किसी नए भूखंड को खरीदने से पहले किसी वास्तु विशेषज्ञ से उसकी जांच करवा लेना आवश्यक है। भूमि के परीक्षण में निम्नांकित सिद्धान्तों कापालन करना चाहिए:
-1 फीट X 1 फीट गहरा गडक्का खोदें तथा उसमें से निकली हुई मिट्टी से उसे भर दें। यदि भरने के उपरांत भी कुछ मिट्टी बच जाती है तो वह भूमि अति श्रेष्ठ है, यदि उस मिट्टी से गडक्का पूरा-पूरा भर जाय तो वह मध्यम किस्म की भूमि है तथा यदि मिट्टी से गडक्का पूरी तरह न भरे बल्कि खाली रह जाय तो ऐसी भूमि अशुभ है।
- डेढ़ पफीट गडक्का भूमि के उत्तरी दिशा में खोदें तथा इसे पानी से पूरी तरह भर दें तथा उत्तर की ओर सौ कदम बढ़ें अथवा गडक्के को 120 सेकंड के बाद देखें। यदि गडक्का पूरी तरह से भरा रहता है तो यह अति श्रेष्ठ है, यदि आध भरा रहता है तो यह मध्यम तथा यदि यह खाली हो जाता है तो ऐसी भूमि अशुभ है।
- विश्वकर्मा प्रकाश में भूमि परीक्षण के एक अद्वितीय प(ति का विवरण है। गडक्के को चूने से रंग दें तथा इसकी चारों दिशाओं में चार घी का दीपक जलाएं तथा देख कि किस दिशा का दीपक सबसे अध्कि प्रकाश दे रहा है। यदि उत्तर दिशा के दीपक का प्रकाश सर्वाध्कि है तो भूमि ब्राह्मण है, यदि पूर्व दिशा का दीपक अध्कि शक्तिशाली प्रकाश दे रहा है तो वह भूमि क्षत्रिय है, पश्चिम दिशा की ओर अध्कितम प्रकाश वैश्य भूमि का द्योतक है तथा दक्षिण दिशा में सर्वाध्कि प्रकाश शूद्र भूमि का द्योतक है।
- जिस भूमि पर आप गृह निर्माण करना चाहते हैं उस भूमि को जोत लें तथा उसमें हर प्रकार के अनाज बो दें। यदि इन अनाजों के अंकुर तीन दिन में निकल आते हैं तो यह सर्वश्रेष्ठ है, यदि अंकुर 5 दिन में निकलते हैं तो यह मध्यम है तथा अंकुर 7 दिनों के उपरांत निकलते हैं तो यह भूमि अशुभ है। यदि विभिन्न प्रकार के बीज उपलब्ध् न हों तो ऐसी स्थिति में धन बोया जा सकता है। भूमि के उन हिस्सों में निर्माण नहीं करना चाहिए जहां धन के पौघे नहीं उगें।
- सात प्रकार की औषध्यिां होती हैं - व्रीहि, हरा मूंग, गेहूं, सरसों, साठी, तिल एवं जौ। ये सभी बीज कहे जाते हैं। इन बीजों को बोने के उपरांत इनके परिणाम देखें। वह भूमि जहां ताम्र एवं स्वर्ण रंग के पफूल उगें तो ऐसी भूमि कापफी शुभ होती है।
- कई बार निर्माण से पूर्व किसी भूमि की जांच नहीं की जाती है जो कि गलत है क्योंकि इसका परिणाम कापफी घातक साबित हो सकता है। उदाहरण के लिए यदि निर्माण किए जाने वाले भूखंड में बाल, हड्डियां, गंदे कपड़े, अंडे का ढांचा, दीमक एवं अजगर के अंडे हों तो वैसे भूखंड पर गृह निर्माण करने से दुःखद घटनाएं घटित होती रहती हैं। यदि भूमि से जला हुआ कोयला प्राप्त हो तो यह बीमारी लाता है, भीख मांगने वाला कटोरा अथवा लोहा मृत्यु के संकेतक हैं। हड्डियां, खोपड़ी एवं बाल इत्यादि गृह स्वामी के जीवन को कम करते हैं।
भूमि के प्रकार वास्तु शास्त्रा के प्राचीन ग्रंथों के अनुसार भूमि को चार समूहों में वर्गीकृत किया गया है:
