वर्तमान समय में शिक्षा शब्द का अर्थ आजीविका हेतु योग्यता एवं उत्तम ज्ञान प्राप्त करना है। शिक्षा मनुष्य को उदार, चरित्रवान, विद्वान और विचारवान बनाने के साथ-साथ उसमें नैतिकता, समाज और राष्ट्र के प्रति उसके कर्तव्य और मानवीय मूल्यों के प्रति आस्था की भावना का संचार भी करती है। शिक्षित लोग भिन्न-भिन्न ढंग से मानवता की सेवा करते हैं। शिक्षा मनुष्य को विनयशील बनाती है। कहा गया है-
विद्या ददाति विनयम् विनयाद्याति पात्रताम्। पात्रत्वाद्धनमाप्नोति धनाद्धर्मः ततः सुखम् ।। अर्थात विद्या से विनयशीलता आती है, विनयशीलता से योग्यता और योग्यता हो तो धन की प्राप्ति होती है। धन हो तो मनुष्य के मन में धर्म के प्रति आस्था का संचार होता है और जहां धर्म होता है वहां हर प्रकार के सुखों की प्राप्ति होती है। प्रत्येक माता-पिता का यह परम कर्तव्य है कि वे अपनी संतान की यथेष्ठ शिक्षा की व्यवस्था करें। चाणक्य ने भी कहा है
कि पुत्र को विद्या में लगाना चाहिए क्योंकि ‘नीतिकाः शील सम्पन्नाः भवति कुल पूजिताः’। अर्थात नीतिमान तथा शील संपन्न कुल में नीतिमान तथा शील सम्पन्न व्यक्ति का ही पूजन होता है। जो माता-पिता अपनीे संतान के पठन-पाठन के प्रति सजग नहीं रहते उनके प्रसंग में कहा गया है- माता शत्रुः पिता बैरी येन बालको न पाठितः। न शोभते सभा मध्ये हंसाः मध्य वको यथा। उच्च शिक्षा हेतु किसी छात्र की जन्म कुंडली में द्वितीय, चतुर्थ, पंचम, नवम तथा एकादश भावों का सम्यक विवेचन अपेक्षित है। इनके भावेशों की सुदृढ़ता तथा नवांशों में शुभ ग्रहों के होने पर उच्च शिक्षा का योग बनता है।
इसके अलावा इन भावों की संधि के नक्षत्रों के नवमेश तथा उनके उप स्वामी के भावों के साथ अंतर संबंध होना चाहिए। जन्म कुंडली में बुधादित्य योग, गज केसरी योग, उपाध्याय योग (गुरु तथा सूर्य का द्विग्रह योग), चंद्र व बुध द्विग्रह योग, हंस योग, सरस्वती योग आदि भी होने चाहिए। पंचम भाव मेधा शक्ति तथा बौद्धिक क्षमता का भाव है। पंचमेश, पंचमेश का अन्य ग्रहों से संबंध, पंचम भावस्थ ग्रह आदि किसी की बुद्धि के स्तर तथा मेधा शक्ति के सूचक हैं। नवम भाव उच्च शिक्षा का कारक है।
नवम तथा नवमेश के सुदृढ़ होने और नवमेश का नवांश वर्गोत्तम या शुभ वर्ग होने पर उच्च शिक्षा का योग बनता है। एकादश भाव विद्या लाभ का कारक है। मजबूत एकादशेश का नवमेश तथा पंचमेश के साथ केंद्र या त्रिकोण में युति या दृष्टि संबंध हो, तो उच्च शिक्षा का योग बनता है।
चतुर्थ भाव शिक्षण संस्था का सूचक है। चतुर्थेश बली हो तो व्यक्ति का नामांकन सुंदर और बड़े शिक्षा संस्थानों में होता है। द्वितीय भाव विद्या अर्जन का भाव है। आज शिक्षा प्राप्ति के लिए आर्थिक स्थिति सुदृढ़ होना आवश्यक है। द्वितीयेश तथा लाभेश केंद्र में हों तथा दोनों के बीच भाव परिवर्तन हो तो व्यक्ति की आर्थिक स्थिति मजबूत होती है। चंद्र: किसी की मेधा शक्ति की जानकारी उसके चंद्र की स्थिति से प्राप्त की जाती है।
