गोतम बुद्ध यशकरन शर्मा मनुष्य के जीवन पर ब्रह्मांड में फैले ग्रहों का नियंत्रण होता है। कौन जानता था कि राजवंश का राजकुमार सिद्धार्थ संत बनेगा और फिर बुद्ध हो जाएगा। लेकिन ये ग्रह थे जिन्होंने उन्हें राज मोह से मुक्त किया और फिर परम ज्ञानी बना डाला। कैसे हुआ यह सब? क्या थे सिद्धार्थ के ग्रह योग? कहते हैं कि मनुष्य की जन्मकुंडली उसके द्वारा जन्म जन्मांतरों में किए गए कर्मों का परिणाम होती है। भगवान बुद्ध संसार के महानतम व्यक्ति हुए। हर ज्योतिर्विद यह जानने की इच्छा रखता है कि कैसी रही होगी उनकी जन्म कुंडली। आइए, जानें... गौतम बुद्ध ऐसे हैं जैसे हिमाच्छादित हिमालय। पर्वत तो और भी हैं। हिमाच्छादित पर्वत और भी हैं, पर हिमालय अतुलनीय है। उसकी कोई उपमा नहीं है। हिमालय बस हिमालय जैसा है। गौतम बुद्ध बस गौतम बुद्ध जैसे हैं। पूरी मनुष्य जाति के इतिहास में वैसा महिमापूर्ण नाम दूसरा नहीं। गौतम बुद्ध ने जितने हृदयों की वीणा को बजाया है उतना किसी और ने नहीं। गौतम बुद्ध के माध्यम से जितने लोग जागे और जितने लोग परम भगवत्ता को उपलब्ध हुए उतने किसी और के माध्यम से नहीं।
बुद्ध का धर्म बुद्धि का धर्म कहा गया है। बुद्धि या उसका आदि तो है, अंत नहीं। शुरुआत बुद्धि से है, प्रारंभ बुद्धि से है, क्योंकि मनुष्य वहां खड़ा है, लेकिन अंत, अंत उसका बुद्धि में नहीं। अंत तो परम अतिक्रमण है, जहां सब विचार खो जाते हैं। सब बुद्धिमत्ता विसर्जित हो जाती है। जहां केवल साक्षी, मात्र साक्षी शेष रह जाता है। लेकिन बुद्ध का प्रभाव उन लोगों में तत्क्षण अनुभव होता है, जो सोच-विचार में कुशल हैं। बुद्ध के साथ मनुष्य जाति का एक नया अध्याय शुरू हुआ। पच्चीस सौ वर्ष पहले बुद्ध ने वह कहा जो आज भी सार्थक मालूम पड़ेगा और जो आने वाली सदियों तक सार्थक रहेगा। बुद्ध ने कहा है : मेरे पास आना, लेकिन मुझसे बंध मत जाना। तुम मुझे सम्मान देना, सिर्फ इसलिए कि मैं तुम्हारा भविष्य हूं, तुम भी मेरे जैसे हो सकते हो। तुम मुझे सम्मान दो, तो यह तुम्हारा बुद्धत्व को ही दिया गया सम्मान है, लेकिन तुम मेरा अंधानुकरण मत करना। क्योंकि तुम अंधे होकर मेरे पीछे चले, तो बुद्ध कैसे हो पाओगे? बुद्धत्व तो खुली आंखों से उपलब्ध होता है, बंद आंखों से नहीं और बुद्धत्व तो तभी उपलब्ध होता है, जब तुम किसी के पीछे नहीं चलते, खुद के भीतर जाते हो। गौतम बुद्ध बौद्ध धर्म के प्रवर्तक थे। राजकुमार सिद्धार्थ के रूप में उनका जन्म 623 ईस्वी पूर्व हुआ था। उनको इस विश्व के सबसे महान व्यक्तियों में से एक माना जाता है। बुद्ध गौतम गोत्र के थे और उनका सत्य नाम सिद्धार्थ गौतम था।
उनका जन्म शाक्य गणराज्य की राजधानी कपिलवस्तु के निकट लुंबिनी में हुआ था। शाक्यराज शुद्धोदन उनके पिता थे। परंपरागत कथा के अनुसार, सिद्धार्थ की माता मायादेवी उनके जन्म के कुछ देर बाद मर गईं। कहा जाता है कि फिर एक ऋषि ने शुद्धोदन से कहा कि सिद्धार्थ या तो एक महान राजा बनेंगे, या फिर एक महान साधु। शिशु के जन्म की सूचना पाते ही शिशु के दादा सीहहनु के गुरु तथा राजपुरोहित तत्क्षण कपिलवस्तु पहुंचे। शिशु को अपनी गोद में उठाया और