शक्षा के महत्व को प्रारंभ से ही स्वीकार किया गया है। शिक्षित व्यक्ति ही स्वयं का विकास करने के साथ-साथ समाज और देश के विकास में भी सहयोग कर सकता है। शिक्षा सभी व्यक्तियों के लिये आवश्यक मानी गई है। वर्तमान में शिक्षा के महत्त्व को भली प्रकार से समझा जा सकता है किंतु प्राचीनकाल में भी शिक्षा के महत्त्व को भली प्रकार से स्वीकार किया गया था। हमारे विद्वान ऋषि-महर्षियों ने अधिकाधिक व्यक्तियों को शिक्षित होने पर बल दिया था। यही कारण है कि शिक्षा को अत्यंत आवश्यक मानते हुये इसे सोलह संस्कारों में स्थान दिया गया है। तब शिक्षा का स्वरूप भिन्न था।
उस समय व्यावसायिक क्षेत्र में आगे बढ़ने के लिये नहीं अपितु वेदों तथा अन्य धर्मग्रंथों के अध्ययन के लिये शिक्षा को आवश्यक माना गया था। वास्तव में इस संस्कार को विद्यारंभ संस्कार माना जाना चाहिये क्योंकि विद्या प्राप्ति के पश्चात ही व्यक्ति वेदों अथवा अन्य धर्मग्रंथों का अध्ययन करने में सक्षम हो पाता था। तब शिक्षा का महत्त्व वेदाध्ययन की दृष्टि से अधिक था। इस कारण इस संस्कार को विद्यारंभ संस्कार अथवा वेदारंभ संस्कार के रूप में जाना जाता है। वेदों तथा अन्य धर्मग्रंथों के अध्ययन से हमें इनके बारे में पूर्ण जानकारी प्राप्त होती थी। इस दृष्टि से इसे वेदारंभ संस्कार के नाम से ही अधिक जाना गया है।
वेदाध्ययन के महत्त्व को इस प्रकार से व्यक्त किया गया है। विद्यया लुप्यते पापं विद्यायाऽयुः प्रवर्धते। विद्याया सर्वसिद्धिः स्याद्विद्ययाऽमृतमश्रुते।। अर्थात वेद विद्या के अध्ययन से सारे पापों का लोप होता है अर्थात् पाप समाप्त हो जाते हैं, आयु की वृद्धि होती है, समस्त सिद्धियां प्राप्त होती हैं, यहां तक कि उसके समक्ष अमृत-रस अक्षनपान के रूप में उपलब्ध हो जाता है। अनेक विद्वान वेदारंभ संस्कार को अक्षरज्ञान संस्कार के साथ जोड़कर देखते हैं। उनके अनुसार अक्षरों का ज्ञान प्राप्त किये बिना न तो वेदों का अध्ययन किया जा सकता है और न शास्त्रों का लेखन कार्य संभव है। इसलिये वे वेदारंभ संस्कार से पूर्व अक्षरारंभ संस्कार पर बल देते हैं। इस बारे में अनेक विद्वानों का विचार है कि प्रारंभ में तो व्यक्ति को अक्षर (लिपि) का ज्ञान नहीं था।
इसलिये तब गुरुमुख द्वारा ही वेदों का अध्ययन किया जाता था। इसके पश्चात धीरे-धीरे व्यक्ति ने लिपि का ज्ञान प्राप्त करना प्रारंभ किया और कालांतर में इसमें विकास होता चला गया। विद्वानों के मतानुसार भगवान बुद्ध के समय में अनेक लिपियां प्रचलित थीं और मनुष्य को लिपि का अच्छा ज्ञान प्राप्त था। भगवान श्रीकृष्ण ने श्रीमद्भागवत गीता में लिखे अक्षरों को श्रेष्ठ माना है। ऐसा माना जाता है कि वेदों का सारभूत एकाक्षर ऊँ प्रथम अक्षर था जिससे सबसे पहले मनुष्य का परिचय हुआ। ऊँ अक्षर मंत्र न होकर इसमें बहुत अधिक व्यापकता का संचार दिखाई देता है। ऊँ का उच्चारण मात्र करने से ध्वनियों के स्पंदन का अनुभव होता है।
महाभारत के लेखन का काम प्रथम देव श्रीगणेश द्वारा संपूर्ण हुआ था। तांत्रिकों द्वारा अक्षरों की पूजा की जाती है। इसलिये विद्याध्ययन के लिये अक्षर का ज्ञान होना अत्यंत आवश्यक है।