1. ब्राह्मण भूमि जिस भूमि का रंग सपफेद हो तथा जिसका सुगंध् घी की भांति हो, जिसका स्वाद अमृत की भांति मीठा एवं जिसका स्पर्श सुखद हो उस भूमि को ब्राह्मण भूमि कहा जाता है। इस भूमि पर कुश एवं दूर्वा जैसे पेड़ उगते हैं जिसका उपयोग होम के लिए किया जाता है। ऐसी भूमि आध्यात्मिक एवं हर प्रकार के सुख प्रदान करती है। ऐसी भूमि का उपयोग विद्यालय, मंदिर, अतिथिशाला एवं साहित्यिक संस्थानों के निर्माण के लिए किया जाता है।
2. क्षत्रिय भूमि वैसी भूमि जिसका रंग लाल, गंध् रक्त की भांति, स्वाद कड़वा तथा स्पर्श का अनुभव कठोर हो उसे क्षत्रिय भूमि कहा जाता है। ऐसी भूमि पर सर्प भी निवास करते हैं। ऐसी भूमि साम्राज्य, शक्ति एवं प्रभाव में वृ(ि करती है। ऐसी भूमि सरकारी कार्यालय, सैनिक छावनी, सैनिकों की काॅलोनी एवं शस्त्रागार के निर्माण के लिए उपयुक्त होती है।
3. वैश्य भूमि जिस भूमि का रंग हरा-पीला हो तथा उसका गंध् मध्ुरस की भांति तथा स्वाद अम्लीय हो उसे वैश्य भूमि कहा जाता है। इस प्रकार की भूमि में अनाज एवं पफल के वृक्ष उगते हैं। वैश्य भूमि ध्न में वृ(ि करता है। इस प्रकार की भूमि का उपयोग व्यावसायिक भवनों, दुकानों एवं व्यवसायियों के आवास के निर्माण के लिए किया जा सकता है।
4. शूद्र भूमि जिस भूमि का रंग काला हो तथा जिसका गंध् शराब की भांति, स्वाद तीखा हो उसे शूद्र भूमि कहा जाता है। ऐसी भूमि पर निरर्थक झाड़ियां एवं पेड़-पौध्े उगे होते हैं। यह भूमि लड़ाई-झगड़े एवं विवाद करते हैं अतः यह भूमि आवासीय भवनों के निर्माण के लिए कतई उपयुक्त नहीं है।
इस प्रकार भूमि का वर्गीकरण रंग, गंध् एवं स्वाद के आधर पर किया गया तथा इसके अनुसार क्षत्रिय भूमि सैनिक छावनी एवं शस्त्रागार के निर्माण के लिए उपयुक्त है, वैश्य भूमि व्यावसायिक गतिविध्यिों के लिए उपयुक्त है जबकि ब्राह्मण भूमि का उपयोग विद्यालय एवं मंदिरों के निर्माण के लिए किया जा सकता है। किंतु आध्ुनिक काल में इस वर्गीकरण के आधर पर भवनों का निर्माण करना संभव नहीं है। उदाहरण के लिए कर्नाटक की मृदा लाल है तथा गुजरात एवं महाराष्ट्र की काली है जबकि द्वारकापुरी की मृदा सपफेद है। इन परिस्थितियों में क्या कर्नाटक में विद्यालय, मंदिर एवं साहित्यिक संस्थानों का निर्माण संभव है? अतः ये तथ्य वास्तविकता से कापफी दूर प्रतीत होते हैं।
आध्ुनिक काल में ऐसी भूमि पर निर्माण किया जा सकता है जो उपजाऊ हो तथा जहां जल की अनवरत उपलब्ध्ता हो तथा जहां की मिट्टðी सख्त हो जिसपर कि भवन स्थिर एवं मजबूत बना रहे। जो भूमि दक्षिण-पश्चिम, पश्चिम एवं उत्तर-पश्चिम में उठा हुआ हो उसे भूमि की सतह के आधार पर परीक्षण भूमि की कठोर केंद्रीय परत सतह कही जाती है। सतह के आधर पर भूमि का वर्गीकरण निम्नांकित है:
1. गजपृष्ठ गजपृष्ठ कहा जाता है। गजपृष्ठ भूमि पर निर्मित भवन कापफी शुभ माना जाता है तथा कहा जाता है कि ऐसी भूमि पर देवी लक्ष्मी का वरदान होता है तथा इस पर निवास करने वाले लोगों के ध्न एवं आयु में वृ(ि होती है।
2. कूर्मपृष्ठ जो भूमि मध्य में उठा हुआ एवं चारों दिशाओं में नीचा हो उसे कूर्मपृष्ठ कहा जाता है। ऐसी भूमि आवास के दृष्टिकोण से शुभ होती है। ऐसी भूमि में निवास करने से उत्साह में निरंतर वृ(ि होती है तथा इसपर निवास करने वाले लोगों को सुख, ध्न एवं समृ(ि की प्राप्ति होती है।
