हाल ही में जन्माष्टमी 1 व 2 सितंबर को मनाई गई। वृन्दावन व अनेक मंदिरों में 1 सितंबर को व मथुरा, बिड़ला मन्दिर आदि में 2 सितंबर को। सरकारी छुट्टी भी 2 सितंबर को थी अतः अधिकांश लोगों ने भी इसी दिन यह पर्व मनाया। लेकिन यदि निर्णय सिंधु आदि धर्म शास्त्रों को देखें जिनमें पर्व सुनिश्चित करने के नियम विस्तार से दिए गए हैं तो यह पर्व 1 सितंबर को ही मनाना धर्मोचित था। इस प्रकार का अंतर अक्सर सांय व रात्रि विद्धा तिथि वाले पर्वों में देखा जा सकता है जैसे शिवरात्रि, होली, जन्माष्टमी, धनतेरस, नरक चतुर्दशी व दीपावली इत्यादि।
जन्माष्टमी व दीपावली में यह संदेह अक्सर देखा जाता है क्योंकि दोनों ही मध्य रात्रिकालीन पर्व हैं। प्रातःकाल एक तिथि होती है तो प्रायः रात्रि में दूसरी तिथि होती है। यही संशय का कारण बनता है। पुनः जिस दिन सरकारी छुटी हो तो वह मुख्य कारण बन जाता है पर्व के उस दिन मनाने का। देखा गया है कि सरकार कैलेण्डर बनाते समय अधिक तवज्जो नहीं देती और यह कारण हो जाता है हिंदू त्योहारों में अनियमितताओं का।
आइए देखते हैं कि धर्म शास्त्र का जन्माष्टमी के लिए क्या मत है और वास्तव में यह पर्व किस दिन अर्थात् 1 या 2 सितंबर को मनाना चाहिए था? निर्णय सिंधु के अनुसार -
- कृष्णाष्टमी दो प्रकार की होती हैं - जन्माष्टमी और जयंती। व्रत कृष्णाष्टमी को करना चाहिए।
- दिन व रात्रि के समय यदि रोहिणी नक्षत्र जरा भी न हो तो चंद्रोदय के समय रात के समय की अष्टमी को जन्माष्टमी मनाना चाहिए। केवल अष्टमी को ही व्रत करना चाहिए।
- यदि भाद्रपद की कृष्ण पक्ष की अष्टमी रोहिणी नक्षत्र से युक्त हो तो वह जयंती कहलाती है। रोहिणी नक्षत्र का योग रात और दिन दोनों में हो तो श्रेष्ठ, केवल अर्द्धरात्रि में हो तो मध्यम और केवल दिन में हो तो अधम माना जाता है।
- यदि अष्टमी और रोहिणी का योग पूर्ण अहोरात्रि में न भी हो तथा थोड़ा सा समय भी अहोरात्रि का हो तो उसी दिन जन्माष्टमी का व्रत करना चाहिए।
- अर्धरात्रि के समय ही रोहिणी योग में जयंती होती है। किसी और तरह से नहीं होती।
- पहले और अगले दिन यदि रोहिणी नक्षत्र का योग हो जाये तो जन्माष्टमी भी जयंती के बीच में आ जाती है तब जन्माष्टमी का व्रत अलग से नहीं करना होता।
- आधी रात के समय यदि अष्टमी हो जाये तो उसमें श्री कृष्ण का पूजन करने से तीन जन्म के पाप दूर होते हैं। पहले दिन अर्धरात्रि में योग न हो तो अगले दिन उसकी स्तुति के निमित्त है।
- इस व्रत में आधी रात का वेध ही ग्रहण करना चाहिए क्योंकि वही समय मुख्य कहा गया है। माधवीय में लिखा है कि अष्टमी और शिवरात्री आधी रात से पहले घड़ी भर भी हो तो लेना चाहिए। भविष्यपुराण में लिखा है कि कृष्ण पक्ष की अष्टमी को आधी रात के समय रोहिणी नक्षत्र में श्री कृष्ण का पूजन करने से तीन जन्म के पाप दूर होते हैं। वशिष्ठ संहिता में लिखा है कि आधी रात को रोहिणीयुक्त अष्टमी ही मुख्य समय है क्योंकि स्वयं भगवान उसमें प्रगट हुए थे।