चंद्र के बलाबल से ही उसकी मेधा शक्ति का पता चलता है। चंद्र दुर्बल हो तथा दुःस्थान में हो तो व्यक्ति की स्मरण शक्ति दुर्बल होती है। बली चंद्र केंद्र, त्रिकोण तथा शुक्ल पक्ष की पंचमी तक हो, तो व्यक्ति की स्मरण शक्ति काफी मजबूत होती है। देखा गया है कि चंद्र वृश्चिक का हो, तो स्मरण शक्ति काफी मजबूत होती है।
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बुध: गणितीय क्षमता, अभिव्यक्ति और आकलन की क्षमता, सहज बुद्धि, विश्लेषण क्षमता, वाक् शक्ति, लेखन क्षमता आदि का पता बुध ग्रह के बलाबल से चलता है। सूर्य: सूर्य तेजस्विता तथा सफलता का द्योतक है। सूर्य की मजबूत स्थिति से छात्र महाविद्यालय या विश्वविद्यालय में अच्छा स्थान प्राप्त करते हैं। शनि, राहु, केतु तथा मंगल इनकी भूमिका उच्च तकनीकी शिक्षा में अहम होती है।
अतः पंचम तथा नवम का उनके साथ संबंध होने से व्यक्ति तकनीकी शिक्षा प्राप्त करता है। उच्च शिक्षा प्राप्त करने के तीन मार्ग हैं-
Û योग्यता के आधार पर राजकीय शिक्षण संस्थाओं में नामांकन से, योग्यता तथा पेमेंट सीट के आधार पर नामांकन से और डोनेशन देकर प्रबंधन पाठ्यक्रम में नामांकन से। योग्यता के आधार पर चयनित प्रतिभावान छात्र प्रतियोगिता परीक्षा में सफल होते हैं और उनका नामांकन राजकीय शिक्षण संस्थाओं में होता है। ऐसे छात्रों की जन्मकुंडली में गुरु केन्द्र या त्रिकोण में बली होता है। एकादशेश, पंचमेश तथा नवमेश भी केंद्र, त्रिकोण तथा एकादश भाव में होते हैं और वे शुभ नवांश के होते हैं।
इन भावों की संधियों के नक्षत्रों के स्वामियों का अंतर्सबंध होता है। साथ ही इनकी दशा, अंतर्दशा और प्रत्यंतर्दशा का भी भोग्य काल होता है। पेमेंट: इस सीट पर उच्च शिक्षा में नामांकन हेतु प्रतियोगिता परीक्षा में योग्यता के आधार पर चयनित होना पड़ता है। जन्मकुंडली में द्वितीय, पंचम, नवम तथा एकादश भाव के नक्षत्र स्वामियों का केंद्र में या द्वितीय भाव में यदि संबंध होता है तथा पंचम, नवम और द्वितीय भावों के स्वामियों के नक्षत्र के साथ यथा द्वादश भाव की संधि के नक्षत्र के स्वामियों के उपस्वामियों का संबंध इनके साथ हो, तो इस स्थिति में पेमेंट सीट पर नामांकन होता है।
