जन्म से पूर्व बालक को नौ माह तक माता के गर्भ में रहना पड़ता है। इस कारण माता के गर्भ में मलिन-भक्षणजन्य दोष बालक में आ जाते हैं। इस संस्कार के द्वारा बालक में उत्पन्न इन दोषों का नाश हो जाता है। इस संदर्भ में कहा भी गया है- अन्नाशनान्मातृगर्भे मलाशाद्यपि शुद्धयति। अन्नप्राशन संस्कार के द्वारा बालक का परिचय अन्न के साथ कराया जाता है अर्थात् उसे अन्न खिलाया जाता है। यह संस्कार तब किया जाता है। जब बालक की आयु 6-7 माह की होती है और दांत निकलने लगता है। इस अवस्था में उसकी पाचनशक्ति भी प्रबल होने लगती है। प्रत्येक समाज में व्यक्ति इस संस्कार को अपने-अपने तरीके से संपन्न कराते हैं।
शास्त्रोक्त विधि के अनुसार शुभ मुहूर्त में देवताओं का पूजन किया जाता है और इसके पश्चात माता एवं पिता आदि सोने अथवा चांदी की चम्मच अथवा शलाका से अग्रांकित मंत्र का उच्चारण करते हुये बालक को खीर आदि पवित्र तथा पुष्टिकारक अन्न चटाते हैं- शिवौ ते स्तां व्रीहियवावबलासावदोमधौ। एतौ यक्ष्मं वि बाधेते एतौ मुच्चतो अंहसः।।
अर्थात हे बालक, जौ और चावल तुम्हारे लिये बलदायक तथा पुष्टिकारक हों, क्योंकि ये दोनों वस्तुयें यक्ष्मानाशक हैं तथा देवान्न होने से पापनाशक भी हैं। इस संस्कार के अंतर्गत भोजन आदि खाद्य पदार्थ अर्पित किया जाता है। अन्न ही मानव का स्वाभाविक आहार है, इसलिये ईश्वर का प्रसाद समझ कर ग्रहण करना चाहिए। अन्न से जीवन को ऊर्जा प्राप्त होती है। अन्न को जीवन का आधार माना गया है। इस दृष्टि से अन्न अर्थात् भोजन का महत्व बहुत अधिक बढ़ जाता है। भारतीय संस्कृति में भी स्वीकार किया गया है कि अगर किया जाने वाला भोजन शुद्ध होगा तभी मनुष्य के सत्व की शुद्धि होती है। इसके साथ ही साथ अन्तःकरण भी निर्मल और पवित्र हो जाता है। इसके लिए कहा गया है, आहारशुद्धौ सत्त्वशुद्धिः।
भोजन के महत्त्व को यहां तक ही सीमित नहीं रखा गया है। इसके आगे कहा गया है कि सत्त्व की शुद्धि होने पर स्मृति सुदृढ़ हो जाती है और स्मृति के ध्रुव होने पर हृदय की ग्रंथियों का भेदन हो जाता है। इस कथन की पुष्टि के लिये कहा गया है, सत्त्वशुद्ध ौ ध्रुवा स्मृतिः स्मृतिलम्भे सर्वग्रंथीनां विप्रमोक्षः। अन्न की इस महिमा को देखते हुये ही इसे प्रमुख संस्कारों में माना गया है। संभवतः इसीलिए प्राचीन शास्त्रकारों एवं विद्वान महर्षियों ने भोजन तथा अन्न की शुद्धि पर अत्यधिक बल दिया है। इस बारे में कहा गया है, अन्नमयँ्हि सोम्य मनः अर्थात् हे सोम्य, अन्न से ही मन बनता है। इसीलिये यह उक्ति अत्यधिक प्रचलित हुई है कि जैसा खाये अन्न-वैसा बने मन्न अर्थात् जैसा अन्न खाया जाता है, वैसा मन हो जाता है। आगे चलकर इसी के अनुरूप बुद्धि, भावना, विचार और कल्पनाशक्ति का निर्माण होता है और इसी अनुरूप व्यक्ति अपने लिये आगे चलने का पथ निर्धारित कर लेता है।
अगर व्यक्ति सात्विक मार्ग से प्राप्त धन से अन्न ग्रहण करता है तो उसे भाव, विचार एवं समस्त क्रिया कलाप भी सात्विक होंगे। इसके विपरीत स्थिति में व्यक्ति आपराधिक पथ पर अग्रसर हो सकता है। समाज में जितने भी आपराधिक प्रवृत्ति के व्यक्ति हैं, उनके अन्न का आधार गलत मार्ग से उपार्जित धन ही रहा होगा। इसलिये अगर व्यक्ति को सही राह पर चलना है तो उसे सात्विक अन्न ही ग्रहण करना चाहिये। हमारे शास्त्रों तथा विद्वान ऋषि-महर्षियों ने जीवन के प्रत्येक कार्य को सद्मार्ग द्वारा संपन्न करने का ही निर्देश दिया है। भोजन के बारे में भी यह आदर्श विचारधारा उभर कर आती है।
जीने के लिये भोजन की परम आवश्यकता तो है किंतु इसके लिये भी सनातन आदर्श की व्यवस्था की गई है जिसके अंतर्गत झूठ, पाप, बेईमानी, धोखेबाजी से अर्जित धन से भोजन की व्यवस्था को वर्जित माना गया है। शास्त्रों में इस बात की व्यवस्था दी गई है जिसके अंतर्गत झूठ, पाप, बेईमानी, धोखेबाजी से अर्जित धन से भोजन की व्यवस्था को वर्जित माना गया है।