स्वप्नोत्पत्ति विषयक विभिन्न सिद्धांत एक अध्ययन
स्वप्नोत्पत्ति विषयक विभिन्न सिद्धांत एक अध्ययन

स्वप्नोत्पत्ति विषयक विभिन्न सिद्धांत एक अध्ययन  

सुनयना भाटी
व्यूस : 15218 | जून 2014

्रत्येक चलायमान वस्तु को विश्राम की आवष्यकता होती है। मनुष्य पूरे दिन की भागदौड़ के बाद जब मानसिक तथा शारीरिक आराम पाने के लिए निद्रा का आश्रय लेता है, तभी से ‘स्वप्न’ की एक आकर्षक, गूढ़, गम्भीर तथा आध्यात्मिक सृष्टि का प्रारंभ हो जाता है। स्वप्न नींद के समय का मस्तिष्क का जीवन है - ऐसा जीवन, जिसमें हमारे जागृत जीवन का भी अंष होता है तथा इसके अतिरिक्त कुछ अन्य अनबूझे तथा गूढ विषय भी सम्मिलित होते हैं। भारतीय ऋषियों ने इस सृष्टि में ‘आत्मा’ तथा ‘परमात्मा’ इन दोनों तत्त्वों के अस्तित्व को स्वीकार किया है। आत्मा की मुख्यतया तीन अवस्थाएँ होती हैं - जागृतावस्था इस अवस्था में मनुष्य अपनी सम्पूर्ण चेतना पाँच ज्ञानेन्द्रियों, पाँच कर्मेन्द्रियों, पाँच प्राण तथा चारों अंतःकरण से युक्त होकर इस लोक के समस्त विषयों का साक्षात्कार व उपभोग करता है। ;पपद्ध स्वप्नावस्था इस लोक में अपनी दिनचर्या से थका मनुष्य विश्राम करने के लिए निद्रा का आश्रय लेता है। निद्रा प्रारंभ होेते ही ‘स्वप्न’ की संभावना प्रारंभ हो जाती है। इस अवस्था में मनुष्य अपने अवचेतन मन के सहयोग से स्वप्न की एक नई सृष्टि का सृजन कर लेता है। ;पपपद्ध सुषुप्ति यह निद्रा की गहरी अवस्था है। स्वप्नावस्था के बाद की अवस्था।

इस अवस्था में मनुष्य ‘स्वप्नादि’ का अनुभव नहीं करता है’- ‘‘यत्र सुप्तो न कंचन कामं कामयते न कंचन स्वप्नं पष्यति तत्सुषुप्तम्।’’ इन तीनों अवस्थाओं के अतिरिक्त एक ‘तुरीयावस्था’ का भी अस्तित्व है, परन्तु इस अवस्था से सामान्य मानवों का साक्षात्कार नहीं हो पाता है। तुरीयावस्था में योगीजन ही जा पाते हैं। जागृतावस्था में मानव अपने समस्त ज्ञानेन्द्रियों, कर्मेन्द्रियों तथा मन की सहायता से इस संसार में उपलब्ध समस्य विषयों का साक्षात्कार एवं भोग करता रहता है। लौकिक कार्यों को सम्पादित करने से थका-हरा मनुष्य स्वयं को मानसिक तथा शारीरिक आराम देने के लिए निद्रा का आश्रय लेता है। निद्रा अवस्था में जाते ही ‘स्वप्न दर्षन’ की संभावना का मार्ग प्रषस्त हो जाता है। ‘स्वप्न’ की इस अवस्था में समस्त कर्मेन्द्रियाँ तथा ज्ञानेन्द्रियाँ मन में विलीन हो जाती हैं, केवल मन क्रियाषील रहता है। मन की इसी अवस्था में मनुष्य अपनी अतृप्त इच्छाओं, पूर्व जन्म के संस्कारों तथा दैवीय प्रेरणा से प्रेरित होकर स्वप्नों का दर्षन करता है। निद्रा के अत्यध् िाक गहन हो जाने के बाद मन हृदय में प्रविष्ट होता है, जहाँ परमात्मा अंगुष्ठमात्र परिमाण से उपस्थित रहते हैं। मन के हृदय में पहुँचते ही स्वप्नावस्था का अंत हो जाता है तथा ‘सुषुप्ति’ की अवस्था प्रारंभ हो जाती है।

