पुत्र के लिये कन्या को स्वीकार करता है। इससे जहां परिवार के कार्यों में उसका सहयोग प्राप्त होता है, वहीं उसके द्वारा संतान को जन्म देने से उसका वंश भी आगे बढ़ता है।

3. विवाह के द्वारा दो नितांत अपरिचित स्त्री-पुरुष एक होकर जीवन भर साथ रह कर अपने उत्तरदायित्वों को पूरा करने में एक-दूसरे का सहयोग करते हैं। स्त्री के बिना पुरुष और पुरुष के बिना स्त्री को अधूरा समझा जाता है। पुरुष के जीवन में जब स्त्री का पत्नी के रूप में आगमन होता है तभी वह पूर्णता को प्राप्त करता है। इसी कारण से पत्नी को पति की अर्धांगिनी कहा जाता है। स्वयं देवों के देव भगवान शिव के शरीर का आधा भाग शक्ति रूपिणी गौरी का माना गया है, इसलिये वे अर्धनारीश्वर कहलाये।

4. विवाह के द्वारा दो परिवारों के बीच नये संबंधों का सूत्रपात होता है। एक प्रकार से उनकी प्रतिष्ठा, सम्मान और मान में वृद्धि होती है। दो कुटुंब एक होकर नई शक्ति बन जाते हैं।



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