डोनेशन: पंचमेश तथा नवमेश बली होकर केंद्र या त्रिकोण में हों तथा दोनों का द्वादशेश से युति या दृष्टि संबंध हो और पंचमेश, नवमेश तथा द्वितीयेश के नवांश में यदि द्वादशेश पड़ता हो, तो डोनेशन के द्वारा नामांकन होता है। नवमेश की संधि के नक्षत्र के स्वामी का उप स्वामी यदि द्वादशेश की संधि के स्वामी का उपस्वामी हो, तो डोनेशन के द्वारा नामांकन होता है। विदेश शिक्षा: यदि पंचमेश, नवमेश तथा चतुर्थेश का संबंध या इनके उपस्वामियांे का संबंध युति, दृष्टि या अन्य ढंग से द्वादश एवं अष्टम भाव से हो, तो विदेश शिक्षा का योग बनता है। उ
स्थिति के साथ ही यदि नवमेश पक्षी द्रेष्काण में हो, तो इस स्थिति में भी विदेश शिक्षा हेतु या किसी विषय में विशेषज्ञता हेतु विदेश शिक्षा का योग बनता है। पंचम तथा नवम भाव जिस ग्रह के प्रभाव में होते हैं व्यक्ति की शिक्षा उस ग्रह से संबंधित विषयों में होती है। ग्रहों से संबंधित विषयों का संक्षिप्त विवरण इस प्रकार है। सूर्य: प्रशासन, राजनीति शास्त्र, दवा, रसायन आदि। चंद्र: नौ सैन्य शिक्षा, समुद्र अभियंत्रण, मत्स्य पालन, शुगर टेक्नोलाॅजी, संगीत, नर्स, गृह विज्ञान, टेक्सटाइल टेक्नोलाॅजी, खेती, मनोविज्ञान आदि। गुरु: विधि शिक्षा शास्त्र, धर्मशास्त्र, नीतिशास्त्र, जीव विज्ञान, मानव शास्त्र, समाज विज्ञान आदि।
मंगल: सभी प्रकार का अभियंत्रण विशेषकर मेटलर्जी तथा माइनिंग, सर्जरी, पदार्थ विज्ञान, दवा, युद्ध विद्या आदि। बुध: वाणिज्य, चार्टर्ड एकाउंटेंसी, बैंकिंग, टेक्सटाइल टेक्नोलाॅजी, अर्थशास्त्र, पत्रकारिता, मास कम्युनिकेशन, गणित, आर्किटेक्ट आदि। शनि: कृषि मेकैनिकल इंजीनियरिंग, आर्कियोलाॅजी, इतिहास, वनस्पति शास्त्र, ज्योतिष। राहु व केतु: ज्योतिष, तंत्र, विद्युत अभियंत्रण, लेदर टेक्नोलाॅजी, विष विद्या, कंप्यूटर तथा कंप्यूटर विज्ञान, इलेक्ट्राॅनिक्स, टेलीकम्युनिकेशन आदि।
भारतीय ज्योतिष में फलकथन हेतु अष्टकवर्ग विद्या की अचूकता व सटीकता का प्रतिशत सबसे अधिक है।
ष्टकवर्ग विद्या में लग्न और सात ग्रहों (सूर्य, चंद्रमा, मंगल, बुध, गुरु, शुक्र और शनि) को गणना में सम्मिलित किया जाता है। शनि ग्रह द्वारा विभिन्न भावों या राशियों को दिये गये शुभ बिंदु तथा शनि का ‘शोध्यपिंड’ - ये दोनों ‘शनि अष्टकवर्ग’ से किये गये फलकथन का आधार होते हैं।
(शनि अष्टकवर्ग जैसे अनेक वर्ग व शोध्यपिंड की गणना कंप्युटर में "Leo Gold Astrological Software"की मदद से आसानी से की जा सकती है)। अष्टकवर्ग विद्या में नियम है कि कोई भी ग्रह चाहे वह स्वराषि या उच्च का ही क्यों न हो, तभी अच्छा फल दे सकता है जब वह अपने अष्टकवर्ग में 5 या अधिक बिंदुओं के साथ हो क्योंकि तब वह ग्रह बली माना जाता है। अतः यदि शनि ग्रह शनि अष्टकवर्ग में 5 या इससे अधिक बिंदुओं के साथ है तथा सर्वाष्टक वर्ग में भी 28 या अधिक बिंदुओं के साथ है तो शनि से संबंधित भावों के शुभ फल प्राप्त होते हैं।