‘सुषुप्ति’ की अवस्था में स्वप्न नहीं आते हैं। ‘स्वप्न’ की उत्पत्ति (भारतीय मत) ऋग्वेद के ‘दुःस्वप्ननाषन’ सूक्त तथा यजुर्वेद के ‘षिवसंकल्प सूक्त’ में ‘स्वप्न’ की उत्पत्ति के मौलिक सिद्धान्त प्राप्त होते हैं। यजुर्वेद के षिवसंकल्प सूक्त में मन की चेतन तथा अवचेतन दोनों ही अवस्थाओं के साथ-साथ स्वप्न का भी वर्णन किया गया है - फ्यज्जाग्रतो दूरमुदौत दैवं तदु सुप्तस्य तथैवेति।‘‘ इसी प्रकार ऋग्वेद का ‘दुःस्वप्ननाषन सूक्त’ स्वप्नों के शुभाषुभत्व का निर्देष करता है। परन्तु उपनिषदों में, विषेषकर ‘प्रष्नोपनिषद्’ तथा ‘माण्डूक्योपनिषद’ में स्वप्न के क्रिया विज्ञान ;च्ीलेपवसवहलद्ध पर विषेष प्रकाष डाला गया है। इसके अनुसार जिस प्रकार सूर्य के अस्त होने के समय उसकी किरणें समस्त संसार से सिमटकर सूर्य में समा जाती है, ठीक उसी तरह गहरी निद्रा के समय समस्त इन्द्रियाँ मन में विलीन हो जाती हैं। उस समय इन्द्रियों के समस्त कार्य समाप्त हो जाते हैं। मनुष्य के जागने पर पुनः ये समस्त इन्द्रियाँ मन से पृथक होकर पुनः अपने-अपने कार्य में ठीक उसी प्रकार लग जाती हैं, जिस प्रकार सूर्योदय होते ही सूर्य की किरणें पुनः चारों ओर फैल जाती है। मानव शरीर में व्याप्त पंचवायु में से उदानवायु, मन को निद्रा के समय हृदय में उपस्थित परमात्मा के पास ले जाती है, जहाँ मन के द्वारा मनुष्य निद्रा से उत्पन्न विश्राम रूपी सुख का अनुभव करता है।

‘स्वप्न’ की उत्पत्ति का सिद्धान्त ‘प्रष्नोपनिषद्’ के इस मंत्र में सन्निहित है -‘‘अत्रैष देवः स्वप्ने महिमामनुभवति। यद् दृष्टं दृष्टमनुपष्यति श्रुतं श्रुतमेवार्थमनु शृणोति। देषदिगन्तरैष्च प्रत्यनुभूतं पुनः पुनः प्रत्यनुभवति दृष्टं चादृष्टं च श्रुतं चाश्रुतं चानुभूतं चाननुभूतं च सच्चाचच्च सर्वं पष्यति सर्वः पष्यति।’’ अर्थात् मानव शरीर में स्थित जीवात्मा ही मन और सूक्ष्म इन्द्रियों के द्वारा स्वप्न का अनुभव करता है। जीवात्मा स्वयं द्वारा पूर्व में देखे गए, सुने गए, अनुभव किए गए और संपादित किए गए घटनाओं का उसी प्रकार स्वप्न में भी अनुभव करता है। परन्तु यह आवष्यक नहीं कि सिर्फ निद्रा से पूर्व की जागृतावस्था में घटित विभिन्न घटनाएँ ही ‘स्वप्न’ के विषय होते हैं। जागृतावस्था में घटित अलग-अलग घटनाओं के विभिन्न अंष आपस में मिलकर एक नए स्वप्न की पटकथा तैयार करते हैं। इसके अतिरिक्त पूर्वजन्म के संस्कार, दबी हुई आकांक्षाएँ तथा परमपिता की प्रेरणा, ‘स्वप्नों’ की उत्पत्ति के कारण होते हैं। भारतीय ऋषियों ने स्वप्न को भविष्य में होने वाली घटनाओं का शुभाषुभ सूचक माना है। विभिन्न पुराणों तथा धर्म ग्रन्थों में उपलब्ध आख्यान भी इस तथ्य का समर्थन करते हैं।

