प्रणाम या अभिवादन व्रत पं. ब्रजकिशोर भारद्वाज 'ब्रजवासी' हमारे जीवन में प्रणाम या अभिवादन व्रत का एक विशिष्ट स्थान है। प्रणाम भारतीय संस्कृति की विनम्रता व शिष्टता का प्रतीक है। प्रणाम हमारी उन्नति पथ की साधना है। प्रणाम हमारी दैन्यताओं, रिक्ताओं, अभावों तथा अपूर्णताओं को ध्वस्त करने की एक महत्वपूर्ण विधि व कारण है। प्रणाम के द्वारा असंभव भी संभव हो जाता है। प्रणाम मानव जीवन के अद्वितीय चरित्र को निखारता है। प्रणाम बड़े-बड़े महापुरूषों, सत्पुरूषों, बालकों तथा स्वयं कोटि-कोटि ब्रह्मांड नायक जगत नियंता के द्वारा भी अपने जीवन में अपनाया जा चुका है। परंतु बड़े खेद की बात है कि आज प्रणाम के महत्व को न जानकर जनमानस प्रणाम की परंपरा को भूलकर , हैलो, हाय, और भाई, हाथ मिलाना, बाय-बाय, गुड मार्निंग, गुडईवनिंग, गुडऑफ्टरनून आदि जैसे शब्दों तक ही सीमित रह गया है।
अधिक होगा तो घुटनों तक कभी दायां तो कभी बायां हाथ पहुंचता है जो घुटने को स्पर्श भी नहीं कर पाता। यह या तो हमारे देश के मूर्धन्य विद्वानों, शंकराचार्यों, जगदगुरुओं, महामंडलेश्वरों, मण्डलेश्वरों, ब्राह्मणों, संतों, महात्माओं, पूजनीय, वन्दनीय आस्तिक जनों के ज्ञानोपदेश या फिर माता-पिता परिवारजनों के संस्कार व शिक्षा का अभाव ही कहा जायेगा। इस ज्ञान को हम सभी को अपने जीवन में चरितार्थ करना है। चरितार्थ करना ही- भारतीय संस्कृति की मर्यादाओं एवं नीतियों का प्रतीक है। यह तभी संभव है जब हमारे जीवन में प्रणाम व्रत की परम्परा का पालन हो। इस व्रत का पालन किसी भी समय से किया जा सकता है।
प्रणाम व्रत से उत्तम व श्रेष्ठ कोई वत हो ही नहीं सकता, क्योंकि इस व्रत में धन खर्च होता ही नहीं, वरन् विभिन्न प्रकार के लाभ स्वतः ही अर्जित हो जाते हैं। प्रश्न उठता है कि प्रणाम किसे करना चाहिए, कैसे करना चाहिए, इससे लाभ क्या-क्या हैं? प्रणाम हम अपने बड़ों अर्थात् गुरुजन, ऋषिजन, पूज्य जन (माता-पिता- दादी-बाबाा - चाची चाचा यानी पारिवारिक सदस्य व, संबंधीजन, मित्रजन, गुणी व श्रेष्ठजन, साधुजन को करते हैं, जिनके मंगलमय आशीर्वाद से हमें दीर्घायु, उत्तम विद्या, अक्षय यष और अपरमित बल की प्राप्ति होती है। हमारी भारतीय संस्कृति में तो पशु पक्षियों जीव जंतुओं, गायों आदि को प्रणाम कर आशीर्वाद प्राप्त करने की परम्परा है। श्री मनुजी की एक सुंदर उक्ति है। अभिवादनशीलस्य नित्यं वृद्धोपसेविनः । चत्वारि तस्य वर्धन्ते आयुर्विद्या यशो बलम्॥ यही नहीं, बड़ों का आशीर्वाद हमारे जीवन में सुख और समृद्धि की भी वर्षा करता है। बड़ों के चरणों में पृथ्वी पर लेटकर तथा मस्तक टिकाकर किया जाने वाला प्रणाम ही वास्तविक प्रणाम है, जिसे हम साष्टांग प्रणाम कहते हैं, एक हाथ से अभिवादन करने का शास्त्रों ने निषेध किया है।
