पृथ्वी के स्थिर मानने पर सूर्य सापेक्ष रूप से पृथ्वी का चक्कर लगाता हुआ प्रतीत होता है और चंद्रमा तो पृथ्वी के चारों ओर चक्कर लगाता ही रहता है, इसी कारण सूर्य और चंद्रमा कभी वक्री गति से भ्रमण करते हुए प्रतीत नहीं होते हैं। राहु एवं केतु के काल्पनिक कटाव बिंदु हैं। चूंकि पृथ्वी एवं चंद्रमा अपनी-अपनी कक्षाओं में निर्धारित दिशा एवं गति से भ्रमण करते हैं इसलिए यह बिंदु (राहु एवं केतु) अन्य ग्रहों के विपरीत सदैव वक्री भ्रमण करते प्रतीत होते हैं। सभी ग्रह घड़ी की सूई की विपरीत दिशा में सूर्य का चक्कर लगाते हैं, किंतु कभी-कभी पृथ्वी से देखने पर इनकी गति विपरीत दिशा में (अर्थात डाॅ. अमित कुमार ‘राम’ पश्चिम से पूर्व) होना प्रतीत होती है, जिसे ग्रह की वक्री अवस्था कहते हैं। पृथ्वी और सूर्य के मध्य जब बुध एवं शुक्र आते हैं तो वे वक्री होते हैं।
अन्य ग्रह (मंगल, गुरु, शनि, हर्षल, नेप्च्यून, प्लूटो) और सूर्य के मध्य जब पृथ्वी आ जाती है तो संबंधित ग्रह वक्री हो जाते हंै। दोनों ही स्थितियों में संबंधित ग्रह पृथ्वी के निकट होने के कारण वक्री गति से चलायमान प्रतीत होते हैं। ग्रहों की गति एवं कक्षा निश्चित होने के कारण प्रत्येक ग्रह के वक्री होने का समय निश्चित रहता है जिसे तालिका में दर्शाया गया है। चूंकि ग्रह जब भी वक्री होते हैं, वे पृथ्वी के अधिकतम समीप होते हैं। इसलिए पृथ्वी पर उनकी किरणों का प्रभाव सर्वाधिक परिलक्षित होता है। अस्तु, वक्री ग्रह अपनी प्रकृति के अनुरूप अधिक फलदायी हो जाते हैं। इसीलिए ज्योतिष में वक्री ग्रह को अति बलवान माना गया है। ‘‘क्रूरा वक्रा महाक्रूराः सौम्या वक्रा महाशुभाः’’ अर्थात वक्री होने पर क्रूर ग्रह अति क्रूर फल देते हैं तथा सौम्य ग्रह अतिशुभ फल देते हैं। ’‘फलदीपिका’ के रचयिता श्री मंत्रेश्वर का मत है कि ग्रह जब वक्री होते हैं तो उन्हें चेष्टाबल प्राप्त होता हे।
चेष्टाबली ग्रह निःसंदेह राज्य और यश देते हैं यदि वे भाव संबंध से शुभ हों, किंतु यदि वे भाव संबंध से अशुभ हैं तो अच्छा फल नहीं देते। वक्री, अनुवक्री, विकल, मंदतर एवं मंद का चेष्टाबल क्रमशः 1, 1/2, 1/4, 1/8, 1/4, माना गया है। अस्तु वक्री ग्रह सर्वाधिक चेष्टाबली होने से बलवान होता है। ज्योतिष ग्रंथ ‘उत्तर कालामृत’ के ‘बलसाधन खंड’ के 6ठे श्लोक के अनुसार। वक्री सर्वोच्चबलः सवक्रसहित मध्यं बलं तुङ्गभे। वक्री नीचबलः स्वनीच भवने वक्री बलं तुङ्गजम्। उच्चस्थेन युवोऽर्द्धवीर्यमिति चेन्नीचे तु शून्यं बलं। मित्रैः पापखगैः शुभे रिपुखगैर्युक्तोऽपि चार्द्धं बलम्।।
अर्थात वक्री का बल उसके उच्च होने के समान समझना चाहिए। कोई ग्रह जब किसी वक्री ग्रह के साथ हो, तो उसको 1/2 रुपा (50प्रतिशत) बल और मिल जाता है। यदि कोई ग्रह उच्च परंतु वक्री हो तो उसको नीच (बल शून्य) समझना चाहिए। ग्रह यदि नीच परंतु वक्री हो तो अपनी उच्च राशि में होने जैसा बली होता है। उच्च ग्रह के साथ स्थित ग्रह 50 प्रतिशत अधिक बल पा जाता है। नीच ग्रह के साथ विद्यमान ग्रह शून्य बल पाता है। कोई ग्रह जब किसी नैसर्गिक पाप, परंतु मित्र अथवा नैसर्गिक मित्र, परंतु पापी ग्रह के साथ स्थित हो तो 1/2 रूपा (50 प्रतिशत) बल पाता है। ज्योतिष शास्त्र के प्रसिद्ध ग्रंथ ‘सारावली’ के अनुसार शुभ ग्रह वक्री होकर अति बलवान हो जाते हैं और जातक को राज्य सुख देते हैं, किंतु पाप ग्रह वक्री होने पर जातक व्यसनी, दुखदायी और व्यर्थ घूमने वाला होता है।