स्वप्नों की उत्पत्ति के पाष्चात्य सिद्धांत - पाष्चात्य मनोवैज्ञानिकों ने भी ‘स्वप्न’, इसके कारणों तथा इसकी उत्पत्ति विज्ञान पर विषेष रूप से विचार किया है। इन विचारकों में सिगमण्ड फ्रायड, युंग, अर्नेस्ट हार्मेन आदि प्रमुख हैं। फ्रायड के मतानुसार हमारे सारे स्वप्न, ‘काम-प्रवृत्ति’ से सम्बन्धित इच्छाओं की पूत्र्ति के साधन होते हैं। केवल कुछ ही स्वप्न हंै जो हमारी शारीरिक इच्छाओं जैसे भूख, प्यास आदि से नियंत्रित होती है। जैसे उपवास के साथ भोजन का स्वप्न, प्यास के समय किसी नदी, झरने या पानी पीने का स्वप्न। इन विचारकों का मत है कि मनुष्य की दमित तथा अपूर्ण इच्छाओं, काम वासनाओं तथा तात्कालिक परिस्थितियों के कारण मनुष्य को स्वप्न आते हैं। स्वप्न में दिखने वाले विषय ठीक वत्र्तमान परिस्थिति के समान हो सकते हैं अथवा ये स्वप्न सांकेतिक रूप में भी हो सकते हैं। इन मनोवैज्ञानिकों का मानना है कि स्वप्न किसी इच्छा के कारण पैदा होते हैं और स्वप्न की वस्तु उस इच्छा को प्रकट करती है। जैसे परीक्षा के समय विद्यार्थी को आनेवाले स्वप्न, किसी आत्मीय संबंधी के बीमार होने पर आने वाले स्वप्न, अपूर्ण यौन इच्छाओं से संबंधित स्वप्न, घर में विवाहादि उत्सवों से संबंधित स्वप्न आदि उपरोक्त सिद्धान्तों को प्रथमदृष्ट्या सत्य मानने पर बाध्य करते हैं।

परंतु उपरोक्त सिद्धान्त स्वप्नों के स्वरूप का एकांकी स्वरूप ही दिखाते हैं, क्योंकि कभी-कभी ऐसे स्वप्न भी आते हैं जिनका मनुष्य के भूत, भविष्य या वत्र्तमान से कोई संबंध नहीं होता है। सी. जी. युंग का विचार इससे कुछ विपरीत है। उनके मतानुसार स्वप्न अप्रमाणित सत्य की आध्यात्मिक घोषणाओं की, भ्रम की, परिकल्पना की, स्मृतियों की, योजनाओं की, पुर्वानुमानों की, अतार्किक अनुभवों की, यहाँ तक की पराचित्त ज्ञान की अभिव्यक्ति हो सकते हैं। भौतिकतावादी होने के कारण अधिकतर पाष्चात्य मनोवैज्ञानिक स्वप्न की आध्यात्मिकता उत्पत्ति विधि तथा इसकी महत्ता को समझ नहीं सके हैं। फिर भी युंग, अल्फ्रेड एडलर सदृष पाष्चात्य मनोवैज्ञानिक स्वप्न की आध्यात्मिक को समझने के करीब पहुँच चुके थे। स्वप्न के प्रकार स्वप्नों के दो प्रकार माने गए हैं - ;पद्ध दिवास्वप्न तथा ;पपद्ध निषास्वप्न। जैसा कि नाम से ही स्पष्ट है कि दिवास्वप्न दिन में देखे जाने वाले स्वप्न हैं जबकि निषास्वप्न रात्रिकालीन स्वप्न हैं। इन दोनों स्वप्नों में कुछ मौलिक अंतर भी है - ;पद्ध दिवास्वप्नों में व्यक्ति अपनी इच्छा से ही अपनी अतृप्त इच्छाओं की कल्पना में पूत्र्ति कर लेता है। परन्तु निषास्वप्नों में अचेतन मन की अतृप्त इच्छाएँ व्यक्ति की इच्छा न होने पर भी प्रकट होती है।

