ग्रहों का उदय और अस्त प्रश्नः ग्रहों के उदय और अस्त से क्या तात्पर्य है? इनकी गणना कैसे की जाती है? इनका क्या फल है? भिन्न-भिन्न पंचांगों में उदय और अस्त को लेकर मतभेद होते हैं इसका क्या कारण है? अस्त एवं उदित ग्रह: सूर्य का प्रकाश सबसे अधिक होता हे। अतः इसे सभी ग्रहों का ‘राजा’ कहते हैं। जब कोई भी ग्रह अपने राजा सूर्य से एक निश्चित दूरी अर्थात अंश या डिग्री पर आ जाता है तो सूर्य की प्रचंड शक्ति की किरणों अर्थात् उसके तेज और ओज के आगे अन्य ग्रह की शक्ति (प्रकाश/ज्योति) कमजोर (मंद) पड़ जाती है। जिससे वह ग्रह क्षितिज पर दिखाई नहीं देता है तथा वह ग्रह अपने मौलिक अर्थात् प्राकृतिक गुण खो बैठता है यानि उसक प्रभाव कम होकर नगण्य हो जाता है। इस स्थिति में उस ग्रह को ‘अस्त’ होना कहते हैं। अर्थात् जब कोई भी ग्रह सूर्य के निकट एक निश्चित अंशयात्मक दूरी पर आता है तो यह अस्त हो जाता है। जिससे यह अशुभ फलदायक हो जाता है। वास्तव में ‘अस्त या अस्ता’ शब्द ग्रहों की गति से जुड़ा है। सूर्य सिद्धांत के अलावा भिन्न-भिन्न मतानुसार, ग्रहों की अनेक गतियां होती हैं। जिनमें से एक गति ‘अस्ता’ गति भी होती है। ‘‘यदि कोई भी ग्रह, सूर्य से समान भोगांशों पर हो तो वह ‘अस्ता गति’ कहलाती है।’’ जब तक सूर्य एवं उस ग्रह के मध्य एक निश्चित अंशात्मक दूरी का फासला नहीं हो जाता है। वह ग्रह ‘अस्त’ कहलाता है तथा निश्चित अंशात्मक दूरी होने पर उस ग्रह को ‘उदय’ होना कहते हैं ‘या ‘उदित’ ग्रह कहते हैं। इसलिए अस्त ग्रह कमजोर (निर्बल) होता है। अतः इसकी दशा लगते ही अशुभ और कष्टदायक स्थितियां आरंभ हो जाती हंै। इसके अलावा, यदि इस अस्त ग्रह पर किसी ग्रह की शुभ दृष्टि नहीं है तो उस भाव का परिणाम भी अशुभ होता है।
जिसका वह स्वामी, कारक, जिस भाव में स्थित हैं एवं जिस भाव पर इसकी दृष्टि है। यदि इस अस्त ग्रह पर किसी ग्रह की शुभ दृष्टि है तो उपरोक्त बुरे परिणाम प्राप्त नहीं होते हैं। उदित ग्रह पूर्णतः बली होता है। अतः इसकी दशा, समय में शुभ फल प्राप्त होते हैं। बशर्ते कि वह उच्च, मूल त्रिकोण, स्वग्रही या मित्र राशिगत हो। यदि यह उदित होकर नीच, शत्रुराशिगत, वक्री है तो भी शुभ के स्थान पर अशुभ परिणाम ही प्राप्त होंगे। गणना (अर्थात् अस्त ग्रहों की डिग्रियां या अंश): अस्त होने का दोष सूर्य के अलावा सभी आठो ग्रहों को लगता है। प्राचीन मान्यतानुसार, सूर्य से भिन्न-भिन्न अंशों या दूरियों (डिग्री) पर या उसके भीतर भिन्न-भिन्न ग्रहों का अस्त होना, मार्गी एवं वक्री, दोनों ही अवस्थाओं में निम्न सारणीनुसार है। परंतु, आधुनिक ज्योतिषानुसार अर्थात् अनुभव के आधार पर, उपरोक्त आठो ग्रह 3 या इससे कम अंश (डिग्री) या दूरी पर ही अस्त होते हैं।
जो कि सत्यता का प्रमाण भी देते हैं अर्थात सत्य के बहुत करीब पाये गये हैं।
उपरोक्त के अलावा, ग्रहों के अस्त मानने के अन्य नियम-
1. जो ग्रह सूर्य के बराबर या उसके पास की डिग्रियों पर होता है। उसे पूर्णतया अस्त कहा जाता है तथा इसकी गणना पूर्ण अस्त मानकर की जाती है। जोकि पूरा या बहुत अशुभ फलदायक होता है। इसे श्ूान्य उदित या उदित रहित अवस्था भी कहते हैं। अतः शुभ फल प्रभावहीन या शून्य हो जाते हैं।
2. जो ग्रह सूर्य से 88(डिग्री) पर होते हैं। उसे ‘अर्ध-अस्त’ कहा जाता है तथा इसकी गणना आधा अस्त मानकर की जाती है। जोकि आधी अशुभ एवं आधी शुभ फल देने वाली अर्थात् मध्यम होती है।