दोनों हाथों से अर्थात् दाहिने हाथ से दाहिने पैर को तथा बायें हाथ से बायें पैर को छूकर प्रणाम करने की विधि है। अभिवादनशीलता मानव का सर्वोच्च गुण है। इसमें नम्रता, विनय, शील, आदर, मान, श्रद्धा, सेवा, अनन्यता एवं शरणागति आदि का भाव अनुस्यूत रहता है। मूलतः प्रणाम स्थूल देह को नहीं अपितु अन्तरात्मा में प्रतिष्ठित नारायण को ही किया जाता है। अतः प्रणाम के उत्कृष्ट भाव को अपने में प्रतिष्ठित करने का सतत प्रयत्न करते रहना चाहिये। बच्चों में तो यह संस्कार प्रारंभ से ही डाल देना चाहिये। अभिवादन सदाचार का मुखय अंग है। इससे न केवल लौकिक लाभ ही प्राप्त होते हैं अपितु आध्यात्मिक पथ भी प्रशस्त हो जाता है। पुराणों में अभिवादन के बल पर दिव्य लाभों को प्राप्त करने के अनेक दृष्टांत प्राप्त होते हैं।
महामुनि मार्कण्डेयजी के नाम से कौन नहीं परिचित है, जब मार्कण्डेयजी 5 वर्ष के थे तब एक दिन जब उनके पिता उन्हें गोद में लिये हुए थे तो उसी समय किसी दैवज्ञ महात्मा ने आकर उन्हें बताया कि महामते। इस बालक की आयु छः मास शेष है। अतः आप इसके लिये जो हितकर कार्य हो, वह करें। महात्माओं की बात झूठी नहीं होती, मृकण्डंजी सोच में पड़ गये और बालक की मृत्यु कैसे टले, यह सोचने लगे। उन्होंने कुछ सोचकर समय से पहले ही बालक का यज्ञोपवीत कराकर उसे सर्वप्रथम यही उपदेश दिया और कहा- 'बेटा ! तुम जिस किसी को देखना, उसे विनयपूर्वक अवश्य प्रणाम करना'- यं कंचिद्वीक्षसे पुत्र भ्रममाणं द्विजोत्तमम्। तस्यावश्यं त्वया कार्यं विनयादभिवादनम्॥ (स्कन्द. नाग. 22/17) बालक मार्कण्डेयजी ने पिता की आज्ञा स्वीकार कर ली और वे अभिवादन व्रत में दीक्षित हो गये। उन्हें जो भी दिखता, वे बड़े ही विनय से उसे प्रणाम करते और उसका आशीर्वाद उन्हें प्राप्त होता।
एक दिन सप्तर्षि उधर से गुजरे। बालक ने नित्य नियम के अनुसार बारी-बारी से उन्हें भी प्रणाम किया और 'दीर्घायु' का अशीर्वाद प्राप्त किया। सप्तर्षियों की वाणी असत्य कैसे होती। महर्षि वसिष्ठ ने क्षणभर विचारकर कहा- ओहो ! हमलोगों ने इसे दीर्घायु होने का आशीर्वाद तो दे दिया है। किंतु इसकी आयु तो छः मास ही शेष है। सप्तर्षि बालक को लेकर ब्रह्मलोक गये, अपने स्वभाव के अनुसार बालक मार्कण्डेय ने ब्रह्माजी को प्रणाम किया और उन्होंने भी दीर्ध आयु प्राप्त करने का वरदान दे दिया। इस वर वसिष्ठजी ने कहा- प्रभो ! आपने भी इस बालक को दीर्घ आयु प्राप्त करने का वर दे दिया है और हमने भी इसे यह वर दिया है, किंतु आपके विधान के अनुसार हमारी तथा आपकी बात मिथ्या न हो वैसा उपाय करने की कृपा करें।