;पपद्ध दिवास्वप्नों में व्यक्ति अपनी अतृप्त इच्छाओं को उसी ढंग से तृप्त करने की चेष्टा करता है, जिस ढंग से होनी चाहिए निषास्वप्नों में इन इच्छाओं की तृप्ति का ढंग सांकेतिक होता है जिसका विष्लेषण करने पर इन अतृप्त इच्छाओं का स्वरूप समझा जा सकता है। ;पपपद्ध दिवास्वप्न सदा अतृप्त इच्छाओं से प्रेरित होते हैं, परन्तु सभी निषास्वप्नों पर यह बात लागू नहीं होती। कुछ निषास्वप्नों में भविष्य से संबंधित सूचनाएँ भी छिपी होती हैं। स्वप्न घटनाओं के सूचक या एक सामान्य मनोवैज्ञानिक घटना भारतीय विचारधारा तथा पाष्चात्य विचारधारा के सम्यक् अवलोकन करने पर स्पष्ट हो जाता है कि न तो समस्त स्वप्न एक मनोवैज्ञानिक घटना मात्र है और न ही भविष्य में घटने वाली शुभाषुभ घटनाओं के सूचक। किसी भी स्वप्न का विष्लेषण करने से पूर्व यदि स्वप्न द्रष्टा मनुष्य की पृष्ठभूमि का गहन अध्ययन किया जाए तो स्वप्न की प्रकृति को स्पष्टतया समझा जा सकता है। किसी सांसारिक घटना से प्रभावित स्वप्न निष्फल होते हैं। जैसे यदि किसी मनुष्य के घर में शादी की बात चल रही हो और उसने शादी का सपना देखा तो यह स्वप्न व्यर्थ होगा। इसी प्रकार यदि व्यक्ति वैष्णो देवी माता का दर्षन करने का कार्यक्रम बना रहा हो और उसने माता का अथवा पहाड़ पर चढ़ने का सपना देखा तो यह स्वप्न भी निष्फल ही होगा।

परंतु जब हम शुभाषुभ फल अथवा भविष्य में घटनेवाली किसी घटना की सूचना देने में समर्थ स्वप्न की प्रकृति पर विचार करते हैं, तो यह अनिवार्य है कि यह स्वप्न किसी भी रूप से उस मनुष्य की मानसिक, वैचारिक अथवा कार्यषैली से प्रभावित न हों। संस्कृति साहित्य के विभिन्न ग्रंथों तथा पाष्चात्य मनोवैज्ञानिकों की रचनाओं में ऐसे सहस्रों उदाहरण भरे पड़े हैं जिससे स्वप्नों को भविष्य में घटनेवाली शुभाषुभ सूचनाओं का सूचक होने के सिद्धान्त की पुष्टि होती है। हम दैनिक जीवन में भी स्वप्नों के इस सामथ्र्य का अनुभव करते रहते हैं। अतः आवष्यक है कि स्वप्नों से संबंधित फलादेष करने में पर्याप्त सर्तकता बरती जाए। विभिन्न संप्रदायों में स्वप्न - विष्व में प्रचलित सभी मुख्य सम्प्रदायों ने स्वप्न को मान्यता दी है। हिन्दू धर्म में ‘स्वप्न’ को विषेष मान्यता दी गई है। भारतीय दर्षन में इसका आश्रय लेकर ब्रह्मतत्व को समझाने का प्रयास किया जाता रहा है। ऋग्वेद, यजुर्वेद, महाभारत, रामायण इन समस्त ग्रंथों में यत्र-तत्र स्वप्न से संबंधित आख्यान प्राप्त होत हैं। कुरान की कई आयतें हजरत पैगम्बर मुहम्मद साहब के स्वप्न में भी अवतरित हुई थीं। बौद्ध धर्म के संस्थापक भगवान बुद्ध के जन्म से पूर्व उनकी माता को स्वप्न में सफेद हाथी के दर्षन हुए।

