श्रेष्ठतम ज्योतिषी बनने के ग्रह योग
श्रेष्ठतम ज्योतिषी बनने के ग्रह योग

श्रेष्ठतम ज्योतिषी बनने के ग्रह योग  

यशकरन शर्मा
व्यूस : 16280 | जून 2014

सृष्टि के रचयिता के अतिरिक्त किसी भी व्यक्ति में यह बताने का पूर्ण सामथ्र्य नहीं हो सकता कि भविष्य में क्या घटित होने वाला है। परन्तु यदि ऐसी कोई विद्या है जिसकी सहायता से भविष्य में घटने वाली घटनाओं का पूर्वानुमान लगाया जा सकता है तो वह वास्तव में ही मनुष्य के लिए अत्यन्त लाभकारी हो सकती है क्योंकि यदि आने वाली घटनाओं का कुछ पूर्वानुमान हो तो हम अपने आपको परिस्थितियों का सामना करने के लिए तैयार कर लेते हैं। आदि काल से ही इस प्रकार की विद्याओं को विकसित करने के लिए मानव अनुसंधान करता रहा है। पराविद्या ‘ज्योतिष’ के इसी महत्व के कारण इसे (ज्योतिषं वेदानां चक्षुः) अर्थात् वेदों का चक्षु कहा गया है।


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सांसारिक व्यवहार की विद्या अर्थात् अपरा विद्या में निष्णात् होना भी सरल कार्य नहीं होता। ज्योतिष तो पराविद्या है जिसका सम्बन्ध लोक, परलोक, आत्मा, परमात्मा, जन्म-मृत्यु, पुण्य-पाप, कर्म-विकर्म, भाग्य-दुर्भाग्य, सुख-दुख इत्यादि विषयों के विष्लेषण से है इसलिए ज्योतिष शास्त्र का केवल अध्ययन मात्र कर लेने से कोई ज्योतिषी नहीं बन जाता अपितु इसके लिए जातक को परम बुद्धिमान, गणना करने में कुषल, अन्तर्प्रज्ञा व श्रेष्ठ स्तरीय कल्पना शक्ति सम्पन्न होना चाहिए। ऐसे कौन से ग्रह योग होते हैं जिनके कारण जातक कुषल भविष्यवक्ता बन सकता है उन सबका संक्षिप्त विवरण इस प्रकार है

- ज्योतिष का श्रेष्ठ स्तरीय ज्ञान होने की स्थिति में भी ज्योतिषियों की भविष्यवाणियां विफल होती रही हैं इसलिए यह बात सही है कि ज्योतिष का ज्ञान सटीक भविष्य कथन के लिए काफी नहीं है अपितु उत्तम अन्तप्र्रज्ञा शक्ति (प्दजनपजपवद), कल्पना शक्ति व मानस दर्षन शक्ति (टपेनंसप्रंजपवद) भी आवष्यक है। जन्मकुण्डली में इनके कारक चन्द्रमा व केतु माने गये हैं यही कारण है कि ज्योतिष शास्त्र के रचयिता महर्षि पराषर ने चन्द्रमा को ज्योतिष विद्या का कारक ग्रह माना। क्योंकि नवम् भाव को पराविद्याओं की जननी अर्थात अध्यात्म विद्या का कारक भाव माना गया है इसलिए देखने में ऐसा आया है कि नवम् भाव में चन्द्रमा विराजमान होने की स्थिति में जातक कुषाग्र बुद्धि (हमदपने) व अन्तप्र्रज्ञा सम्पन्न श्रेष्ठ ज्योतिषी होता है। मानव मनन से आगे बढ़ता है और शनि व्यक्ति को सर्वाधिक मननषील बनाता है।

इसलिए ऐसा देखा गया है कि शनि से प्रभावित व्यक्ति गंभीर व गूढ़ विषयों को समझने की विषेष क्षमता रखता है और निरन्तर अपने लक्ष्य की ओर उन्नतिषील भी रहता है। इसी कारण लग्न में बैठा हुआ शनि जातक को कई बार एक उच्च कोटि का तान्त्रिक या ज्योतिषी बना देता है। यदि शनि का लग्न, लग्नेष, चन्द्रमा, चतुर्थेष व गुरु पर प्रभाव पड़े तो जातक श्रेष्ठ ज्योतिषी बनता है।

