तंत्र में विभिन्न देवताओं की साधना करने से अलग-अलग सिद्धियां एवं फल प्राप्त होते हैं। यहां हम तंत्र के विशेष साधना क्रियाओं को ही स्पष्ट कर रहे हैं।
मूल रूप से महासिद्धियां आठ हैं:
1. अणिमा, 2. महिमा और 3. लघिमा देहसंबंधी सिद्धियां है।
1. ‘अणिमा’ सिद्धि से देह को अणु परमाणु परिमाण से छोटा बनाया जा सकता है। श्री हनुमानजी ने श्री सीताजी की खोज में अणु रूप से ही लंका में प्रवेश किया था।
2. ‘महिमा’ सिद्धि से देह को चाहे जितना बड़ा या भारी बनाया जा सकता है। समुद्र लंघन करते समय हनुमानजी ने अपने शरीर को पर्वतप्राय बनाया था।
3. ‘लघिमा’ सिद्धि से शरीर कपास से भी हल्का, हवा में तैरने लायक बनाया जा सकता है।
4. ‘प्राप्ति’ इन्द्रियों की महासिद्धि है।
5. ‘प्राकाम्य’ परलोकगत अदृश्य विषयों का परिज्ञान करानेवाली सिद्धि है।
6. ‘इशिता’ माया और तदंश भूत अन्य शक्तियों को प्रेरित करने वाली सिद्धि है।
7. ‘वशिता’ कर्मों में अलिप्त रहने और विषय-भोग में आसक्त न होने का सामथ्र्य देने वाली सिद्धि है।
8. ‘ख्याति’ त्रिभुवन के भोग और वांछित सुखों को अकस्मात् एक साथ दिलाने वाली सिद्धि है। ये अष्ट महासिद्धियां भगवान् में स्वभावगत् है, भगवदितरों को महान् कष्ट और प्रयास से प्राप्त हो सकती है। भगवान् और भगवदितर सिद्धों के बीच वैसा ही प्रभेद है, जैसा कि प्राकृतिक लौह चुंबक और कृत्रिम लौह चुंबक के बीच होता है।
गौण सिद्धियां दस हैं-
1 ‘अनूर्भि’ अर्थात् क्षुधा, तृषा, शोक-मोह, जहरा-मृत्यु इन षडऊभियों से देह का बेलाग रहना।
2. ‘दूरश्रवण सिद्धि’ अर्थात अपने स्थान से चाहे जितनी दूर का भाषण सुन लेना। (इस समय यह काम रेडियो कर रहा है। योगी अपने श्रवणेन्द्रियों की शक्ति को बढ़ाकर यह काम कर लेते हैं।)
3. ‘दूरदर्शन सिद्धि’ अर्थात त्रिलोक में होने वाले सब दृश्यों और कार्यों को अपने स्थान में बैठे ही देख लेना। (इस समय यह काम टेलिविजन कर रहा है। योगी अपने दर्शनेन्द्रिय की शक्ति को विकसित कर यह काम घर बैठे कर लेते हैं। संजय को व्यासदेव की कृपा से दूर श्रवण और दूरदर्शन दोनों सिद्धियां प्राप्त थीं।)
4. ‘मनोज व सिद्धि’ अर्थात् मनोवेग से चाहे जिस जगह शरीर तुरंत पहुंच सकना। (चित्रलेखा को यह सिद्धि तथा दूरदर्शन सिद्धि भी नारद भगवान् के प्रसाद से प्राप्त हुई थी।)
5. ‘कामरूप सिद्धि’ अर्थात चाहे जो रूप धारण कर लेना।
6. ‘परकायाप्रवेश’ अर्थात अपने शरीर से निकलकर दूसरे के शरीर में प्रवेश कर जाना।
7. ‘स्वच्छन्दमरण’ अर्थात् काल के वश में न होकर स्वेच्छा से कलेवर छोड़ना।
8. ‘देवक्रीड़ानुदर्शन’ अर्थात स्वर्ग में देवता जो क्रीडा करते हैं, उन्हें यहां से देखना और वैसी क्रीड़ा स्वयं कर सकना।
9. ‘यथासंकल्पसंसिद्धि’ अर्थात् संकल्पित वस्तु का तुरंत प्राप्त होना, संकल्पित कार्यों का तुरंत सिद्ध होना।
10. ‘अप्रतिहगति और आज्ञ’ अर्थात आज्ञा और गति का कहीं भी न रूकना। (इस सिद्धि से संपन्न योगी की आज्ञा को राजा भी सिर आंखों चढ़ाता है। ऐसे योगी जहां जाना चाहें जा सकते हैं।)....
क्षुद्रसिद्धियां पांच हैं-
1. ‘त्रिकालज्ञाता’- भूत, भविष्य, वर्तमान- इन तीनों कालों का ज्ञान (महर्षि बाल्मीकि जी को यह सिद्धि केवल अखंड राम-नाम स्मरण से प्राप्त हुई थी और इसी से वे श्री रामचंद्रजी के जन्म के पूर्व रामायण लिख सकें।
2. ‘अद्धन्द्ध्ता’ - शीत-ऊष्ण, सुख-दुःख, मृदु-कठिन आदि द्वंद्वांे के वश में न होना। (ऐसे सिद्ध पुरूष इस समय हिमालय में तथा अन्यत्र भी देखे जाते हैं।)
3. ‘परचित्ताद्याभिज्ञता’ दूसरों के मन का हाल जानना, दूसरों के देखे हुए स्वप्नों को जान लेना इत्यादि। (इसी को आजकल ‘थाॅट-रीडिंग’ कहते हैं।)
4. ‘प्रतिष्टम्भ’ - अग्नि, आयु, जल, शस्त्र, विष और सूर्य के ताप का कोई असर न होना।
5. ‘अपरातय’ - सब के लिये अजेय होकर सब पर जय लाभ करना। इन सब प्रकार की सिद्धियों को प्राप्त करने के लिए अनेक प्रकार के साधन हैं। मन में तरह-तरह की कामनाएं रखते हुए लोग इष्टसिद्धि के साधन में महान् कष्ट सहते हैं। तंत्र सिद्धियां रहस्यमयी हैं और हर प्रकार से कल्याणकारी हैं। तंत्र सिद्धियां ही परलोक सुधारने के उत्तम आध्यात्मिक साधना के मार्गों को दर्शाती हैं और दूसरी ओर सांसारिक संकटों से मुक्त करके अभिलाषाओं की पूर्ति के साधन प्रस्तुत करती हैं। मो. 9810487266