3. जो ग्रह सूर्य से 150 पर होता है। उसे पूर्णतः उदित कहा जाता है तथा इसकी गणना पूर्ण उदय मानकर की जाती है। जोकि पूर्णतः शुभ फल देने वाली होती है। उसे श्ूान्य अस्त या अस्त रहित अवस्था भी कहते हैं। अतः अशुभ फल प्रभावहीन या शून्य हो जाते हैं। परंतु पूर्णतया आदर्श आधार पर होना चाहिय कि-
4. जो ग्रह सूर्य से न्यूनतम दूरी अर्थात् - कम से कम अंश/डिग्री से पृथक होगा। उसी अनुसार इसे अस्त माना जायेगा। इसलिए उदित ग्रह पूर्णतः बलवान अर्थात् बली होता है। अतः इनका पूर्ण अच्छा परिणाम तभी प्राप्त होगा जबकि ये उच्च, मूलत्रिकोण, स्वगृही, अतिमित्र, मित्र राशि में हो तथा इनकी दशा भी चल रही हो तथा ये युवावस्था वाले अर्थात् 100-220 के बीच हो। यदि ये उनसे कम डिग्री के हो तथा दशायें भी नहीं चल रही हो तो शुभ फल में कमी हो जायेगी। इसके विपरीत, यदि नीच, शत्रु, अतिशत्रु राशि में हो तथा वक्री भी हो तथा युवावस्था (100-220) वाले भी हो तो उदित होकर भी अशुभ परिणाम देंगे। यदि ये युवावस्था की जगह कमजोर हो अर्थात् 100 से नीचे तथा 220 से उपर हो तो इसके अशुभ फल में डिग्रीयों के अनुसार कमी आयेगी।
अतः शुभ फल की प्राप्ति के लिये उदित ग्रहों को शुभ राशियों को युवावस्था की डिग्रियों में तथा अशुभ राशियों में मृत अवस्था (290-20) में होना चाहिये। इसके अलावा, ‘अस्त ग्रह’ अशुभ फलदायक होते हैं। अतः यदि ये शुभ मित्र राशियों में कमजोर अवस्था अर्थात् 290-20 के बीच स्थित हो तो कम से कम अशुभ फलदायक होगा तथा अशुभ या शत्रु राशियों में युवावस्था में स्थित हो तो ये अस्तग्रह और भी अधिक खराब फल करेंगे। यह स्थिति सबसे अधिक दुख एवं कष्टदायक होगी। अतः अस्तग्रहों को मित्र या शत्रु राशियों में निर्बल अवस्था में अर्थात्-290-20 के बीच स्थित होना चाहिये जिससे कि ये अस्त ग्रह न्यूनतम अशुभ फल करेंगे। यह स्थिति जबसे कम दुख एवं कष्टदायक होगी। पंचताराग्रहों के उदयास्त: पृथ्वी के अपनी धुरी पर 24 घंटों में पश्चिम से पूर्व की ओर घूमने के कारण सूर्य हमेशा प्रतिदिन पूर्व में उदित होकर पश्चिम में अस्त होता है। जब अपनी-अपनी कक्षाओं में भ्रमण करते हुये भौमादि पांच ग्रह सूर्य के समीप आते जाते हैं। तब सूर्य की तीव्र प्रभा के कारण ग्रह का आकाश में दृष्टिगत होना बंद हो जाता है।
इसी को अस्त कहते हैं। जब ग्रह सूर्यसे दूर निकलकर दिखाई देता है इसी को उदय कहते हैं।1 पृथ्वी के प्रत्येक स्थान पर क्रांतिवृत का आधा भाग अर्थात 180 अंश हमेशा हमें दृष्टिगोचर होता है। अतः जो भौमादि ग्रह क्रांतिवृत के इस दृश्य भाग में विद्यमान होंगे, केवल उन्हीं ताराओं को हम देख सकते हैं, बशर्ते कि उस समय दिन न हो अर्थात सूर्य अस्त हो चुका हो। स्पष्ट है कि सूर्य के साथ या उसके आसन्न वाले क्रांतिवृत (राशि चक्र) के भाग में स्थित ग्रह हमें दृष्टिगत नहीं होते हैं। जो ग्रह सूर्य से आगे या पीछे कुछ अंतर (7-8 अंश से अधिक की दूरी) पर स्थित हों, वे ही हमें सूर्योदय के पहले या सूर्यास्त के बाद आकाश में दिखाई देते हैं। उदाहरणार्थ - यदि राशि चक्र में सूर्य वृष राशि में 10 अंश पर स्थित है तथा शुक्र मेष राशि में 28 अंश पर और गुरु वृष राशि में 28 अंश पर स्थित है, तब स्पष्ट है कि शुक्र सूर्य से 12 अंश पीछे पश्चिम की ओर स्थित है। अतः शुक्र सूर्योदय के समय पूर्वी क्षितिज से 12 अंश की ऊंचाई पर दिखाई देगा। चूंकि गुरु सूर्य से 18 अंश आगे पूर्व की ओर स्थित है। अतः गुरु