कुण्डली में द्वितीय भाव सरस्वती कृपा का भाव है इसलिए इस भाव के कारक गुरु व वाणी के कारक बुध के अतिरिक्त यदि द्वितीयेष व द्वितीय भाव ये सभी बलवान हों तथा इन पर किसी भी पाप ग्रह का प्रभाव न हो तो जातक की वाणी से कही हुई बातें सत्य सिद्ध होती हैं। यदि ज्योतिषी सुबह से शाम हर समय झूठ बोले, पूजा पाठ व सात्विक आचरण से दूर रहे तथा मांस मदिरा का सेवन करे तो उसकी भविष्यवाणी में सत्यता नहीं हो सकती। जन्म पत्री का अवलोकन करने के पश्चात् तुरन्त गणना करके शीघ्र निर्णय लेकर त्वरित भविष्यवाणी करने के लिए गणित व निर्णय शक्ति के कारक बुध का बलवान होना भी अति आवष्यक है।

गुरु व बुध की युति या इनका स्थान परिवर्तन योग इस प्रकार की योग्यता से सम्पन्न होने के लिए श्रेष्ठ होता है। इसके अतिरिक्त यदि बुध धनु या मीन अर्थात् गुरु की राषियों में स्थित हो तथा गुरु स्वयं केन्द्र मंे स्थित हो तो भी उत्तम है। ज्योतिष शास्त्र के अनुसार बृहस्पति को समस्त पराविद्याओं का गुरु माना गया है तथा नवम् भाव को उच्च षिक्षा व अध्यात्म विद्या का कारक भाव माना गया है।

चन्द्रमा अध्यात्म का कारक ग्रह है, नवम भाव अध्यात्म का कारक भाव है तथा बृहस्पति नवम् भाव का कारक होने के अतिरिक्त वाणी व बुद्धि भाव का कारक तो है ही साथ ही अध्यात्म विद्या का आचार्य (ज्मंबीमत व ि ैचपतपजनंसप्रउ) भी है। पराविद्याओं में पारंगत होने के लिए गुरु का नवम भाव में गजकेसरी योग श्रेष्ठतम योग माना जायेगा। गुरु ग्रह के बल की जमीन चन्द्रमा के पास है। इसलिए चन्द्रमा की राषि में गुरु उच्चराषिस्थ होता है तथा चन्द्रमा से केन्द्र में होने की स्थिति में गजकेसरी योग सम्पन्न हो जाता है।

परन्तु कर्क राषि या चन्द्रमा के पीड़ित होने की स्थिति में गुरु ग्रह का श्रेष्ठ फल प्राप्त नहीं किया जा सकता। अच्छा ज्योतिषी बनने के लिए गुरु ग्रह के श्रेष्ठ फल की आवष्यकता तो होती ही है साथ ही अन्तप्र्रज्ञा के कारक चन्द्रमा को भी शुभ होना ही चाहिए। इसलिए कुषल ज्योतिषी की कुण्डली में गुरु चन्द्र दोनों ही बली पाये जाते हैं। यही कारण है कि सफलतम ज्योतिषियों की कुण्डलियों में गुरु अधिकतर नवमस्थ होता है अथवा गुरु केन्द्रस्थ व चन्द्रमा नवमस्थ होता है या गुरु-बुध की युति या स्थान परिवर्तन व चन्द्रमा नवमस्थ होता है या बुध धनु या मीन राषिस्थ, गुरु केन्द्रस्थ व चन्द्रमा नवमस्थ होता है।

कुछ अन्य योग जैमिनी ऋषि के मतानुसार पंचम भाव का केतु जातक को विषेष बुद्धिमान व श्रेष्ठ ज्योतिषी बनाता है। कुण्डली में 3, 6, 8 व 12 भावों को गुप्त भावों की संज्ञा दी गई है। अष्टम व द्वादष को पराविद्याओं, गुप्त विद्याओं व ज्योतिष आदि का विषेष कारक भाव माना जाता है। लग्न को कुण्डली का केन्द्र बिन्दु माना गया है। लग्न भाव का जिस भाव से विषेष सम्बन्ध स्थापित हो जाता है उसी भाव से सम्बन्धित विषय में जातक को विषेष रुचि होती है। इसके अतिरिक्त पंचमेष व भाग्येष भी रुचि निर्धारण में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं।