यदि सर्वाष्टकवर्ग में 28 से अधिक बिंदु व शनि अष्टकवर्ग में 4 से भी कम बिंदु हैं तो फल सम आता है। यदि दोनों ही वर्गा में कम बिंदु हैं तो ग्रह के अषुभ फल प्राप्त होते हैं। कारकत्व के अनुसार शनि से कर्म, नौकर, मजदूर, मेहनत, रोग, बाधा, न्यायालय, आयु आदि का विचार किया जाता है। शनि अष्टकवर्ग: शनि अष्टकवर्ग से संबंधित कुछ नियम इस प्रकार से हैं:-
1. शनि के अष्टकवर्ग में लग्न से आरंभ कर शनि राषि तक और शनि राषि से आरंभ कर लग्न तक, आये सभी बिंदुओं के योग तुल्य वर्षों में व्याधि तथा कष्ट की प्राप्ति होती है। दोनों योगों के योगतुल्य वर्ष में मृत्युतुल्य कष्ट और उसी समय यदि मारक दषा हो तो निःसंदेह मृत्यु भी हो सकती है। उदाहरण के लिये विष्वनाथ, एक वकील (25.03.1952, 11ः55, गुड़गांव) की कुंडली में शनि चतुर्थ भाव में कन्या राषि में है। लग्न से कन्या राषि तक के बिंदुओं का योग 14 आता है और कन्या राषि से लग्न तक के बिंदुओं का योग 30 आता है। जातक को भी 14 वें साल में जनवरी 1966 में अष्टमेश शनि में द्वादश्ेाश शुक्र के साथ बैठे राहु की दशा में टायफाईड हुआ था।
इसके अतिरिक्त नवंबर 1981 में जब वे 30 वें साल की उम्र से गुजर रहे थे तो वाहन कारक बुध की महादशा में व अकारक राहु की अंर्तदशा में जातक का एक कार से एक्सीडेंट हुआ था जिसमें उसकी टांग की हड्डी टूट गई थी। फरवरी 1996 में जब जातक 44 वर्ष के होने को थे तो जातक को द्वादशेश शुक्र की महादशा में राहु संग बैठे शुक्र की अंर्तदशा में हार्ट अटैक हुआ था जिसमें वे मरते-मरते बचे थे।
2. षनि के अष्टकवर्ग में शनि से अष्टम या लग्न से अष्टम राषि में आये बिंदुओं को शनि के शेाध्यपिंड से गुणा कर दो, तब 27 का भाग दो, जो संख्या शेष आये उस तुल्य नक्षत्र में जब गोचर का शनि या गुरु आये तो जातक का अनिष्ट हो सकता है बषर्ते मारक ग्रह की दषा चल रही हो। उदाहरण के लिये माधव राव सिंधिया (09.03.1945, 24:00, ग्वालियर) की कुंडली को देखें तो पाते हैं कि: शनि का शोध्य पिंड 228 है। लग्न से अष्टम तक के बिंदुओं का योग 29 है।
इनका गुणनफल 6612 है तथा इसे 27 से भाग देने पर शेषफल 24 आता है जिसका तुल्य नक्षत्र शतभिषा है। इसके त्रिकोण नक्षत्र आद्र्रा व स्वाती हैं। सिंधिया की मृत्यु जब 23.12.2004 को हुई तो शनि का गोचर पुर्नवसु नक्षत्र से था यानि आद्र्रा से अभी निकला ही था जब यह अनिष्ट हुआ।
3. उपचय भावों 3-6-10-11 में यदि शनि कम से कम 3 बिंदु के साथ भी बैठा हो तो भाग्य उदय, राज्य से लाभ, पिता का सहयोग, पराक्रम से लाभ, शत्रु विजयी और धन लाभ देता है।
राहुल बजाज (01.06.1938, 05:10, कलकता) जातक एक बड़ा व्यवसायी है। उनकी वृष लग्न की कुंडली में शनि एकादष भाव में स्थित है और शनि के अष्टकवर्ग में इसके पास 4 शुभ बिंदु हैं जिस कारण जातक को पिता का चला चलाया व्यवसाय मिला, उनका सहयोग मिला और प्रचुर मात्रा में धन लाभ भी मिला।
