यंत्राकृति में शिव-शक्ति संबंध यंत्रों को यद्यपि मंत्रों से अलग माना जाता है लेकिन वास्तविकता यह है कि यंत्र यदि शिवरूप हैं तो मंत्र उनकी अंतर्निहित शक्ति है जो डन्हें संचालित करती है और जीवन के सभी साध्यों की प्राप्ति का साधन बनती है। इस लेख में यंत्र में अंकित विभिन्न रूपाकारों की दार्शनिकता एवं रहस्यों के वैज्ञानिक आधार का निरूपण और रहस्योद्घाटन किया गया है। मनुष्य अपनी जिज्ञासु प्रवृति के कारण प्रकृति एवं ब्रह्मांड के रहस्यों के बारे में जानने के लिए सदैव प्रयत्नशील रहा है। यह भी सर्वमान्य एवं सर्वविदित है कि ब्रह्मांड में स्थित समस्त चर अचर जगत में आपसी संबंध है तथा समस्त ब्रह्मांड एक लयबद्ध तरीके से निश्चित नियमों के आधार पर कार्य करता है। भारतीय वैदिक शास्त्रों के अनुसार ब्रह्मांड की समस्त क्रियायें ब्रह्ममांड में स्थित विभिन्न शक्तियों द्वारा संचालित की जाती है। चूंकि मनुष्य भी इसी ब्रह्मांड का एक प्रमुख भाग है अतः मानव जीवन भी बहुत हद तक इन्ही शक्तियों द्वारा नियंत्रित एवं संचालित किया जाता है। ये शक्तियां मनुष्यों के जीवन को उनके कर्मों के अनुसार नियंत्रित एवं निर्देशित करती है। अतः मानव जीवन के संचालन में इन शक्तियों की अहम भूमिका होती है। भारतीय वैदिक साहित्य में ऐसी अनेक विधियों का वर्णन मिलता है जिसके माध्यम से इन शक्तियों का आवाहन किया जा सकता है तथा इनकी कृपा एवं आशिर्वाद प्राप्त किया जा सकता है। हिंदु संस्कृति में मंदिर जो कि देवी-देवताओं के पूजा स्थल होते हैं, इनका निर्माण वास्तु शास्त्र के सिद्धांतों के अनुसार किया जाता है। मंदिरों के स्थान का चयन, मूर्ति स्थापना मंदिरों के उपर स्थित गुंबद एवं ध्वजा आदि सभी का निर्माण वास्तु शास्त्र के नियमों के अनुसार तथा उपयुक्त मंत्रोच्चारण के साथ इस प्रकार किया जाता है जिससे वहां पर अधिक से अधिक आध्यात्मिक एवं दैवीय कृपा ;ैचपतपजनंस कवूदचवनतद्ध आ सके। हिंदु संस्कृति में देवी देवताओं को आवाहन करने के अनेक तरीके बताए गये हैं। पूजा करते समय बैठने का ढंग ईश्वर के सामने दंडवत, नतमस्तक होना एक स्थान पर ध्यान केंद्रित करना श्वास प्रक्रिया आत्म नियंत्रण आदि ईश्वर की आराधना के मूलभूत तरीके हैं। इनके माध्यम से मनुष्य ईश्वर के समक्ष स्वयं के शरीर एवं मन को पूर्ण रूप से समर्पित करता है। यह कहना अत्यंत सरल है। परंतु इसका पालन करना कठिन होता है। सही अर्थो में देखा जाए तो शरीर एवं मन का ईश्वर को पूर्णतः समर्पण सबसे बड़ा साधन कहा जा सकता है। यदि हम इसमें सफल हो जाते हैं तो दैवीय शक्तियों की कृपा पात्र अवश्य बनते हैं इसमें कोई संशय नहीं है। इस प्रकार कोई भी पूजा एवं अर्चना तब तक पूरा फल नहीं देती है जब तक कि आराधक या याचक इसे पूर्ण शुद्धि एवं गहनता से नही करे तथा अपने आप को ईश्वर के चरणों में पूर्णतः समर्पित न करे। क्योंकि जरा भी अहंकार साधक की संपूर्ण शक्ति का क्षय कर देता है। यह समस्त ब्रह्मांड शिव एवं शक्ति के सहयोग से संचालित होता है। शिव का अर्थ संक्षेप में ब्रह्मांड में स्थित ऊर्जा से है जिसका कोई स्वरूप नही है। जबकि प्रकृति साक्षात शक्ति है तथा ब्रह्मांड में स्थित ऊर्जा को स्वरूप प्रकृति में स्थित पांच तत्वों के सहयोग से ही मिल पाता है। इन दोनों में से एक भी अभाव में साकार संसार की कल्पना भी नहीं की जा सकती है। शिव के