भारतीय संस्कृति में संस्कारों का महत्वपूर्ण स्थान है। किसी वस्तु के रूप को बदल देना या उसे नया रूप देना ही संस्कार कहलाता है। भारत में मनुष्य के लिए संस्कारों का महत्व है। भारतवर्ष ऋषि-मुनियों, देवी-देवताओं की पवित्र भूमि मानी जाती है। इसी भूमि को ईश्वर ने अवतार के लिए चुना है।
हमारी श्रेष्ठता हमारे संस्कारों के कारण है। भारतीय संस्कृति संस्कारों में निहित है। संस्कार ही भारतीय संस्कृति की पहचान है। इसकी आधारशिला हमारे ऋषियों ने रखी थी। भारतीय जीवन मूल्यों में 16 संस्कारों का समावेश किया गया है। गर्भाधान संस्कार से लेकर मृत्यु के पश्चात अन्त्येष्टि संस्कार हमारी संस्कृति की विशेषता को दर्शाता है। जीवन संस्कारों की वेदी पर चढ़कर निखरता है। भारतीय संस्कृति के संस्कार युक्त होने के कारण इसे विश्व की आदि संस्कृति के रूप में जाना जाता है। संस्कृति के रूप में केवल भारतीय संस्कृति है, विश्व की अन्य जीवन पद्धतियाँ सभ्यता कहलाती है।
पशु से मानव बनाने का सामथ्र्य केवल भारतीय संस्कृति में ही है। अपनी संस्कृति की इसी श्रेष्ठता को स्वामी विवेकानन्द ने शिकागो के विश्व सर्वधर्म सम्मेलन में प्रदर्शित कर विश्व को चमत्कृत कर दिया था। संस्कार का आध्यात्मिक दृष्टि से जितना महत्व है उतना ही वैज्ञानिक दृष्टिकोण से रहस्य को समझाया जाता है इसलिए संस्कार मनुष्य के जीवन चक्र को व्यवस्थित करके शरीर, मन, बुद्धि का विकास, सद्गुण् ाों का आधान अन्तःकरण की शुद्धि तथा सर्वांगीण उन्नति प्रदान करता है। संस्कार शब्द का सामान्य अर्थ है, पूर्ण करना, पुनः निर्माण करना, संशोधन करना इत्यादि। अर्थात दोषों को दूर करके गुणों को बढ़ाने के लिए जिस क्रियाविधि अथवा पद्धति का उपयोग किया जाता है, वह संस्कार हैं। आचार्य चरक ने कहा है कि- ‘संस्कारों हि गुणान्तराधानमुच्यते’ अर्थात दोषों को नष्ट और गुणों का संवर्धन करके नए गुणों को विकसित करना ही संस्कार है।
निर्गुण और सगुण बनाना, विकृतियों व अशुद्धियों का निवारण करना और मूल्यवान गुणों का सींचन करना ही संस्कार कार्य है। जैसे सोना, चांदी, तांबा आदि धातुएं खदान से निकाले जाने के तुरन्त बाद उपयोग में नहीं आती। आग में तपाकर यानि कि संस्कार कर सुंदर मूर्ति या गहना बनाने पर वही धातु अति मूल्यवान बन जाती है। जब ये संस्कार मनुष्य में प्रयुक्त होते हैं तब मनुष्य गुणवान बन जाता है।