4. अस्त और नीच का शनि जब 4 या अधिक बिंदु के साथ हो तो वह अशुभ नहीं शुभ हो जाता है। संपन्नता, नौकर-चाकर आदि देता है। उदाहरण: एक अदाकारा (13.04.1940, 12:30, मुम्बई) जातिका बॅालीवुड की एक बड़ी अदाकारा थी। उनकी कुंडली में शनि ग्रह नीच का तथा अस्त है। शनि के अष्टकवर्ग में शनि के पास 5 शुभ बिंदु भी हैं। अतः उनका शनि अशुभ न रहकर शुभ हो जाता है जिस कारण जातिका के पास नौकर-चाकर की कोई कमी नहीं रही और धन संपन्न भी रहीं।
5. यदि विष योग के जनक शनि व चंद्र दोनों लग्न में 4 या अधिक बिंदु के साथ हों तो यह एक दरिद्र योग बन जाता है। लेकिन अन्य केंद्रों में हो तो संपन्नता व राजयोग देता है।
उदाहरण 1: रज्जाक खान (24.08.1973, 02:29, दिल्ली) जातक एक मजदूर है। उसकी कुंडली में शनि व चंद्र लग्न में स्थित हैं तथा शनि के अष्टकवर्ग में उनके पास 5 बिंदु हैं जिस कारण ये एक दरिद्र योग बना और जातक गरीबी में दिन काट रहा है।
उदाहरण 2: पृथ्वी सिंह (10.09.1974, 19:28, दिल्ली) जातक एक राजनेता का बेटा है जिसकी कुंडली में शनि व चंद्र एक साथ केंद्र में हैं और शनि के अष्टकवर्ग में भी उनके पास 6 शुभ बिंदु हैं जिस कारण ये एक राजयोग बना और जातक एक संपन्न व सुखी आदमी है।
6. शनि के शोध्य पिंड को गुरु स्थित राषि में मिले शुभ बिंदुओं से गुणा कर 12 से भाग करें। शेषफल तुल्य राषि में या इसके त्रिकोण राशियों में जब भी गुरु का गोचर होगा तो वह जातक के लिये मारक सिद्ध होगा। उदाहरण: जवाहर लाल नेहरु (14.11.1889, 23:06, ईलाहाबाद) शनि का शोध्यपिंड =158 गुरु के बिंदु = 4 इसलिये 158 गुणा 4 = 632 भाग 12 शेषफल = 8 अतः 8वीं वृष्चिक राषि है और इसकी त्रिकोण राषियां हैं मीन व कर्क। नेहरु की मृत्यु के समय 27.05.1964 को गुरु मीन राशि का गोचर पूरा कर मेष राषि में था।
7. शनि के शोध्य पिंड को सूर्य राषि में शुभ बिंदुओं की संख्या से गुणा करके 12 से भाग करें तो शेषफल तुल्य राषि में या इसकी त्रिकोण राशियों में जब भी सूर्य का गोचर होगा तो जातक के लिये मारक हो सकता है।
उदाहरण: जवाहर लाल नेहरु (14.11.1889, 23:06, ईलाहाबाद) शनि का शोध्यपिंड = 158 (पिछले उदाहरण के अनुसार) सूर्य के बिंदु = 3 इसलिये 158 गुणा 3 = 474 भाग 12 शेषफल 6 अर्थात कन्या राषि है और इसकी त्रिकोण राषियां हैं मकर व वृष. नेहरु की मृत्यु के समय 27.05.1964 को भी सूर्य वृष राषि में था।
8. जन्मकुंडली में जिस भाव में शनि के अष्टकवर्ग में सबसे अधिक बिंदु हों, वहां से शनि का गोचर कृषि कार्य के लिये शुभ समय होता है।
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