बिना शक्ति बलहीन है तथा शक्ति के बिना निर्गुण, निराकार शिव स्वरूप हीन व आकार हीन है। अतः यह संसार शिव एवं शक्ति दोनों के सहयोग से ही संचालित होता है। मानव शरीर इसी ब्रह्मांड का सूक्ष्म रूप कहा जा सकता है तथा यह भी शिव (आत्मा) एवं शक्ति के संयोग से ही संचालित होता है। इस प्रकार मानव शरीर में स्थित आत्मा शिव द्वारा नियंत्रित होती है जबकि मानव शरीर एवं मष्तिष्क प्रकृति जिसको कि महामाया भी कहा जाता है द्वारा संचालित होते है। इस प्रक्रिया में शिव रूप अनेक बार गौण हो जाता है तथा मस्तिष्क एवं शरीर का वर्चस्व हो जाता है जिससे आत्मा को कर्म बंधन में बंधकर जन्म-मरण की प्रक्रिया से बार-बार गुजरना पड़ता है तथा अनेक कष्ट सहने पड़ते हैं। अतः मानव जीवन के संतुलित रूप से संचालन हेतु शिव एवं शक्ति में संतुलन होना आवश्यक होता है। मानव जीवन में स्थित इस असंतुलन को दूर करने के लिये तथा इनमें आपसी सामंजस्य स्थापित करने के लिये भारतीय वेदों एवं पुराणों में अनेक विधियों का उल्लेख किया है। यंत्र, मंत्र एवं तंत्र उनमें से प्रमुख है। मंत्र: भारतीय वैदिक साहित्य में हिंदी वर्णमाला के प्रत्येक अक्षर को एक मंत्र की संज्ञा दी गई है। वही नाद ब्रह्म है। प्रत्येक मंत्र में कितने अक्षर होंगे। इसका चयन मंत्र के फल के अनुसार किया गया है। मंत्र में स्थित अक्षरों की संख्या क े अनसु ार मत्रं क े फल म ंे परिवतर्न हाते ा है। उदाहरणार्थ ऊँ नमः शिवाय में 6 अक्षर ह ंै इसलिय े इस े षडाक्षरी मत्रं कहते हैं। इसमें यदि ऊँ न प्रयुक्त किया जाये एवं केवल नमः शिवाय उच्चारित किया जाये तो यह पंचाक्षरी मंत्र बन जाता है। इसी प्रकार ऊँ नमो नारायणाय अष्टाक्षरी मंत्र कहलाता है तथा ऊँ नमो भगवते वासुदेवाय द्वादशाक्षरी मंत्र कहलाता है। इस प्रकार मंत्रों का उचित चयन करके विभिन्न दैविय शक्तितयों का आवाहन किया जाता है तथा विभिनन उद्देश्यों की पूर्ति की जाती है। यंत्र, मंत्र एवं तंत्र इन माध्यमों को अपनाकर दैवीय शक्तियों का आवाहन किया जाता है एवं उनसे प्रार्थना, याचना की जाती है जिससे कि वे मनुष्य के भौतिक, आध्यात्मिक विकास में संतुलन स्थापित कर सकें तथा मानव जीवन को सुखी बना सकें। यंत्र, मंत्र एवं तंत्र शास्त्र को एक पूर्ण विकसित आध्यात्मिक विज्ञान की संज्ञा दी जा सकती है। जिसका उद्ेश्य शरीर, मन एवं आत्मा के विकास में एक संतुलन स्थापित करना तथा मनुष्य का भौतिक एवं आध्यात्मिक विकास करना है। यदि मंत्रों को वैदिक रीति से पूर्ण शुद्धता एवं श्रद्धा के साथ उच्चारित किया जाता है तो इनके उच्चारण से निकलने वाली तरंगे उस दैवीय शक्ति के तरंगों से संपर्क स्थापित कर सकती है जिसको प्रसन्न करने के लिये ये मंत्र उच्चारित किये जाते हैं। हमारे ऋषियों को इन तरंगों की जानकारी थी तथा उन्होंने मंत्रों के माध्यम से इन तरंगों का उपयोग मनुष्य की आध्यात्मिक विकास एवं मानसिक शान्ति के लिये किया। मंत्रों का यदि विधिवत रूप से उच्चारण किया जाए तो इनसे निकलने वाली तरंगे शरीर में सकारात्मक ऊर्जा के प्रवाह को बढ़ाती है और मानव शरीर से निकलने वाली तरंगे संबंधित दैवीय तरंगों के संपर्क में आकर मानव मस्तिष्क एवं शरीर पर सकारात्मक प्रभाव डालती है। तथा शब्दों के क्रम का विपर्याय होने पर नकारात्मक ऊर्जा का प्रवाह होने लगता है। यंत्रों को सक्रिय एव शक्तिपूर्ण बनाने की