प्रत्येक समाज में विवाह के रीति रिवाज समाज के प्रतिष्ठित व्यक्तियों की उपस्थिति में धर्मगुरूओं द्वारा संपादित किये जाते रहे हैं, इसलिये यह कार्य, अलिखित होते हुये भी, स्थायी माने जाते रहे हैं। लेकिन शायद अब, आज के समय में, उसकी आवश्यकता नहीं रह गयी है या नहीं समझी जाती है।
फलस्वरूप ये संबंध अस्थायी और विवादास्पद बनते जा रहे हैं। धर्म शास्त्रों ने सृष्टि विस्तार के इस कार्य (विवाह) को इतना स्थिर, जन्म जन्मांतर तक चलने वाला और अनिवार्य बताया है कि समाज हर सूरत में इसे अनिवार्य ही मानता आया है।
परंतु क्या आज भी इस संस्कार का पालन होता है? शायद नहीं। पाश्चात्य सभ्यता सृष्टि विस्तार के लिये विवाह के बंधन को अनिवार्य नहीं मानती है, उन्मुक्त हो कर स्त्री व पुरूष का बिना विवाह किये एक साथ गृहस्थ व्यक्तियों की तरह से रहना व जीवनयापन करना धर्मशास्त्रों को चुनौती देते प्रतीत होते हैं। यही कारण है कि आज के दौर में स्त्री-पुरूष के बीच अलगाव व शोषण की घटनाओं की वृद्धि होती जा रही है।