जैसे ही उसे निकट से देखा, तो उनकी आंखें पहले तो खुशी से चमक उठीं लेकिन फिर आंसुओं में डूब गईं। राजा शुद्धोदन द्वारा कारण पूछे जाने पर उन्होंने बताया कि यह शिशु बुद्ध बनने वाला है इसलिए मैं प्रसन्न हूं। किंतु दुःख इस बात का है कि शिशु की बुद्धत्व प्राप्ति तक मैं जीवित नहीं रह सकूंगा। शिशु के जन्म के पांचवें दिन उसके नामकरण के अवसर पर एक सौ आठ ज्योतिषियों को आमंत्रित किया गया, जिनमें आठ विलक्षण ज्योतिषी भी थे। उन विशिष्ट आठ में से छह राम, धज, लक्खण, मंती, भोज और सुदंत ने भविष्यवाणी की थी कि वह शिशु या तो चक्रवर्ती सम्राट बनेगा या एक बुद्ध। किंतु सबसे कम उम्र के ज्योतिषी कोंडज का कथन था कि वह शिशु निश्चित रूप से एक बुद्ध बनेगा। ज्योतिर्विद के अनुसार यदि यह बालक एक बीमार, बूढ़े या मृत व्यक्ति को देख लेगा तो गृहस्थ-जीवन का त्याग करके संन्यास ग्रहण कर लेगा।
इस भविष्यवाणी को सुनकर राजा शुद्धोदन ने अपनी सामर्थ्य की हद तक सिद्धार्थ को दुःख से दूर रखने की कोशिश की। फिर भी 29 वर्ष की उम्र में उनकी दृष्टि चार दृश्यों पर पड़ी - एक वृद्ध विकलांग व्यक्ति, एक रोगी, एक मृत शरीर और एक साधु। इन चार दृश्यों को देखकर सिद्धार्थ समझ गए कि सब का जन्म होता है, सब को बुढ़ापा आता है, सब को बीमारी होती है, और एक दिन सब की मृत्यु होती है। उन्होंने अपना राजसी जीवन, अपनी जाति, अपनी पत्नी, अपना पुत्र, सब को छोड़कर भटकते साधु का जीवन अपना लिया ताकि वह जन्म, बुढ़ापे, दर्द, बीमारी और मौत का कोई उत्तर खोज पाएं। सत्य की खोज : सिद्धार्थ ने दो ब्राह्मणों के साथ अपने प्रश्नों के उत्तर ढूंढने शुरू किए। समुचित ध्यान लगा पाने के बाद भी उन्हें इन प्रश्नों के उत्तर नहीं मिले। फिर उन्होंने तपस्या करने की कोशिश की। वे इस कार्य में भी प्रवीण निकले, अपने गुरुओं से भी ज्यादा, परंतु उन्हें अपने प्रश्नों के उत्तर फिर भी नहीं मिले। फिर उन्होंने कुछ साथी इकट्ठे किए और चल दिए अधिक कठोर तपस्या करने। ऐसा करते करते छह वर्ष बाद, भूख के कारण मृत्यु के करीब-करीब से गुजर कर, बिना अपने प्रश्नों के उत्तर पाए, वह फिर कुछ और करने के बारे में सोचने लगे। इस समय, उन्हें अपने बचपन का एक पल याद आया जब उनके पिता खेत तैयार करना शुरू कर रहे थे। उस समय वह एक आनंद भरे ध्यान में पड़ गए थे और उन्हें ऐसा महसूस हुआ कि समय स्थिर हो गया है। ज्ञान प्राप्ति : कठोर तपस्या छोड़कर उन्होंने आर्य अष्टांग मार्ग ढूंढ निकाला, जो मध्यम मार्ग भी कहलाता है, क्योंकि यह मार्ग तपस्या और असंयम दोनों की पराकाष्ठाओं के बीच में है।
अपने बदन में कुछ शक्ति डालने के लिए, उन्होंने एक ब्राह्मणी से कुछ खीर ली थी। वह एक पीपल के पेड़ के नीचे बैठ गए - यह प्रतिज्ञा करके कि सत्य जाने बिना वहां से नहीं उठेंगे। वह सारी रात बैठे और सुबह उन्हें पूरा ज्ञान प्राप्त हो गया। उन्हें निर्वाण यानि बोधि प्राप्त हुई और वह 35 वर्ष की उम्र तक बुद्ध बन गए। जिस पीपल के वृक्ष के नीचे उन्हें ज्ञान की प्राप्ति हुई, वह बोधि वृक्ष कहलाया। उन्होंने अपना पहला धर्मोपदेश वाराणसी के पास सारनाथ में अपने पहले मित्रों को दिया। उनके