जातकर्म संस्कार
जातकर्म संस्कार

जातकर्म संस्कार  

विजय प्रकाश शास्त्री
व्यूस : 8068 | जुलाई 2014

16 संस्कारों में जातकर्म संस्कार का विशेष महत्व है। यह संस्कार शिशु के जन्म लेने के पश्चात किया जाता है- जातमात्रस्य वेदोक्तं कर्म जातकर्म अर्थात् शिशु के उत्पन्न होते ही जो वेदोक्त कर्म किया जाता है, वह जातकर्म संस्कार कहलाता है। इस संस्कार से दोष निवारण के साथ ही बालक की आयु एवं बुद्धि (मेधा) बढ़ती है, अतः इसे आयुष्यवर्द्धक या मेधाजनन संस्कार भी कहा जाता है। जातकर्म संस्कार की मुख्य प्रयोजनता इस मेधाजनन संस्कार में समाहित है। इस संस्कार का आयुर्वेद के संहिता ग्रंथों में विशद् वर्णन मिलता है। अन्य धार्मिक ग्रंथों के साथ ही वृहदारण्यकोपनिषद् (1-5-2) में भी इस संस्कार के विषय में विवेचना की गई है।

आचार्य चरक ने यह संस्कार कर लेने के पश्चात ही शिशु को स्तनपान कराने का आदेश दिया है- अतोऽनन्तरं जातकर्म कुमारस्य कार्यम्। तद्यथा-मधु सर्पिषी मन्त्रोपमन्त्रिते यथाम्नायं प्रथमं दद्यात्। स्तनमत ऊध्र्वमे तेनैव विधिना दक्षिणं पातुं पुरस्तात् प्रयच्छेत्। अर्थात् जन्म लेने के पश्चात शिशु का जातकर्म संस्कार करें। इसकी विधि यह है कि शहद और घी को असमान मात्रा में लेकर मंत्र से अभिमंत्रित कर शास्त्र रीति के अनुसार शिशु को चटावें। इसके बाद उसी प्रकार मंत्रोच्चारण करते हुये पहले दाहिना स्तन उसे दूध पिलाने के लिये उसके मुख में उसकी माता डाले। यह सब विधान करते हुये घी-शहद चटाने वाले व्यक्ति का और उसकी माता का मन प्रमुदित (अत्यधिक प्रसन्न) रहना चाहिये।

आचार्य सुश्रुत ने दो दिनों तक मधु-घृत आदि चटाने के पश्चात तीसरे दिन दूध पिलाने के लिये लिखा है जिसकी व्याख्या में व्याख्याकार श्री भास्कर गोविन्द घाणेकर ने लिखा है कि ‘चरक संहिता में प्रथम दिन से ही स्तनपान कराने के लिए कहा है। आधुनिक पाश्चात्य कौमारभृत्यों का भी कथन है कि प्रथम दिन से ही बालक को स्तनपान करायें। बालक को प्रथम दिन से स्तनपान कराने से दुग्धोत्पत्ति में सहायता होती है। बालक को आहार की आवश्यकता है या नहीं? स्तनपान करने का सामथ्र्य है या नहीं? इसका ज्ञान तब तक नहीं होगा जब तक कि माता द्वारा शिशु को स्तनपान नहीं कराया जायेगा। इसलिये उपर्युक्त लाभ प्राप्त करने के लिये चरक के मतानुसार प्रथम दिन से ही स्तनपान कराने की विधि प्रशस्त है।’

जातकर्म संस्कार में जो द्रव्य उपयोग में लाये जाते हैं, उनसे उत्तम स्वास्थ्य के साथ-साथ बल और विशेषतः मेधा की वृद्धि होती है। यह संस्कार घर के वृद्ध पुरुष या वृद्ध महिला के द्वारा किया जाता है। सामान्यतया बालक के लिये वृद्ध पुरुष और बालिका के लिये वृद्ध महिला यह संस्कार संपादित करती है। जनभाषा में इसे कहीं-कहीं घूंटी देना भी कहते हैं। दक्षिण भारत में इसे उरमएन्ट कहते हैं। किसी चरित्रनिष्ठ संभ्रान्त व्यक्ति द्वारा यह कार्य कराया जाना अधिक उपयुक्त है। चटाते समय जिस मंत्र का उच्चारण करना है, वह मंत्र इस प्रकार है- प्रतेददामि मधुनो घृतस्य, वेदं सवित्रा प्रसूतं मधोनाम्।

आयुष्मान् गुप्तो देवताभिः, शतं जीव शरदो लोके अस्मिन्। (आश्रवलायन गृह्य सूत्र 1-5-1) यद्यपि आचार्य चरक ने जातकर्म हेतु मधु और घृत को ही उपयोगी कहा है किंतु आचार्य सुश्रुत ने स्वर्ण मिश्रित मधु-घृत को उपयोगी कहा है- प्रथमेऽह्नि मधुसर्पिरनन्तमिश्रं मंत्रपूतं त्रिकालं पाययेत्। जातकर्मणि कृते मधुसर्पिरनन्तचूण्र् ामगुल्याऽनामिकया लेहयेत्। (अनन्त चूर्णं सुवर्ण चूर्णं, तेन मिश्रं मध्यवादि लेहयेत्) आचार्य वाग्भट ने सुश्रुत के अनुसार ही वर्णन किया है। मनुस्मृति में भी आया है- प्राङ्नाभिवर्धनात्पुं सो जातकर्म विधीयते। मंत्रवत्प्राशनं चास्य हिरण्यमधुसर्पिषाम्।।

(मनुस्मृति 2-29) अर्थात् शिशु के नालच्छेदन से पहले उसका जातकर्म संस्कार किया जाता है। इसके लिये वेदमंत्र के उच्चारण के साथ उस बालक को स्वर्ण, मधु और घृत चटाना चाहिये।



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