ब्रह्माजी मुस्करा उठे और बोले- मुनिवरो ! आपलोग चिन्तित न हों, इस बालकने अपने विनय एवं अभिवादन के बल पर कालको भी जीत लिया है। अतः यह बालक अब चिरंजीवी होगा और फिर मार्कण्डेयजी कल्पकल्पान्तजीवी हो गये। इस प्रकर 'प्रणाम' की बड़ी महिमा है। प्रणाम एक ऐसा अमोघ अस्त है जिसके प्रभाव से अनेक असंभव कार्य भी संभव हो जाते हैं। इसी संदर्भ में धर्मराज युधिष्ठिर के प्रणाम का वह प्रसंग उलिलखित है जिसने महाभारत युद्ध के परिणाम को बदल दिया घटना महाभारत के युद्धकाल की है। कौरवों और पांडवों की सेनाएं रणभूमि में परस्पर युद्ध के लिए तैयार खड़ी थीं। युद्ध प्रारंभ ही होने वाला था। तभी पांडवनरेश युधिष्ठर ने अपना मुकुट और कवच उतारकर रथ पर रख दिया और फिर अस्त्र शस्त्र त्याग कर वे नंगें पांव ही कौरव सेना की ओर चल पड़े।
उनकी यह चेष्टा किसी की समझ में नहीं आ रही थी। कौरव मन ही मन यह सोचकर अति प्रसन्न थे कि लगता है धर्मराज युधिष्ठिर उनकी सेना की विशालता को देखते हुए डरकर आत्मसमर्पण हेतु आ रहे हैं। पांडवनरेश के पीछे उनके चारों भाई भी थे और सबसे पीछे थे भगवान् श्रीकृष्ण, जो अन्तर्यामी होने के कारण धर्मराज युधिष्ठिर के मनकी बात जानते थे। किंतु धन्य है हमारी वैदिक संस्कृति और धन्य है हमारा शील, हमारा अनुशासन एवं गुरुजनों के प्रति हमारा आदरभाव ! तभी तो पांडवनरेश सर्वप्रथम गुरु द्रोणाचार्य के पास पहुंचे तथा उनके चरणों में अपना मस्तक टिकाकर बोले- 'गुरुदेव ! युधिष्ठिर आपको प्रणाम करता है और आपही के विरूद्ध आपसे युद्ध की अनुमति मांगता है।' यह देखकर गुरु द्रोण अति प्रसन्न हुए और बोले - 'बेटा ! तुम युद्ध करो। मेरा आशीर्वाद तुम्हारे साथ है। तुम्हारी विजय अवश्य होगी। यद्यपि यह सत्य है कि जब तक मेरे हाथ में अस्त्र है, तब तक मुझे कोई परास्त नहीं कर सकता, किंतु मैं अपने वध का उपाय तुम्हें स्वयं बताता हूं।
युद्ध के दौरान जब मुझे कोई दुःखद समाचार प्राप्त होगा तो सहज ही मेरे हाथ से अस्त्र छूट जाएगा। उस समय मुझ अस्त्रहीन को कोई भी मार सकता है।' इस प्रकार गुरु द्रोणाचार्य से विजय का आशीर्वाद प्राप्त कर पांडव श्रीकृष्णसहित अजेय भीष्मपितामह के पास पहुंचे। निकट पहुंचकर साष्टांग प्रणाम करने के बाद धर्मराज युधिष्ठर ने पितामह से कहा- 'दादाजी ! युधिष्ठिर आपसे आपही के विरुद्ध युद्ध करने के आज्ञा चाहता है।' जब क्रमसे भीम, अर्जुन, नकुल और सहदेव भी