मित्रों ने भी थोड़े ही दिनों में बोधि प्राप्त कर ली। फिर गौतम बुद्ध ने उन्हें बौद्ध धर्म का प्रचार करने के लिए भेज दिया। भगवान बुद्ध के अनुसार यह संसार दुखों का घर है। दुख का मुखय कारण है अज्ञानता। अज्ञानता के मुखय लक्षण हैं आसक्ति व लालच। आसक्ति, लोभ, दुख और अज्ञानता के निराकरण हेतु बुद्ध ने अष्टांग मार्ग का उपदेद्गा किया, जिसके आठ अंग इस प्रकार हैं - सम्यग्दृष्टि, सम्यक्संकल्प, सम्यग्वाक्, सम्यक्कर्म, सम्यगाजीव, सम्यग्व्यायाम्, सम्यक्स्मृति और सम्यक्समाधि। भगवान बुद्ध की जन्मकुंडली में दद्गाम भाव में उच्च राद्गिा के सूर्य से संयुक्त पांच ग्रह स्थित हैं और लग्नेद्गा पूर्ण चंद्र की पूर्ण दृष्टि है। दद्गाम भाव से कीर्ति व श्रेष्ठ कर्म का विचार किया जाता है। इस भाव की विलक्षण स्थिति के कारण ही उन्हें उच्च कोटि का सम्मान, महानता व अक्षय कीर्ति प्राप्त हुई। इस भाव में बलवान पंचग्रही योग के कारण ही वह इतनी कठिन तपस्या करने में सक्षम हो सके। कर्क लग्न के लोग भावुक होते हैं। भगवान बुद्ध की कुंडली में लग्नेद्गा चंद्र पूर्णिमा का होकर मन के चतुर्थ भाव में स्थित है और छह ग्रहों से दृष्ट है।
चंद्र की इस स्थिति ने उन्हें अत्यंत संवेदनद्गाील व्यक्ति बना दिया। व्यक्तित्व का विचार प्रथम भाव से और व्यक्ति के आचार-विचार व व्यवहार का विचार प्रथम व चतुर्थ भावों से किया जाता है। इन दोनों भावों में छह ग्रहों से दृष्ट पूर्णिमा के चंद्र का पूर्ण प्रभाव होने के कारण भगवान बुद्ध दया, करुणा व भावुकता से ओतप्रोत सुंदर हृदय वाले व्यक्ति थे। इस हद तक भावुक होने के कारण ही वह एक बूढ़े, बीमार व मृत व्यक्ति को देखकर द्रवित हो उठे और इन दुखों का हल ढूंढने के उद्देद्गय से उन्होंने अपना राजसी ठाट-बाट छोड़ दिया। कुंडली में चार या चार ग्रहों से अधिक ग्रहों की युति हो, तो यह भी प्रव्रज्या अर्थात संन्यास योग होता है। कुंडली में यदि शनि ग्रह का प्रभाव गुरु, लग्नेद्गा, चतुर्थेद्गा, चतुर्थ भाव व चंद्र पर हो, तो भी व्यक्ति उच्च कोटि का विचारक या योगी बन जाता है। भगवान बुद्ध की कुंडली में यह योग भी घटित हो रहा है। उनके दद्गाम भाव में उच्च राद्गिास्थ सूर्य के अतिरिक्त रुचक योग वाला मंगल, चंद्र लग्नेद्गा शुक्र, गजकेसरी योग बनाने वाला गुरु तथा चक्रवर्ती योग बनाने वाला शनि स्थित है। दद्गाम भाव लग्नेद्गा चंद्र से भी दृष्ट है। कर्म, कीर्ति व यद्गा के दद्गाम भाव पर छह प्रभावद्गााली ग्रहों का प्रभाव होने के फलस्वरूप बुद्ध ने ऐसा कर्म किया जिसके कारण इस विद्गव में जब भी महानतम व्यक्तियों के नामों की सूची बनेगी तो उनका नाम सबसे ऊपर होगा। चक्रवर्ती योग नीचस्थितोजन्मनि योग्रहः तद्राशिनाथः तथा तदुच्चनाथः भवेत् चन्द्रलग्नाद्यपि केन्द्रवात्रिकोणवर्ती राजा भवेत्धार्मिक चक्रवर्ती। भगवान बुद्ध की कुंडली में नीच राशिस्थ शनि चक्रवर्ती योग बना रहा है, क्योंकि शनि की उच्च व नीच राशियों के स्वामी शुक्र व मंगल जन्म लग्न व चंद्र से केंद्र में स्थित हैं।