सूर्यास्त के समय पश्चिमी क्षितिज से 18 अंश की ऊंचाई पर स्पष्ट दिखाई देगा। इसी तरह सूर्य के सापेक्ष स्थिति के अनुसार पंचतारा ग्रहों की आकाश में स्थिति का ज्ञान किया जाता है। आंतरिक ग्रह - बुध एवं शुक्र पृथ्वी की अपेक्षा तीव्रगति वाले हैं। जब ये मार्गी गति कर रहे होते हैं, तब ये अपने से आगे पूर्व की ओर जा रहे सूर्य को जा मिलते हैं। ऐसी स्थिति में अस्त होने से पहले सूर्य से पीछे (पश्चिम की ओर) स्थित होते हैं, तब इन्हें सूर्योदय से पहले पूर्वी क्षितिज के ऊपर देखा जा सकता है।
दिन-प्रतिदिन सूर्य से इनका अंतर कम होने के कारण सांध्य प्रभा में प्रविष्ट होकर अस्त हो जाते हैं। अस्त होने के कुछ दिनों बाद मार्गी आंतरिक ग्रह अपनी तीव्र गति से सूर्य से आगे पूर्व की ओर निकलकर सूर्य की प्रभा सीमा के बाहर पुनः दैदीप्यमान हो उठते हैं। ऐसी स्थिति में वे सूर्यास्त के बाद पश्चिमी क्षितिज के ऊपर दृष्टिगत होते हैं। जब आंतरिक ग्रह वक्री होकर पूर्व से पश्चिम की ओर जाते हुये दृष्टिगत होते हैं, तब वे राशि चक्र में सूर्य से आगे पूर्व की ओर स्थित होते हैं। ऐसी स्थिति में वे सूर्यास्त के बाद पश्चिमी क्षितिज से ऊपर दृष्टिगत होते हैं। कुछ दिनों में सूर्य से इनका अंतर कम होने के कारण ये अदृश्य हो जाते हैं। अपनी तीव्र गति के कारण अस्त होने के कुछ ही दिनों बाद सूर्य से पीछे पश्चिम की ओर सूर्य की प्रभा सीमा के बाहर दैदीप्यमान हो उठते हैं। इस स्थिति में वे सूर्योदय से पूर्व पूर्वी क्षितिज पर उदित (दृश्य) हो जाते हैं। इस प्रकार स्पष्ट है कि मार्गी आंतरिक ग्रह (बुध, शुक्र) पूर्व में अस्त और पश्चिम में उदित तथा वक्री आंतरिक ग्रह पश्चिम में अस्त तथा पूर्व में उदित हुआ करते हैं।2 भौमादि बाह्यग्रह: पृथ्वी की अपेक्षा कम गति वाले है। अतः राशि चक्र में पश्चिम से पूर्व की ओर चलता हुए सूर्य (वास्तव में पृथ्वी) इससे जा मिलता है। जब बाह्यग्रह अस्त होने के पहले सायंकाल में सूर्यास्त के बाद पश्चिमी क्षितिज पर दिखाई देता है, तब वह पश्चिम में ही अस्त होता हैं अस्त होने के कुछ दिनों बाद तीव्र गति से चलता हुआ सूर्य उससे कई अंश आगे निकल जाता है, तब वे सूर्य की उज्जवल प्रभा सीमा के बाहर सूर्य से पीछे (पश्चिम की ओर) सूर्योदय से पहले पूर्व क्षितिज पर उदित होते हैं।
1 इस प्रकार स्पष्ट है कि बाह्यग्रह हमेशा पूर्व में उदित तथा पश्चिम में अस्त होता है। जबकि आंतरिक ग्रह कभी पूर्व में उदित तथा पश्चिम में अस्त तो कभी पूर्व में अस्त तथा पश्चिम में उदित हुआ करते हैं। अस्त अथवा उदित होने वाला प्रत्येक ग्रह सूर्यास्त के बाद पश्चिमी क्षितिज पर तथा सूर्योदय के पूर्व पूर्वी क्षितिज पर कुछ अंशों की ऊंचाई पर दृष्टिगत होता है। जो ग्रह पूर्व में अस्त होने जा रहा होता है, उसकी प्रातः पूर्वी क्षितिज से तथा जो ग्रह पश्चिम में अस्त होने जा रहा होता है उसकी सायं पश्चिमी क्षितिज से अंशात्मक दूरी प्रतिदिन कम होती जाती है। अंततः एक दिन अस्तगत ग्रह एवं सूर्य का पारस्परिक अंतर शून्य हो जाता है। कुछ दिनों बाद अस्तगह ग्रह का सूर्य से अंतर दूसरी दिशा में (यदि ग्रह पूर्व के अस्त हुआ हो तो पश्चिम की ओर यदि पश्चिम में अस्त हुआ हो तो पूर्व की ओर) बढ़ने लगता है। कुछ दिनों बाद यह अंतर इतना अधिक हो जाता है कि अस्तगत ग्रह पूर्वी या पश्चिमी क्षितिज पर फैली सूर्य प्रभा में पुनः दिखाई देने लगता है। इसे हम उस ग्रह का उदय कहते हैं।