‘‘मेरे तो गिरधर गोपाल दूसरो न कोई। जाके सिर मोर मुकुट मेरो पति सोई।।’’ आज हम बात कर रहे हैं, श्रीकृष्ण की अनन्य साधिका मीराबाई की। मीरा के कृष्ण प्रेम व भक्ति से सभी परिचित हैं। यद्यपि मीरा के जन्म वर्ष व तिथि से संबंधित अनेक तथ्य प्रचलित हैं किंतु उनमें से सर्वाधिक मान्यता प्राप्त तथ्य है कि 1504 ईसवीं में मेडतिया शाखा के प्रवर्तक रावदूदाजी के पुत्र रतन सिंह के घर में मीरा का जन्म हुआ। मीरा के माता-पिता व भाई तथा अन्य सभी परिवारी जन ईश्वरीय श्रद्धा से लबालब थे। सर्वत्र भक्तिपूर्ण माहौल था। मीरा के पिता रतनसिंह धार्मिक प्रवृत्ति के दयालु व पराक्रमी व्यक्ति थे। वे अपनी प्रिय बेटी मीरा के हाथों पूज्यनीय व वंचित दोनों तरह के लोगों को दान व सहायता दिलाते थे। यही कारण था कि मीरा के कोरे कागज जैसे मन पर दीन-हीन समाज के लिए करूणा और संस्कारों के प्रति सम्मान के भाव गहराई तक छप गये थे।
आइये जानते हैं मीरा की कुंडली से कि ग्रहों का कैसा संयोजन हुआ जिसके कारण सारा राज-पाट, सुख-वैभव छोड़कर मीरा भक्ति रस में डूब गई। मीरा बाई की कुंडली है कर्क लग्न की, लग्नेश चंद्रमा सप्तमेश व अष्टमेश शनि के नक्षत्र में व राहु के उप नक्षत्र में है। चंद्रमा लग्नस्थ है साथ में द्वितीयेश सूर्य, षष्ठेश व भाग्येश बृहस्पति, सप्तमेश व अष्टमेश शनि भी विराजमान हैं। धनेश सूर्य लग्न में लग्नेश से युत है। लग्नेश व धनेश के साथ ही भाग्येश बृहस्पति की युति राजयोग का निर्माण कर रही है। बृहस्पति कर्क राशि में उच्च के होते हैं। लग्न में बैठकर पंचम, सप्तम व भाग्य भाव पर पूर्ण दृष्टि डाल रहे हैं। बृहस्पति व चंद्र की युति गजकेसरी योग भी निर्मित कर रही है। उपर्युक्त राजयोगों के कारण ही मीराबाई का जन्म राजघराने में हुआ और उनका विवाह भी उदयपुर के महाराणा सांगा के पुत्र कुंवर भोजराज से हुआ।
विभिन्न राजयोगों ने जहां मीरा को राजसी वैभव दिया वहीं शनि व चंद्रमा की युति ने उन्हें वैराग्य प्रदान किया। कर्क लग्न में चंद्रमा लग्नेश और शनि अष्टमेश होते हैं। अष्टम भाव गहराई का भाव है, अनुसंधान का भाव है, अष्टम भाव आयु का भाव है। अंतिम सत्य का भाव है और फिर जब शनि अष्टम के स्वामी होकर लग्नेश के साथ युित में हो तो कहना ही क्या? दंडाधिकारी न्यायप्रिय शनि जातक को सत्य के दर्शन करा ही देते हैं। मीराबाई की कुंडली में लग्नेश चंद्रमा, धनेश सूर्य, भाग्येश बृहस्पति व अष्टमेश शनि का चतुग्र्रही योग स्वयं शनि जो कि अष्टमेश व मारकेश है, के नक्षत्र में बना हुआ है। कहने का तात्पर्य है कि मीरा की कुंडली पर सर्वाधिक प्रभाव डालने वाले ग्रह हैं शनि। शनि वैराग्य के कारक हंै जिन्होंने भाग्येश बृहस्पति, जो कि धर्म के कारक हंै, के साथ मिलकर लग्नेश चंद्रमा को अपने पूर्ण प्रभाव में ले लिया।