इस चक्रवर्ती योग, बलवान दशम भाव तथा बली लग्नेश के प्रभाव से भगवान बुद्ध ज्ञान के साम्राज्य के निर्विवाद चक्रवर्ती राजा बने। लग्न व लग्नेश दोनों पर मंगल की दृष्टि होने के कारण भगवान बुद्ध अत्यंत आकर्षक व सुंदर व्यक्ति थे। लग्नेश पर शुक्र, मंगल व गुरु की दृष्टि होने के फलस्वरूप जातक और भी अधिक सुंदर हो जाता है। बुद्ध राजा के घर में जन्मे, जिसके कारण उनके घर पर राजाओं, पुजारियों व योद्धाओं का आना जाना लगा रहता था। बुध ग्रह मित्र राशिस्थ है व पीड़ित नहीं है तथा बुद्धि के पंचम भाव को पूर्ण दृष्टि से देख रहा है। इसके अतिरिक्त पंचमेश मंगल की भी पंचम भाव पर पूर्ण दृष्टि है। बुद्ध मनोविनोद का, मंगल वीरता व पराक्रम तथा प्रताप का ग्रह सूर्य उच्च राशिस्थ होकर दशम भाव में स्थित है जिस कारण बुद्ध की बुद्धि अतुलनीय तथा प्रतिष्ठा अटल है। लग्नेश चंद्र के मंगल से दृष्ट होने के कारण उन्हें लौह संकल्प शक्ति प्राप्त हुई। उनकी जन्मकुंडली में सबसे बलवान योग दशम भाव में है। सूर्य आत्माकारक व द्वितीयेश होकर दशम भाव में उच्च राशिस्थ है। मंगल दशमेश होकर भाग्येश गुरु से, शुक्र चतुर्थेश होकर पंचमेश से, मंगल पंचमेश होकर सप्तमेश से और शुक्र चतुर्थेश होकर भाग्येश गुरु से युक्त है। इस प्रकार लग्न से दशम व लग्नेश से सप्तम भाव में बहुत सारे राजयोगों का निर्माण हो रहा है।
दशम भाव में स्थित सभी राजयोग कारक ग्रहों का लग्नेश के साथ परस्पर दृष्टि योग है। दशम भावस्थ नीच राशिस्थ शनि चक्रवर्ती योग का निर्माण करके सोने में सुहागे का कार्य कर रहा है। सोलह वर्ष की आयु में कलत्रकारक शुक्र व पंचमेश से युक्त सप्तमेश शनि की महादशा में उनका यशोधरा से विवाह हो गया। राहु की अंतर्दशा आरंभ होते ही बुद्ध ने महान संन्यास धारण कर लिया। 35 वर्ष की आयु में बुद्ध की महादशा में बुद्ध की ही अंतर्दशा आरंभ होने पर वैशाख पूर्णिमा के दिन बोधि वृक्ष के नीचे बैठे-बैठे उन्हें ज्ञान की प्राप्ति हुई। उनका बुद्ध द्वादशेश (मोक्ष भाव का स्वामी) होकर भक्ति के पंचम व बुद्धि के पंचम भाव पर दृष्टि डाल रहा है। शुक्र की महादशा में बुद्ध ने बौद्ध धर्म के सिद्धांतों का प्रचार-प्रसार किया। ज्योतिष ज्ञान किसी भी भाव पर अधिकाधिक ग्रहों का प्रभाव होने से वह भाव अत्यधिक बलवान हो जाता है - जैसे बुद्ध के दशम भाव पर उत्तम राजयोगों के प्रभाव से उन्हें अक्षय कीर्ति की प्राप्ति हुई। चंद्र के लग्नेश और पूर्ण बली होकर मन के चतुर्थ भाव में अधिष्ठित होकर सभी महत्वपूर्ण ग्रहों के दृष्ट होने से बुद्ध भावुक, ज्ञानी, मन पर नियंत्रण करने में समर्थ व सर्वगुण संपन्न हुए। कुंडली की विशेषता - चक्रवर्ती योग, महापुरुष योग व प्रव्रज्या योग। चक्रवर्ती योग नीचस्थितोजन्मनि योग्रहः तद्राशिनाथः तथा तदुच्चनाथः भवेत् चन्द्रलग्नाद्यपि केन्द्रवात्रिकोणवर्ती राजा भवेत्धार्मिक चक्रवर्ती। महापुरुष योग लग्नेश, चतुर्थेश, पंचमेश, सप्तमेश, भाग्येश व दशमेश अर्थात् सभी केंद्र व त्रिकोण स्थानों के अधिपतियों का केंद्र में शुभ संबंध होने से महापुरुष योग का सृजन होता है। प्रव्रज्या योग : कुंडली में चार या चार से अधिक ग्रहों की युति होने से प्रव्रज्या योग बनता है, जिसके प्रभाव से जातक, संन्यास के मार्ग को अपना लेता है।