- अष्टमी दो प्रकार की होती है। पण् रोहिणी रहित पपण् रोहिणी युक्त
रोहिणी रहित अष्टमी चार प्रकार की होती है -
पहले दिन जो आधी रात में हो, अगले दिन आधी रात में हो, दोनों दिन आधी रात में हो 4. दोनों दिन आधी रात में न हो इन चारों में से पहली दोनों में कर्मकाल व्यापिनी लेनी चाहिए क्योंकि भृगु ने लिखा है कि जन्माष्टमी, रोहिणी तथा शिवरात्रि पूर्व तिथि से विद्धा (प्रारंभ) ही लेनी चाहिए। अगली दोनों में अगली तिथि ही लेनी चाहिए, क्योंकि उसमें प्रातःकाल संकल्प काल व्यापिनी होती है।
रोहिणी युक्त अष्टमी भी चार प्रकार की होती है
- पहले दिन आधी रात में रोहिणी से युक्त हो
- अगले दिन आधी रात में रोहिणी से युक्त हो
- दोनों दिन आधी रात में रोहिणी से युक्त हो 4. दोनों दिन आधी रात में रोहिणी से युक्त न हो
पद्मपुराण व गरूड़ पुराण के अनुसार सप्तमी रोहिणी युक्त विद्धा जन्माष्टमी में ही व्रत करना चाहिए। वह्निपुराण के अनुसार सप्तमीयुक्त अष्टमी को यदि आधी रात में रोहिणी हो तो वह अष्टमी तब तक पवित्र है जब तक सूर्य चंद्रमा हैं। अतः पहले व दूसरे पक्ष में पहले व दूसरे दिन मनानी चाहिए। अर्थात अष्टमी के आधार पर पर्व मनाना चाहिए। तीसरे पक्ष में अगले दिन लेनी चाहिए। चैथे पक्ष में अष्टमी तीन प्रकार की होती है।
- पहले दिन से आधी रात में अष्टमी और अगले दिन रोहिणी नक्षत्र
- अगले दिन अष्टमी और पहले दिन रोहिणी नक्षत्र
- दोनों दिन अष्टमी और रोहिणी नक्षत्र लेकिन आधी रात में नहीं।
प्रथम पक्ष में अगले दिन जयंती योग होने के कारण अष्टमी अगले दिन ही मनानी चाहिए। द्वितीय व तृतीय पक्ष दोनों में भी दूसरे दिन अष्टमी व्रत करना चाहिए। मथुरा में 1 सितंबर को सूर्योदय 5ः58 बजे व सूर्यास्त 18ः38 बजे हुआ। 1 सितंबर को सप्तमी प्रातः 10ः50 बजे समाप्त हुई व अष्टमी प्रारंभ हुई। तत्पश्चात रोहिणी नक्षत्र दोपहर 13ः19 बजे प्रारंभ हुआ। 1 सितंबर की अर्धरात्रि को अष्टमी व रोहिणी नक्षत्र दोनों विद्यमान थे। 2 सितंबर की प्रातः 10ः42 बजे अष्टमी समाप्त हो गई व रोहिणी नक्षत्र मध्याह्न 13ः47 बजे समाप्त हो गया। 2 सितंबर की अर्धरात्रि को नवमी व मृगशिरा नक्षत्र थे। कथन (8) व कथन (10) के प्रथम भाग के अनुसार जन्माष्टमी स्पष्ट रूप से 1 सितंबर को ही मनानी चाहिए थी 2 सितंबर को नहीं। पर्वों के निर्णय के बारे में हिंदू धर्मशास्त्र बहुत ही विस्तृत व सटीक गणना बतलाते हैं व लेशमात्र भी संशय नहीं छोड़ते। 2 सितंबर को जन्माष्टमी मनाना केवल एक भूल व सरकारी गड़बड़ ही थी। विद्वानों को चाहिए कि 66666666666 यदि पर्व निर्णय में सरकार द्वारा कभी गलती हो भी जाए तो पर्व धर्मशास्त्रानुसार ही मनाना चाहिए न कि कैलेंडर अनुसार। पर्वों व अन्य मान्यताओं के एकीकरण हेतु फ्यूचर पाॅइंट ने फ्यूचर पंचांग के नाम से विस्तृत पंचांग का प्रकाशन प्रारंभ किया है जो कि पूर्णतया कम्प्यूटर द्वारा निर्मित है। आशा है इसका प्रयोग ज्योतिषीय गणना व सटीक पर्व निर्णय में सहायक सिद्ध होगा।