लग्न से जातक की रुचि व स्वभाव, पंचम से बुद्धि तथा नवम् से प्रवृत्ति का विचार किया जाता है। अष्टम भाव को भी गुप्त विद्याओं जैसे ज्योतिष, तन्त्र व गुप्त शक्ति का कारक भाव माना जाता है। इसलिए अष्टम भाव के बली होने, अष्टम भाव पर अधिकतर ग्रहों का प्रभाव होने या अष्टमेष के लग्नस्थ होने की स्थिति में भी जातक श्रेष्ठ ज्योतिषी बनता हुआ देखा गया है। लग्नेष का अष्टमस्थ होना भी उपरोेक्त फल देता है। पंचमेष व भाग्येष का अष्टमस्थ होना भी ऐसा ही प्रभाव दर्षाता है। पंचमेष का द्वादषस्थ होना श्रेष्ठ ज्यातिर्विद बनाता है (क्योंकि बारहवां घर पंचम से अष्टम होता है)।

यदि पंचमेष चतुस्र्थस्थ हो (क्योंकि पंचम भाव चैथे से द्वादषस्थ होता है)। यदि द्वादषेष पंचमस्थ हो या पंचम भाव को देखता हो या पंचमेष से किसी प्रकार का सम्बन्ध स्थापित करता हो। यदि दषमेष पंचमस्थ हो (क्योंकि पंचम भाव दषम से अष्टम होता है)। चतुर्थेष पंचम भाव में स्थित हो या पंचम भाव को देखे अथवा पंचमेष से किसी प्रकार का सम्बन्ध स्थापित करे तो भी कुषल ज्योतिषी होता है।

यदि लग्नाधिपति द्वादषस्थ हो या द्वादषेष लग्न में बैठे या लग्न को देखे अथवा लग्नेष से किसी प्रकार का सम्बन्ध स्थापित करे। दषमेष नवम् भाव में अर्थात अपने से द्वादषस्थ स्थित हो। ज्योतिर्विद योगः- बलवान बुध और गुरु केन्द्र में होते हैं और द्वितीय स्थान में शुक्र व तृतीय स्थान में शुभ ग्रह होता है तो ज्योतिर्विद योग होता है। ऐसा व्यक्ति विद्वान ज्योतिषी बनता है। त्रिकालज्ञ योग:- यदि चारों केन्द्रों व सभी त्रिकोणों के स्वामियों की त्रिकोण भाव में युति हो तो जातक विख्यात व विषेष बुद्धिमान तथा कुषल भविष्य वक्ता होता है।

चतुर्थेष पंचम भाव में स्थित हो या पंचम भाव को देखे अथवा पंचमेष से किसी प्रकार का सम्बन्ध स्थापित करे तो भी कुषल ज्योतिषी होता है। यदि लग्नाधिपति द्वादषस्थ हो या द्वादषेष लग्न में बैठे या लग्न को देखे अथवा लग्नेष से किसी प्रकार का सम्बन्ध स्थापित करे। दषमेष नवम् भाव में अर्थात अपने से द्वादषस्थ स्थित हो। ज्योतिर्विद योगः- बलवान बुध और गुरु केन्द्र में होते हैं और द्वितीय स्थान में शुक्र व तृतीय स्थान में शुभ ग्रह होता है तो ज्योतिर्विद योग होता है। ऐसा व्यक्ति विद्वान ज्योतिषी बनता है। त्रिकालज्ञ योग:- यदि चारों केन्द्रों व सभी त्रिकोणों के स्वामियों की त्रिकोण भाव में युति हो तो जातक विख्यात व विषेष बुद्धिमान तथा कुषल भविष्य वक्ता होता है।

विख्यात ज्योतिषियों की कुंडलियां श्री बी. सूर्यनारायण राव 13.02.1856, 12:32, चिक्काआदुगोदी लग्नेष व चन्द्रलग्नेष पर शनि की दृष्टि है तथा चतुर्थेष व गुरु शनि राषिस्थ हैं। इस कुण्डली में दषम भाव में सूर्य, बुध व गुरु ने इन्हें भारत में ज्योतिष षिरोमणि बनाया। अष्टमेष गुरु व द्वितीयेश बुध की युति ज्योतिर्विद के लिए श्रेष्ठ होती ही है परन्तु इसमें द्वितीयेष व दषमेष का स्थान परिवर्तन योग भी विषेष प्रभावषाली रहा। लग्नेष अष्टमस्थ, चंद्रमा उच्चराशिस्थ व अष्टमेश गुरु का गजकेसरी योग आदि ये सभी योग गुप्त पराविद्या ज्योतिष में विशेष ज्ञानार्जन करने के लिए शुभ योग हैं। श्री बी. वी. रमन 08.08.1912, 19:40, बंगलूर इनकी कुण्डली में शनि का लग्न चतुर्थ भाव, चन्द्रमा व गुरु इन सभी पर प्रभाव पड़ रहा है जिसके फलस्वरूप ये गम्भीर चिन्तक व श्रेष्ठ ज्योतिर्विद बने।