पितामह को प्रणाम कर चुके तो फिर महान् शूरवीर का स्वर गूंजा- 'बेटा! तेरी विजय हो।' इस पर युधिष्ठर ने प्रश्न किया- 'दादाजी ! मेरी विजय कैसे होगी? आप तो मेरे विरुद्ध हैं। स्वभाव से अति सरल और उदार दादाजी पुनः बोले- बेटा ! धर्मशास्त्र की मर्यादा के विरुद्ध यदि बड़ों का आशीर्वाद प्राप्त किये बिना तू युद्धरत हो जाता तो मैं तुझे शाप दे देता, जिससे निश्चय ही तेरी पराजय होती, किंतु अब मैं तुम पर अत्यंत प्रसन्न हूं।
तुम निश्चिन्त होकर युद्ध करो। तुम्हारी विजय होगी। हां, समय आने पर मैं स्वयं अपने पर विजय प्राप्त करने का उपाय तुझे बता दूंगा।' महाराज युधिष्ठिर शत्रुपक्ष के दूसरे बड़े दुर्ग को जीतकर आगे कुलगुरु श्रीकृपाचार्य की ओर बढ़े। उनके पास पहुंचकर युधिष्ठिर ने चारों भाइयों के साथ उन्हें भी प्रणाम किया और फिर उनसे उन्हीं के विरुद्ध युद्ध करने की अनुमति मांगी। इस पर कृपाचार्य प्रसन्न होकर बोले- 'मैं तुम्हें अपने विरुद्ध युद्ध करने की अनुमति देता हूं। राजन् ! यह सत्य है कि मुझे कोई मार नहीं सकता, लेकिन मैं तुम्हारे विनयपूर्ण व्यवहार से आज इतना प्रसन्न हूं कि मैं प्रतिदिन प्रातः उठकर सर्वप्रथम तुम्हारी ही विजय की मंगल कामना करूंगा जिससे निश्चय ही तुम्हारी विजय होगी।' श्रीकृपाचार्य का भी आशीर्वाद लेकर अंत में धर्मराज युधिष्ठिर कौरव पक्ष के चतुर्थ पराक्रमी योद्धा महाराज शल्य के पास गये। यहां उल्लेखनीय हैं कि महाराज शल्य पांडवों के मामा थे तथा वे पांडवों की ओर से युद्ध करने के लिये आ रहे थे, किंतु इसी बीच दुर्योधन ने एक नयी राजनीतिक चाल चली।
उसने मार्ग में कई पड़ाव (शिविर) बनवाये और प्रत्येक पड़ावपर सुंदर आवास और उत्तम भोजन की व्यवस्था कर दी। सभी स्थानों पर उत्कृष्ट व्यवस्था का पूर्ण उपभोग करते हुए जब महाराज शल्य अंतिम पड़ाव पर पहुंचे तो वहां दुर्योधन ने स्वयं महाराज शल्य का स्वागत किया और पूछ- 'मामाजी ! मार्ग में कोई कष्ट तो नहीं हुआ?' मद्रराज यह सुनकर स्तब्ध-से-रह गये और पूछ बैठे- 'दुर्योधन ! क्या मार्ग की सारी व्यवस्था तुम्हारी ही थी?' दुर्योधन ने इस प्रश्न का बड़ी ही चतुराई से उत्तर दिया। दुर्योधन ने कहा- 'मामाजी ! सब आपही का तो था, किंतु यह बताइये कि रास्ते में आपको कोई असुविधा तो नहीं हुई?' महाराज शल्य अपनी समस्त सेना के साथ चूंकि दुर्योधन का नमक खा चुके थे, इसलिये इतना तो तय था कि अब वे कौरवों की ओर से ही युद्ध करेंगे।