3. दैत्य पृष्ठ जिस भूमि का ईशान, पूर्व एवं आग्नेय ऊंचा उठा हुआ हो तथा पश्चिम का क्षेत्रा नीचा हो उसे दैत्य पृष्ठ कहते हैं। दैत्य पृष्ठ भूमि पर निर्मित भवन को देवी लक्ष्मी की कृपा प्राप्त नहीं होती तथा उस घर में पुत्रों एवं संपत्ति का निरंतर नाश होता है।
4. नाग पृष्ठ जो भूमि पूर्व एवं पश्चिम में लंबा तथा दक्षिण एवं उत्तर में ऊंचा उठा हुआ हो उसे नाग पृष्ठ कहते हैं। नागपृष्ठ भूमि पर निवास करने से परिवार के सदस्यों में मानसिक बीमारी पनपने लगती है तथा गृह स्वामी के शत्राुओं की संख्या में वृ(ि होती है। इस भूमि पर निर्मित भवन में निवास करने से पत्नी एवं संतान की हानि होती है। भूमि की ढलान भूमि की जांच के समय हमें इस बात पर भी ध्यान देना चाहिए कि किस दिशा में जमीन की ढलान है तथा किस दिशा में यह ऊंचा है। पूर्व की ओर ढलान यदि जमीन की ढलान पूर्व की ओर है तो इस भूमि पर निर्मित आवास में रहने वाले लोगों को ध्न लाभ होता है।
यह भूमि विकास एवं उन्नति के लिए शुभ माना जाता है। उत्तर की ओर ढलान भूमि की ढलान उत्तर की ओर होने से समृ(ि एवं सौभाग्य में वृ(ि होती है। यह वंश वृ(ि में भी सहायक होता है। पश्चिम की ओर ढलान पश्चिम की ओर ढलान होने से ध्न एवं बु(ि का नाश होता है। यह परिवार में नियमित मतभेद भी उत्पन्न करता है। दक्षिण की ओर ढलान दक्षिण की ओर ढलान रोग उत्पन्न करता है तथा यह असामयिक मृत्यु का भी कारण बनता है। उत्तर-पूर्व की ओर ढलान उत्तर-पूर्व की ओर ढलान से चहुंमुखी सपफलता, सौभाग्य, नाम, यश एवं समृ(ि में वृ(ि होती है।
उत्तर-पश्चिम की ओर ढलान यदि उत्तर-पश्चिम की ओर ढलान उत्तर-पूर्व की अपेक्षा नीची है तो ऐसी भूमि पर निवास करने वाले लोगों के अनेक शत्राु होते हैं तथा उनके घर में निरंतर चोरी होती रहती है। गृह स्वामी पर हमेशा आक्रमण होते रहते हैं तथा वह न्यायिक विवादों में उलझा रहता है। परिवार के सदस्यों का स्वास्थ्य हमेशा चिंता का विषय बना रहता है। दक्षिण-पूर्व की ओर ढलान यदि दक्षिण-पूर्व की ओर ढलान उत्तर-पूर्व की अपेक्षा नीची हो तो ऐसी भूमि पर हमेशा आग एवं शत्राुओं से भय रहता है। यह विशेषकर महिलाओं एवं बच्चों के लिए ज्यादा अशुभ साबित होता है। ऐसे मकान में हमेशा चोरी, धेखाध्ड़ी, विवाद एवं न्यायिक मामले उत्पन्न होते रहते हैं। दक्षिण-पश्चिम की ओर ढलान दक्षिण-पश्चिम राहु की दिशा है। इस दिशा में ढलान रहने से स्वाभाविक रूप से परिवार पर राहु का वर्चस्व बढ़ जाता है।
इसके परिणामस्वरूप घर में निवास करने वाले लोगों के व्यवहार में उग्रता एवं उद्दंडता आ जाती है तथा उन्हें शराब, ड्रग, सिगरेट, जुआ, अपराध् आदि की लत लग जाती है। इनके शत्राुओं की संख्या मंे निरंतर वृ(ि होती रहती है, ऐसे घर पर प्रेतात्माओं का भी वास होता है। इन्हें अचानक उत्पन्न संकट तथा असामयिक मृत्यु का भी सामना करना पड़ता है।
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