क्षमता भी मंत्रों में ही हैं। उसके बिना यंत्र आकार मात्र रह जाऐंगे। यंत्र: मंत्रों की एक रेखाचित्र के माध्यम से अभिव्यक्ति को यंत्र कहते हैं। जिस प्रकार मानव शरीर विशालकाय ब्रह्मांड का सूक्ष्म रूप है। उसी प्रकार विशालकाय ब्रह्मांड को सूक्ष्म रूप में अभिव्यक्त करने के लिये ये यंत्र बनाये जाते हैं। यहां यह उल्लेखनीय है कि मंत्रों एवं यंत्रों का आविष्कार किसने किया है यह कहना बहुत कठिन है क्योंकि इसका कहीं पर भी उल्लेख नहीं मिलता है। चूंकि इन यंत्रो का उल्लेख वेदों एवं पुराणों में मिलता है और वेदों के बारे में कहा जाता हैं कि वे अपौरूपेय है इसलिए उनमें मंत्रों के रचयिताओं का इतिहास और जीवनवृत न होकर जीवन दर्शन और रहस्य सूत्र रूप में ही निरूपित हुआ है। जो कि भाषा और शब्दों की श्लेष शक्ति का पूर्ण समावेश है। अतः यंत्र एवं मंत्रों का रचना भी दैविय शक्तियों द्वारा ही की गई है। इन मंत्रों का रहस्योदघाटन हमारे ऋषि एवं मुनियों ने किया है। जिससे आम आदमी इनका लाभ उठा सके। यंत्रों में मुख्यतः 5 प्रकार की आकृतियों या रेखाचित्रों का प्रयोग किया जाता है। अर्थात बिंदु, वृत, त्रिकोण, वर्ग एवं षटकोण। बिंदु: बिंदु आकाश तत्व का द्योतक है। बिंदु प्रत्येक आकार का आधार एवं आरंभ इंगित करता है। दूसरे शब्दों में बिंदु के बिना किसी आकार का आरंभ व अंत निश्चित करना कठिन ही नहीं वरन् असंभव है। बिंदु के अंदर नैसर्गिक गतिशीलता होती है जिसके आधार पर यह प्रत्येक आकार एवं तत्व में अनुप्रविष्ठ ;च्मदमजतंजमद्ध होता है। बिंदु को आकाश की संज्ञा दी जाती है क्योंकि पृथ्वी पर स्थित समस्त चर अचर जगत का आरंभिक बिंदु या जड़ आकाश ही है। बिंदु एक प्रकार की शक्ति है जो कि ऊर्जा प्रवाहित करती है। ये बिंदु किसी भी यंत्र का केंद्र होती है। तंत्र शास्त्र में बिंदु को साक्षात शिव की संज्ञा दी गई है जो कि समस्त शक्तियों का स्रोत है। किसी भी यंत्र के मध्य में स्थित बिंदु विभिन्न रेखाचित्रों से घिरी रहती है ये रेखाचित्र विभिन्न दैवीय शक्तियों को दर्शाते हैं तथा बिंदु इनकी शक्ति के स्रोत के रूप में दिखाई जाती है। सरल रेखा: एक बिंदु को जब दूसरे बिंदुओं से मिलाते हैं तो सरल रेखा बनती है। वस्तुतः रेखाएं बिंदु पथ ही है। ये दो बिंदु परमात्मा एक जीवात्मा, सुख-दुख, रात्री दिवस आदि को इंगित करते हैं। इस प्रकार सरल रेखा इंगित करता है कि जीवात्मा एवं परमात्मा, सुख दुख आदि एक ही सिक्के के दो पहलू हैं तथा इन्हें अलग नहीं किया जा सकता है। दूसरे शब्दों में सरल रेखा यह इंगित करती है कि जीवात्मा परमात्मा का ही अंश है। वृत्त: वृत की कल्पना करते ही एक चक्राकार आकृति आंखों के सामने उभर कर आती है। जब एक बिंदु के चारो ओर दूसरी बिदु को घुमाया जाए तो उसकी चक्राकार गति होती है। इस चक्राकार गति को प्राकृतिक जगत में घूर्णन ;ॅीपतसचववसद्ध क्रिया कहते हैं। वायु सदैव चलायमान है अतः वृत वायु तत्व बन प्रतिनिधित्व करता है। त्रिकोण: त्रिकोण को वैदिक साहित्य में अत्यधिक महत्ता दी गई है। देखा जाए तो त्रिकोण वह पहला द्वि आयामी रेखाचित्र है जो कि एक स्थान को घेरता है। उघ्र्व मुखी त्रिकोण अग्नि तत्व का बोध कराता है क्योंकि अग्नि की गति सदैव अघ्र्वमुखी होती है। यह त्रिकोण उन्नति एवं प्रगति का द्योतक है। वैदिक साहित्य में इसे शिव की संज्ञा दी जाती है। इसका ऊपर से