समावर्तन का तात्पर्य है वापिस लौटना। गुरु के पास रहकर पूर्ण ब्रह्मचर्य का पालन करते हुए स्नातक अपने पूज्य गुरु की आज्ञा प्राप्त करके वापिस अपने घर लौटता है। यह समावर्तन संस्कार व्यक्ति का विद्याध्ययन पूर्ण करके वापिस अपने घर लौटने पर संपन्न किया जाता था। इसके पश्चात ही व्यक्ति गृहस्थ जीवन में प्रवेश पाने का अधिकारी हो पाता था। दूसरे शब्दों में समावर्तन संस्कार को विवाह आदि करके घर बसाने का फल माना जा सकता है। वर्तमान में तो इस संस्कार को संपन्न करने का विधान प्रायः कम ही होता जा रहा है किंतु पहले इस संस्कार को भी पूरे विधि-विधान के साथ संपन्न किया जाता था।
इसमें वेद मंत्रों से अभिमंत्रित जल से भरे आठ कलशों से विशेष विधि से ब्रह्मचारी स्नातक को स्नान करवाया जाता था। इस कारण इसे वेद स्नान संस्कार भी कहा जाता है। आजकल तो समावर्तन संस्कार संपन्न करने की अधिकांश लोगों को विधि-विधान की भी जानकारी नहीं है। आश्वालपन स्मृति के 14वें अध्याय में समावर्तन संस्कार संपन्न करने के पांच प्रामाणिक श्लोक मिलते हैं। इन श्लोकों से स्पष्ट होता है कि समावर्तन संस्कार के पश्चात ही वह ब्रह्मचारी वेद विद्याव्रत स्नातक माना जाता है। प्राचीनकाल में ऐसे ब्रह्मचारी स्नातक को अग्नि स्थापन, परिसमूह तथा पर्युक्षण आदि अग्नि संस्कार कर ऋग्वेद के दसवें मंडल के 128वें सूक्त की समस्त नौ ऋचाओं से समिधा का हवन करना पड़ता था। इसके पश्चात् गुरु दक्षिणा देकर गुरु के चरणों का स्मरण कर उनकी आज्ञा से अग्रांकित मंत्र द्वारा वरुण देव से मौजी मेखला आदि के त्याग की कामना करते हुये प्रार्थना की जाती है।
उदुत्तमं मुमुग्धि नो वि पाशं मध्यमं चृत। अवाधमानि जीवसे। इश श्लोक का भावार्थ है- हे वरुणदेव, आप हमारे कटि एवं उघ्र्व भाग के मौजी उपवीत एवं मेखला को हटाकर सूत की मेखला तथा उपवीत पहनने की आज्ञा प्रदान करें एवं आगे वाले जीवन में किसी प्रकार की बाधायें नहीं आयें, इसका विधान करें। विद्याध्ययन की संपूर्ण अवधि में व्यक्ति को अपने गुरु के सान्निध्य में रहना होता है। समय-समय पर गुरु का मार्गदर्शन प्राप्त होता रहता है। इसलिए एक व्यक्ति के समक्ष इस समय किसी भी प्रकार की समस्या या तो उत्पन्न नहीं होती और अगर होती है तो गुरु के द्वारा उसका समाधान हो जाता है किंतु इसके पश्चात् व्यक्ति जब गृहस्थ जीवन में प्रवेश करता है तो उसे सभी प्रकार की समस्याओं का सामना स्वयं को ही करना पड़ता है और समाधान भी उसी को तलाश करना पड़ता है।
इस स्थिति को गुरु भली प्रकार से समझते थे इसलिये ब्रह्मचारी स्नातक को गुरु आश्रम छोड़ने से पूर्व लोक-परलोक हितकारी एवं जीवनोपयोगी शिक्षा देते थे। यह शिक्षा उसके संपूर्ण जीवनकाल को प्रभावित करती थी। इस शिक्षा को जीवन में उतार कर व्यक्ति अपना संपूर्ण जीवन सफलतापूर्वक व्यतीत कर पाने में सफल होता था।
यह शिक्षा मूल रूप से इस प्रकार होती थी- हमेशा सत्य बोलना, माता-पिता, आचार्य एवं अतिथि को देवताओं के समान मानना, संतान के दायित्वों का पूरी तरह से पालन करना, धर्म का पालन करना, श्रम का सम्मान करना, दूसरों के हित में योगदान देना, स्वाध्याय एवं प्रवचनों का सम्मान करना, निंदित कर्मों से बचना, अधर्म से प्राप्त धन का मोह नहीं करना, शुभ आचरणों का पालन करना, श्रद्धापूर्वक दान देना आदि।
यह ऐसी शिक्षा अथवा गुरु उपदेश थे, जो उस समय भी अपना पूरा महत्त्व रखते थे और आज भी इनका उतना ही महत्त्व बना हुआ है। अंतर केवल इतना हुआ है कि तब व्यक्ति इन गुरुवचनों को सुनकर इन्हें अपने जीवन में उतारने का प्रयास करता था और आज इनकी उपेक्षा हो रही है।