यही कारण था कि बचपन में एक बारात को देखकर मीरा ने अपनी मां से प्रश्न किया कि मेरा दूल्हा कहां हैं तो मां ने भगवान कृष्ण की ओर इशारा करके मीरा के बाल मन को झूठ से बहला दिया लेकिन मीरा के बाल मन ने कृष्ण को पति परमेश्वर मानकर अपना पूरा जीवन ही उनकी सेवा में समर्पित कर दिया। जिस प्रकार मीरा की मां मीरा के पिता की सेवा करती थीं वैसे ही मीरा गिरधर गोपाल की सेवा करने लगीं। सप्तमेश शनि अपने ही नक्षत्र और व्ययेश बुध के उप नक्षत्र में है। शनि लग्न में लग्नेश चंद्र से युत हैं। यद्यपि मीरा ने भोजराज को कभी अपना पति नहीं माना किंतु दोनों के मध्य अत्यंत सम्माननीय और मैत्रीपूर्ण संबंध थे। लग्नेश चंद्र शनि के नक्षत्र में और अष्टमस्थ राहु के उपनक्षत्र में होने के कारण ही मीरा को भौतिक जगत से वैराग्य प्राप्त था।
वे अपने पति की सेवा और उनका सम्मान तो करती थीं किंतु उन्हें प्रेम तो केवल गिरधर गोपाल से ही था। कर्क लग्न की कुंडली में अष्टमेश शनि सप्तम में या लग्न में हो तो वैधव्य सूचक होता है। विवाह के कुछ समय पश्चात ही युद्ध में घायल होने के कारण भोजराज की मृत्यु हो गई। मीरा से सती होने के लिए कहा गया किंतु मीरा साधारण स्त्री नहीं थी। उनका कहना था कि सारे जगत को जीवन देने वाले उनके पति गिरधारी की मृत्यु तो संभव ही नहीं है। भोजराज की मृत्यु के पश्चात मीरा की साधना में बाधा पड़ने लगी जिसके कारण मीरा ने राजमहल का त्याग कर दिया। मीरा की कुंडली में धनेश सूर्य अपने से द्वादश भाव में लग्न में है। सुखेश शुक्र जो कि लाभेश भी है द्वादश भाव में अष्टम भाव में स्थित राहु के नक्षत्र में और अपने ही उपनक्षत्र में है।
उनके अधिकांश ग्रह सप्तमेश शनि के नक्षत्र में है या शनि के नक्षत्र में बैठे ग्रहों के नक्षत्र और उपनक्षत्र में हैं। अष्टम भाव को छ्रिद्र भाव भी कहते हैं और अष्टम भाव नवम का द्वादश अर्थात व्यय भाव भी है। कहने का तात्पर्य यह है कि मीराबाई को भाग्य के प्रभाववश जो भी राजसी वैभव व संपन्नता प्राप्त हुई उसका उन्होंने त्याग किया। पंचम भाव ज्ञान, बुद्धि व मन का भाव होता है। पंचमेश मंगल षडबल में सर्वाधिक बली है और सूर्य के नक्षत्र में, चंद्रमा के उपनक्षत्र में है। मंगल द्वितीय भाव से पंचम भाव, अष्टम भाव व नवम भाव को पूर्ण दृष्टि प्रदान कर रहे हैं। मंगल ही कर्मेश भी हैं। सूर्य पृथकतावादी ग्रह है। सूर्य के प्रभाववश शनि, बृहस्पति, चंद्र अस्त हैं। मंगल के बाद सूर्य षड्बल में बली है। सूर्य के पृथकतावादी स्वभाव के कारण भी मीरा बाई को भौतिक जगत में रूचि नहीं थी। वे तो इस भौतिक जगत को बनाने वाले कृष्ण कन्हैया में ही रमण करती थीं।
एकक्र्ष संस्थैश्चतुरादिनैस्तु ग्रहैवेदेत्तत्र्र बलन्वितेन। प्रव्रज्यकां तत्र वदन्ति केचित् कर्मेशुल्यां सहिते खनाथे।। 2।। फलदीपिका, सत्ताइसवां अध्याय यदि चार ग्रह एक साथ हों तो उन चारों में जो बली हो उस बली ग्रह के अनुसार प्रव्रज्या होती है। मीरा बाई की कुंडली में सू., चं., बृ., व श. का चतुर्ग्रही योग लग्न में बना हुआ है। सूर्य सर्वाधिक बली है जो कि जातक को ‘योगीश’ बनाता है। ‘‘सुस्थाने बलिनस्त्रयों यदि तदा सन्याससिद्धि र्भवेत। यदि तीन ग्रह बली अच्छे स्थान में हों, तो संन्यास सिद्धि होती है। यह योग भी मीरा बाई की कुंडली में दृष्टव्य है। कहा जाता है कृष्ण जन्माष्टमी के दिन मीरा नाचते-नाचते श्री रण छोड़ राय जी के मंदिर में प्रवेश कर गईं। देखते-देखते कपाट बंद हो गये। जब दरवाजे खोले गए तो मीरा वहां नहीं थीं। वे कान्हा की मूर्ति में ही विलीन हो गईं।