अपने दादा श्री बी. सूर्य नारायण राव का नाम और ऊँचा किया तथा अपने प्रयासों से आधुनिक युग में ज्योतिष को सर्वमान्य बनाया। इनकी कुण्डली में लग्नेष व अन्य सभी शुभ ग्रह केन्द्रों में हैं तथा चन्द्रमा उच्चराषिस्थ व गुरु गजकेसरी योग बना रहा है। प्रो. के. एस. कृष्णमूर्ति इस कुण्डली में चन्द्र लग्नेष शनि का लग्न व चतुर्थ भाव पर पूर्ण प्रभाव है 01.11.1908, 11:00, मद्रास व गुरु नवमस्थ है। श्रेष्ठ ज्योतिर्विदों की कुण्डलियों में गुरु अधिकतर नवमस्थ ही होता है।


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लग्नेष गुरु है जबकि चन्द्रलग्नेष व द्वितीयेष भी गुरु की ही राषि में स्थित हैं। नवांष में गुरु व बुध का स्थान परिवर्तन योग है। प्रो. के.एस. कृष्णमूर्ति ने कृष्णमूर्ति पद्धति लिखकर विषेष ख्याति प्राप्त की। श्री अरुण बंसल 13.12.1956, 23:10, दिल्ली अखिल भारतीय ज्योतिष संस्था संघ के अध्यक्ष व लियो स्टार ज्योतिषीय साॅफ्टवेयर के निर्माता श्री अरुण बंसल जी अपनी सटीक भविष्यवाणियों के लिए प्रख्यात हैं।

श्री बंसल जी की कुण्डली में भी शनि का लग्न, लग्नेष व चतुर्थ भाव पर पूर्ण प्रभाव है। गुरु व बुध का स्थान परिवर्तन योग व चन्द्रमा नवमस्थ है। इसलिए यह कुषल गणितज्ञ, अन्तप्र्रज्ञा तथा वैज्ञानिक दृष्टिकोण सम्पन्न ज्योतिर्विद हैं। श्री के. एन. राव 12.10.1931, 07:55, मछलीपट्टनम श्री राव जी को आधुनिक भारत में ज्योतिष गुरु के नाम से जाना जाता है। गजकेसरी व हंसयोग युक्त दषमस्थ गुरु, उच्चराषिस्थ बुध, अष्टमेष की लग्न में स्थिति, लग्नेष, द्वितीयेष व दषमेष की लग्न में युति तथा चतुर्थेष व पंचमेष शनि की गुरु की राषि में उपस्थिति ने इन्हें ज्योतिष गुरु होने का गौरव दिलाया।

डाॅ. सुरेश आत्रेय 08.10.1958, 02:30, जिन्द डा. सुरेष आत्रेय जी की कुण्डली में द्वितीयेष, तृतीयेष व चतुर्थेष की युति तथा बुध के उच्चराषिस्थ होने व चतुर्थ भाव में नवमेष गुरु के गजकेसरी योग से युक्त होने के परिणामस्वरूप श्री आत्रेय जी ज्योतिष समाज में आदरणीय हैं। निष्कर्षतः सफल भविष्यवक्ता बनने हेतु जन्मकुंडली में चंद्रमा, बुध, गुरु के अतिरिक्त द्वितीय व अष्टम भाव का शुभ होना तो आवश्यक है ही साथ ही जातक के गंभीर व चिंतनशील होने के लिए लग्न भाव पर शनि का प्रभाव होना भी वांछित है।

भविष्यवक्ता को सात्विक आचरणशील, सत्य वक्ता व ईश्वर में आस्थावान होने के अतिरिक्त विनयशील होना चाहिए जिससे उसकी अंतर्प्रज्ञा शक्ति जागृत हो जाये व उसकी वाणी में मां सरस्वती का निवास हो सके।



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