संकरा तथा नीचे से फैला होना ये इंगित करता है कि जीवात्मा का जड़ आकाश में है तथा इसका विस्तार पृथ्वी पर होता है। अधोमुखी त्रिकोण: जल तत्व का प्रतिनिधित्व करता है। जल के बिना जीवन असंभव है। जल की गति अधोमुखी होती है। इसका नीचे से संकरा तथा ऊपर से फैला होना जीवात्मा का पांच तत्वो के माध्यम से पृथ्वी पर फैलाव एवं इसका सांसारिक जगत में बहुत गहरे तक उलझना इंगित करता है। वर्ग: किसी भी यंत्र की बाहरी सीमा आम तौर पर वर्गाकार होती है तथा इसका आरंभ मध्य बिंदु से होता है। इस प्रकार प्रत्येक यंत्र ब्रह्मांड के विकास को सूक्ष्म रूप में प्रस्तुत करता है जो कि आकाश से आरंभ होकर पृथ्वी पर पूर्ण विकसित होता है। वर्गाकार रेखाचित्र पृथ्वी तत्व का प्रतिनिधित्व करता है क्योंकि विस्तार पृथ्वी का गुण है या दूसरे शब्दों में आकाश से आई ऊर्जा का विकास पृथ्वी पर ही होता है। अतः चतुर्भुज बिंदु का चारों दिशाओं में फैलाव पृथ्वी तत्व का प्रतिनिधित्व करता है। तांत्रिकों के क्षेत्र में सूर्य योग के द्वारा ही आकाशीय शक्ति में से भौतिक पदार्थों का सृजन किया जाता है। षटकोण: उध्र्वामुखी एवं अधोमुखी त्रिकोण से मिलकर बनने वाला षटकोण शिव एवं शक्ति दोनों के संयोग को प्रदर्शित करता है। इसके बिना संसार की कल्पना भी नहीं की जा सकती है। इन षटकोणों के मध्य में स्थित खाली स्थानों को यंत्रों में शिव एवं शक्ति का क्रीडा स्थल माना जाता है। इसी कारण इन खाली स्थानों में विभिन्न अंक या मंत्र इस प्रकार लिखे जाते हैं जिससे कि इन दोनों की कृपा एवं आशिर्वाद प्राप्त किया जा सके। यंत्रों में उपर्युक्त आकृतियों का प्रयोग विभिन्न प्रकार से किया जाता है तथा ब्रह्मांड के विशालकाय रूप को सूक्ष्म रूप में दर्शाया जाता है। इन आकृतियों का विभिन्न यंत्रों में विभिन्न शक्तियों के आवाहन लिए भिन्न-भिन्न रूप से प्रयोग किया गया है तथा इनमें प्रयुक्त किये जाने वाले मंत्रों एवं अंको का चयन भी संबंधित शक्ति के अनुसार ही किया गया है। यह माना जाता है कि जब कोई व्यक्ति मंत्रों द्वारा अभिमंत्रित यंत्र पर अपना ध्यान केन्द्रित करता है तो उसका मष्तिष्क एवं शरीर उस यंत्र की आकार शक्ति से प्रभावित होता है और धीरे-धीरे व्यक्ति को संबंधित शक्तियों की कृपा एवं आशिर्वाद प्राप्त होने लगता है। इस प्रकार यंत्र एवं मंत्र ब्रह्मांड में स्थित विभिन्न शक्तियों तक पहुंचने का या उनका आवाहन करने का एक सशक्त माध्यम है। यदि इन यंत्रों को विधिवत प्रकार से अभिमंत्रित करके इनकी पूजा अर्चना की जाए तथा इन पर ध्यान केन्द्रित किया जाये तो इसमें कोई संदेह नहीं है कि ये हमें संबंधित शक्तियों की कृपा का पात्र बन सकते हैं। ज्योतिष शास्त्र में यंत्र, मंत्र एवं तंत्र के अतिरिक्त बहुत सी दुर्लभ सामग्रियों जैसे औषधि, रत्न, रंगो एवं पदार्थों का भी अत्यधिक महत्व है। जैसा कि पहले ही बताया जा चुका है कि संपूर्ण ब्रह्मांड में स्थित सभी तत्व परस्पर संबंधित है। अतः एक ग्रह द्वारा मनुष्य ही नहीं वरन ब्रह्मांड के अनेक दूसरे तत्व भी नियंत्रित होते हें। इस प्रकार ज्योतिष शास्त्र में यदि किसी ग्रह से संबंधित किसी तत्व की मानव जीवन में कमी पाई जाती है तो उसे ;उनजनंस तमेवदंदबमद्ध परस्पर संबंध के इस सिद्धांत के आधार पर उस ग्रह से नियंत्रित अन्य तत्वों का प्रयोग करके पूरा करने का प्रयास किया जाता है।