ज्योतिष ग्रंथ ‘भाव मंजरी’ के अनुसार यदि शुभ ग्रह उच्च राशि में स्थित होकर वक्री हो तो अधिक शुभ हो जाता है किंतु क्रूर ग्रह वक्री हो तो महाक्रूर हो जाता है। शुभ ग्रह से और अधिक शुभ फल मिलता है तथा वक्री पापी ग्रह से पाप फल भी अधिक मिलता है। वक्री ग्रह के संबंधित भाव से शुभ-अशुभ फल के विषय में भी आचार्यों में मतैक्य नहीं है। ज्योतिष ग्रंथ ‘साकेत निधि’ के अनुसार वक्री ग्रह का प्रभाव अपने कारकत्व भाव पर भी विशेष रूप से पड़ता है अर्थात् मंगल वक्री होने पर अपने तीसरे भाव, गुरु अपने से पंचम भाव, शुक्र अपने से सप्तम भाव, बुध चैथे स्थान एवं शनि नवम स्थान संबंधित फल विशेष रूप से देते हैं। ‘प्रश्न प्रकाश’ के अनुसार मंगल, बुध, शुक्र ग्रह बली होने पर और अतिचारी होने पर पूर्व राशि का फल देते हैं, किंतु शनि और गुरु जिस राशि में स्थित हों उसी का फल देते हैं।
इसके विपरीत ज्योतिष ग्रंथ ‘आरंभसिद्ध’ के अनुसार वक्री या अतिचारी होने पर मंगल 15 दिन तक, बुध 10 दिन तक, गुरु एक माह तक, शुक्र 10 दिन तथा शनि 5 माह आगे की राशि का फल देते हैं और उसके बाद अपनी राशि का फल देते हैं। कुछ आचार्य यह भी मानते हैं कि वक्री ग्रह का शुभ-अशुभ भाव का निश्चय उससे पहले भाव से सुनिश्चित किया जाना चाहिए जहां वह स्थित है क्योंकि ग्रह वक्री होने पर उसकी दृष्टि विपरीत हो जाती है। वक्री ग्रह के संबंध में व्यावहारिक रूप से जो सिद्धांत सुचारू रूप से प्रतिपादित होते हैं वह संक्षेप में निम्नानुसार है:
1. चूंकि ग्रह पृथ्वी के निकट होने से वक्री होते हैं इसलिए वक्री ग्रह बलशाली होकर अधिक प्रभावी हो जाते हैं।
2. नैसर्गिक रूप से सौम्य ग्रह वक्री होने पर अतिशुभ तथा क्रूर ग्रह वक्री होने पर महाक्रूर हो जाते हैं।
3. ग्रह अपनी नीच राशि या नीच नवांश में हो और वक्री हो किंतु अस्त नहीं हो तो उसे महाबली समझा जाना चाहिए। इसके विपरीत यदि कोई ग्रह उच्च, मित्र क्षेत्री, स्वगृही, वर्गोत्तमी होकर अस्त हो तो उसे अमावस्या के चंद्रमा की भांति निर्बल समझना चाहिए।
4. चूंकि वक्री अवस्था में ग्रह की गति सामान्य के विपरीत होती है, इसलिए इस अवस्था में ग्रह का व्यवहार असहज (सामान्य अवस्था से हटकर) होता है, वह अपनी दशा-अंतर्दशा में चैकाने वाले परिणाम भी देते हैं।
5. वक्री ग्रह के नैसर्गिक स्वभाव में और दृढ़ता आ जाती है किंतु व्यवहार में फलदाता के रूप में असहजता एवं अप्रत्याशितता का समावेश मुख्य रूप से होता है।
6. वक्री ग्रहों का प्रभाव चलित कुंडली के परिप्रेक्ष्य में भी विश्लेषित करना चाहिए। जातक को मिलने वाला शुभाशुभ फल जन्मकुंडली में निर्मित अन्य कारकों पर भी निर्भर होता है। यह बात भी अक्सर देखने में आती है कि यदि दो या अधिक पापी ग्रह एक साथ वक्री होते हैं तो कोई अप्रिय घटना वित्तीय बाजार में घटित होने की प्रबल संभावना बन जाती है। यदि तीन से अधिक ग्रह (सौम्य क्रूर दोनों) एक साथ वक्री होते हैं तो कोई बड़ी दुर्घटना विश्व स्तर पर घटित हो सकती है।