महावीर स्वामी के जन्म से पूर्व उनकी माता महारानी त्रिषला ने भी 14 अत्यन्त शुभ स्वप्न देखे थे। स्वप्न का शुभाशुभत्व भारतीय परम्परा ‘स्वप्न’ की आध्यात्मिकता के साथ-साथ इसके शुभाषुभ को भी समान रूप से स्वीकार करती है। विभिन्न पुराणों में स्वप्नों के शुभाषुभ फलों पर विषेष रूप से चर्चा की गई है। ब्रह्मवैवत्र्त पुराण तथा अग्नि पुराण में इस विषय पर विषेष रूप से चर्चा की गई है। स्वप्न फलदायक कब? समस्त स्वप्न शुभ अथवा अषुभ फल बताने में सक्षम नहीं होते हैं। किसी घटना के कारण आनेवाले स्वप्न निष्फल होते हैं। दिन में सोते समय दिखने वाले स्वप्न भी अपना फल नहीं देते हैं। शुभ स्वप्न देखने के बाद जागरण तथा हरिनाम का जप करते हुए रात्रि व्यतीत करने पर ही शुभ फलों की प्राप्ति होती है। पुनः सो जाने पर स्वप्न का शुभ अथवा अषुभ फल नष्ट हो जाता है। बिना किसी पूर्व घटना अथवा तनाव से प्रभावित होकर आने वाले स्वप्न ही शुभाषुभ फलप्रद होते हैं। चिन्तायुक्त, जड़तुल्य, मल-मूत्र के वेग से पीड़ित, भय से व्याकुल, नग्न और उन्मुक्त केष व्यक्ति को अपने देखे हुए स्वप्न का कोई फल प्राप्त नहीं होता है। ‘स्वप्न’ फल की प्राप्ति की अवधि - भारतीय ऋषियों ने स्वप्नजन्य शुभाषुभ फलों की प्राप्ति में लगनेवाले समय का भी निर्धारण किया है।

सम्पूर्ण रात्रि को चार प्रहरों में विभक्त किया गया है। रात्रि के प्रथम प्रहर में देखे गए स्वप्न का शुभाषुभ फल एक वर्ष में प्राप्त होता है। द्वितीय प्रहर के स्वप्न का फल आठ मास में मिलता है। यदि स्वप्न रात्रि के तृतीय प्रहर में आए तो व्यक्ति को इस स्वप्न का फल तीन महीने में प्राप्त होता है। रात्रि का चतुर्थ प्रहर अत्यन्त शुभ माना जाता है। समस्त सात्त्विक शक्तियाँ इस काल में सक्रिय रहती हैं। यह समय ‘ब्रह्ममुहूत्र्त’ के नाम से प्रसिद्ध है। ब्रह्ममुहूत्र्त में देखे गए स्वप्न का फल एक पक्ष अर्थात् 15 दिन के अन्दर प्राप्त हो जाता है। सूर्योदय के समय का स्वप्न 10 दिन की कालावधि के मध्य ही अपना शुभाषुभ फल प्रदान कर देता है। यदि व्यक्ति ने प्रातःकाल स्वप्न देखा हो तथा स्वप्न दर्षन के पष्चात् ही उसकी नींद खुल गई हो तो यह स्वप्न तत्काल फलदायी होता है। जहाँ तक रात्रि के विभिन्न प्रहरों में आए स्वप्नों से संबंधित फलों की प्राप्ति में लगने वाले समय का प्रष्न है, यह एक अत्यन्त ही जटिल विषय है। तथापि इस विषय को निम्नलिखित प्रकार से समझा जा सकता है। सूर्य सिद्धान्त के अनुसार मनुष्यों का एक वर्ष देवताओं के एक अहोरात्र के बराबर होता है। भारतीय दार्षनिक चिंतन की विचारधारा मनुष्य के भीतर स्थित जीवात्मा तथा परमात्मा में अभेद मानती है। निद्रा की अवस्था में जीवात्मा का ‘मन’ मनुष्य की हृदयगुहा में स्थित परमात्मा से मिलता है, अतः इस जीवात्मा तथा परमात्मा में ऐक्य हो जाता है। इस सम्पूर्ण निद्रा काल को उस देव वर्ष या दिव्य वर्ष के रूप में स्वीकार किया जा सकता है जो मनुष्य के 360 दिन के सौर वर्ष के बराबर होता है। इसी निद्रा काल की अलग-अलग कालावधि अथवा प्रहरों में आनेवाले विभिन्न स्वप्नों को ऋषियों ने अपने अंतज्र्ञान, सूक्ष्मदृष्टि तथा पर्यवेक्षण के आधार पर उपरोक्त समय-सीमा में निबद्ध किया है।



Ask a Question?

Some problems are too personal to share via a written consultation! No matter what kind of predicament it is that you face, the Talk to an Astrologer service at Future Point aims to get you out of all your misery at once.

SHARE YOUR PROBLEM, GET SOLUTIONS

  • Health

  • Family

  • Marriage

  • Career

  • Finance

  • Business


.