वास्तु शास्त्र का वैज्ञानिक आधार
वास्तु शास्त्र का वैज्ञानिक आधार

वास्तु शास्त्र का वैज्ञानिक आधार  

फ्यूचर पाॅइन्ट
व्यूस : 5107 | दिसम्बर 2016

वास्तु शास्त्र का वैज्ञानिक एवं आध्यात्मिक आधार है। यदि आप वेदों पर और भगवान पर विश्वास करते हैं तो कोई कारण नहीं कि वास्तु पर विश्वास न करें। जिस प्रकार हमारा शरीर पंच महाभूतों से मिलकर बना है, उसी प्रकार किसी भी भवन के निर्माण में पंच महाभूतों का पर्याप्त ध्यान रखा जाये तो भवन में रहने वाले सुख से रहेंगे। ये पंचमहाभूत हैं - पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और आकाश।

हमारा ब्रह्मांड भी इन्हीं पंच तत्वों से बना है। इसीलिए कहा जाता है- ‘‘यथा पिंडे तथा ब्रह्मांडे। भगवान ने हमें ये पांच वस्तुएं दी हैं- ‘भ’ से भूमि, ग से गगन अर्थात, आकाश, व से वायु, ा (अ) से अग्नि और न से नीर अर्थात जल। भगवान को ऊँ चिह्न द्वारा भी रेखांकित किया जाता है। ऊँ के प्रतिरूप अ से अग्नि, उ से जल और म से वायु, अर्धचंद्र से भूमि और शून्य से आकाश - इन पांच तत्वों का बोध होता है। इसी प्रकार ‘वास्तु’ शब्द भी पंच तत्वों का बोध कराता है। व से वायु, अ से अग्नि, स् से सृष्टि (भूमि), त से त् अर्थात आकाश और उ से जल।

वास्तु शास्त्र में वास्तु पुरुष की आकृति: वास्तु पुरूष वास्तु शास्त्र की सर्वाधिक महत्वपूर्ण कड़ी है। पौराणिक कथाओं में वास्तुपुरूष को भगवान शिव के पसीने से उत्पन्न हुआ माना गया है। पर हम यहां इसके तकनीकी पहलुओं पर ही चर्चा करेंगे। वास्तुपुरूष की आकृति पृथ्वी या किसी भूखंड पर इस प्रकार है कि वह मुंह नीचे किए हुए दोनों हाथ और पैरों को एक विशेष अवस्था में मोड़े हुए लेटा है। उसका सिर ईशान कोण में है। दोनों भुजाएं आग्नेय और वायव्य कोण में हैं तथा दोनों पैर के पंजे नैर्ऋत्य कोण में हैं।

वास्तुशास्त्र में ईशान कोण को खाली, स्वच्छ और हल्का रखने का कारण यह भी है कि वहां वास्तु पुरूष का सिर पड़ता है और मस्तिष्क पर अधिक भार नहीं होना चाहिए। साथ ही, नैर्ऋत्य को सबसे अधिक भारी किया जाता हैं जैसे हमारे शरीर का पूरा भार हमारे पंजों पर होता है, वैसे ही, वास्तुपुरूष के पंजे नैर्ऋत्य कोण में पड़ते हैं। अतः वास्तुशास्त्र में वह भारी वजन के लिए रखा गया है। वास्तु पुरूष की स्थिति से जो आकृति बनती है, वह वर्गाकार है।

अतः ‘वर्गाकार’ आकृति को ही वास्तु नियमों में श्रेष्ठ माना गया है। पृथ्वी का झुकाव: हमारी पृथ्वी अपनी धुरी पर एक विशेष आकृति में झुकी हुई है जिसमें यह 23 ½ नैर्ऋत्य कोण (दक्षिण-पश्चिम) से ईशान कोण (उत्तर-पूर्व) की ओर झुकी हुई है। अतः संतुलन को बनाए रखने के लिए तथा प्राकृतिक ऊर्जाओं का जो प्रभाव पृथ्वी पर है, उसे अपने भवन में बनाए रखने के लिए घर का ईशान कोण नीचा और नैर्ऋत्य कोण ऊंचा रखा जाता है। अब हम पंचमहाभूतों पर चर्चा करेंगे-