तथापि जब धर्मराज युधिष्ठिर ने अपने चारों भाइयों के साथ महाराज शल्य के पास पहुंचकर उन्हें प्रणाम किया तो महाराज शल्य बोले- 'युधिष्ठिर ! मैं तो तुम्हारे पक्ष में ही युद्ध करने के लिये आ रहा था, लेकिन खेद है कि मार्ग में दुर्योधन की चाल में आ गया। फिर भी मेरी सारी शुभाशंसा अब भी तुम्हारे साथ है। अतः अब मैं तुम्हारी केवल इस रूप में मदद करूंगा कि जब महारथी कर्ण का अर्जुन से युद्ध होने को होगा, तब कौरवदल में मेरे अतिरिक्त श्रीकृष्ण के समक्ष रथ का संचालन करने वाला कोई और शूरवीर नहीं होगा। अतः उस समय कौरव विवश होकर मेरे पास आयेंगे और फिर से कर्ण के रथ का संचालन केवल इस शर्त पर स्वीकार करूंगा कि युद्ध के दौरान मैं जो कुछ भी कहूं, कर्ण उसे चुपचाप सुनता रहे। उसका न तो वह प्रतिपाद करे और न कोई उत्तर ही दे। यदि उसने उत्तर दिया तो फिर मैं रथ का संचालन छोड़ दूंगा।
कौरवों के सामने और कोई विकल्प न होने के कारण उन्हें मेरी यह शर्त स्वीकार करनही हो होगी। तदनन्तर में युद्ध के बीच कर्ण को अपने वाक्-बाणों से इतना विदग्ध कर दूंगा कि वह क्रुद्ध होकर तपहीन और अंत में युद्ध के अयोग्य हो जाएगा। तभी शांत और धीर अर्जुन अवसर पाकर उस पर विजय प्राप्त कर लेंगे।' इस प्रकार कौरवपक्ष के चारों शूरवीरों से आशीर्वाद प्राप्त कर लेने के बाद पांचों भाई और श्रीकृष्ण पुनः अपने-अपने रथ पर जाकर आरूढ़ हो गये तथा फिर प्रारंभ हुआ महाभारत का महासंग्राम। कौन नहीं जानता कि अठारह दिनों के भीषण युद्ध के बाद अंततोगत्वा विजय पांडवों की ही हुई। यह प्रणाम का ही चमत्कार था। स्वयं मर्यादापुरुषोत्तम भगवान् श्री राम मिथिलापति जनकजी आदि का प्रणाम भी अनुकरणीय है। यथा-
1. प्रातःकाल उठि कै रघुनाथा। मातु पिता गुरु नावहिं माथा॥ (माता-पिता गुरुदेव को प्रणाम) राम का
2. सुनि गुरु वचन चरन सिरू नावा। (विश्वमित्र जी के चरणों में प्रणाम की राम का)
3. कीन्हू प्रनामु चरन धरि माथा। दीन्ह असीस मुदित मुनिनाथा॥ (मिथिलापति जनकजी का महामुनि विश्वामित्र जी के श्री चरणों में प्रणाम)
4. बंदि विप्र सुर गुर पिता माता॥ पाई असीमस मुदित सब भ्राता॥
(ब्राह्मणों, देवताओं, गुरु, पिता और माताओं की वन्दना करके रघुवंश शिरोमणि राम ने शत्रुओं सहित आशीर्वाद प्रदान किया।) कहने का तात्पर्य यह है कि श्री रामचरित मानस ही क्या, अपितु हमारी वैदिक संस्कृति के सभी ग्रंथों में प्रणाम, वंदन की परम्परा का दिर्गदर्शन होता है, जो हमें इहलोकिक व पारलोकिक सुखों को प्रदान कर सर्वान्तयपर्सी श्री हरि के श्री चरणों की अलौकिक व दिव्य भक्ति प्रदान करता है।
अतः हम सभी को इस प्रणाम की परम्परा को अपने जीवन में अपनाकर कल्याणकारी मार्ग पर को प्रशस्त करना चाहिए। यही मानव जीवन का परम लक्ष्य है।