1. पृथ्वी पृथ्वी के बिना आवास और जीवन की कल्पना भी नहीं की जा सकती। पृथ्वी, गुरुत्व-शक्ति और चुंबकीय शक्ति का केंद्र है। इन्हीं शक्तियों के कारण पृथ्वी अपने धरातल पर बनने वाले भवनों को सुदृढ़ आधार देती है। वास्तुशास्त्र में भवन निर्माण के लिए भूमि की परीक्षा, मिट्टी की गुणवत्ता, भूमि की ढलान, भूखंड का आकार, भूमि से निकलने वाली वस्तुओं का शुभाशुभ विचार, भूमि तक पहुंचने के मार्ग व वेध आदि का विचार किया जाता है।

2. जल पृथ्वी के बाद महत्वपूर्ण स्थान जल का आता है। जल ही हमारे जीवन का आधार है। अधिकतर बस्तियां समुद्र, नदी एवं झील के किनारे बसी हैं। शुद्ध जल के कई सात्विक गुण हैं। जल की अधिकता से बाढ़ और कमी होने से सूखा पड़ जाता है। वास्तुशास्त्र में जल की उपलब्धता सुनिश्चित करने के लिए नल, बोरिंग, कुआं, भूमिगत टंकी, भवन के ऊपर की टंकी, सेप्टिक टैंक, सीवेज, नाली, फर्श की ढलान, छत की ढलान आदि का विचार किया जाता है।

3. अग्नि अग्नि का प्रमुख स्रोत सूर्य है जिसकी गर्मी, तेज और प्रकाश से पूरा विश्व व ब्रह्मांड प्रकाशवान है। सूर्य से सापेक्षता से पृथ्वी पर दिन-रात होते हैं, ऋतुएं परिवर्तित होती हैं, जलवायु में परिवर्तन होते हैं। वास्तु शास्त्र में भवन के अंदर अग्नि तत्व के उचित तालमेल के लिए बरामदा, खिड़कियां, दरवाजे, बिजली के मीटर, रसोई में अग्नि जलाने के स्थान आदि का विचार किया जाता है।

4. वायु जिस प्रकार हमारे शरीर में वायु शरीर का संचालन करती है, उसी प्रकार भवन में वायु स्वस्थ वातावरण का संचालन करती है। मानव के शारीरिक एवं मानसिक संतुलन को बनाए रखने के लिए भवन में खुली जगह, बरामदे, छत की ऊंचाई, द्वार, खिड़कियां व पेड़-पौधों पर विचार किया जाता है।

5. आकाश आकाश अनन्त है। इससे शब्द की उत्पत्ति होती है। आकाश में उपस्थित ऊर्जा की तीव्रता, प्रकाश, लौकिक किरणें, विद्युत चुंबकीय तरंगंे तथा गुरुत्वाकर्षण शक्ति, पृथ्वी तथा ब्रह्मस्थान खुला रखने की स्थिति पर निर्भर करता है। छत की ऊंचाई, बरामदा, खिड़की और दरवाजों का विचार करके, भवन में आकाश तत्व को सुनिश्चित किया जाता है।

इस प्रकार यह स्पष्ट होता है कि भूमि, जल, अग्नि, वायु और आकाश- इन पांचों तत्वों के उचित तालमेल से भवन का वातावरण सुखमय बनाया जा सकता है। प्रत्येक व्यक्ति धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष की कामना करता है। शरीर को चलायमान रखने के लिए अर्थ, बुद्धि को निर्मल बनाने के लिए धर्म, मन को प्रसन्न रखने के लिए काम तथा आत्मा को मोक्ष चाहिए। पंच - तत्वों का सही प्रयोग कर उनके द्वारा स्वयं को सुखमय बनाया जा सकता है।

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