त्योहार की एकरूपता के लिए जरूरी है तिथियों की एकरूपता
त्योहार की एकरूपता के लिए जरूरी है तिथियों की एकरूपता

त्योहार की एकरूपता के लिए जरूरी है तिथियों की एकरूपता  

सुनील जोशी जुन्नकर
व्यूस : 9017 | अप्रैल 2010

त्योहार की एकरूपता के लिए जरूरी है तिथियों की एकरूपता पं. सुनील जोशी जुन्नरकर ज्योतिष शास्त्र कालबोधक शास्त्र है। इसके तीन प्रमुख स्कंध हैं - सिद्धांत, संहिता व होरा। समय (काल) का ज्ञान सिद्धांत आधारित है। इसलिए सिद्धांत शास्त्रों के आधार पर ही कालबोधक पत्र (पंचांग) का निर्माण होता है। तिथि, वार, नक्षत्र, योग, करण ये पंचांग के पांच प्रमुख अंग है। भारतीय व्रत एवं पर्वों के निर्धारण में पंचांग की भूमिका अहम होती है। सभी श्रौत-स्मार्त कर्मों की सिद्धि शुभ मुहूर्त पर आधारित है। अतः शुभ कार्यों के शुभारंभ के लिए शुभ मुहूर्त हेतु भी पंचांग आवश्यक है। प्राचीन काल से आज तक भारतीय पंचांगों में कतिपय विभेद बने हुए हैं। उज्जैनी के राजा विक्रमादित्य के शासन काल में आचार्य वराहमिहिर ने पंचांग के भेदों को समाप्त करने का भरपूर प्रयत्न किया था जो कुछ सीमा तक सफल रहा। माह की गणना चांद्र मास के आधार पर और वर्ष की गणना सौर वर्ष के आधार पर करना उन्हीं की देन है।

ज्योतिषीय सिद्धांत शास्त्रों में मतभेद होने के कारण विभिन्न पंचांगें में न्यूनाधिक अंतर देखा जाता है। विडंबना यह है कि सभी पंचांगकर्ता अपने-अपने पंचांगीय सिद्धांतों को प्रामाणिक व उचित मानते हैं। ऐसे में तिथियों में भेद और पर्व त्योहारों में एकरूपता की कमी स्वाभाविक है। गृह लाघव हों पंचांग : प्राचीन काल में पंचांग निर्माण दो सिद्धांतों के आधार पर होता था - सूर्य सिद्धांत और चंद्र/आर्य सिद्धांत। कालांतर में मिश्रित पद्धतियों का विकास हुआ, जिनमें उक्त दोनों ही सिद्धांतों के समन्वय का प्रयास किया गया था। मिश्रित पद्धतियों के ग्रंथों में आचार्य गणेश दैवज्ञ कृत गृह लाघव ग्रंथ सर्वाधिक प्रामाणिक है। शुद्ध और प्रामाणिक पंचांग के निर्माण में यह गृह लाघवीय पंचांग पद्धति सर्वाधिक उपयुक्त है। कैसे हो त्योहारों में एकरूपता? यह एक महती प्रश्न है। इसके लिए तिथियों में एकरूपता आवश्यक है। पंचांगों में सबसे बड़ी विसंगति तिथि और नक्षत्र के भोगमान से संबंधित है। तिथियों व नक्षत्रों के प्रारंभ व समाप्ति काल विभिन्न पंचांगों में अलग-अलग लिखे जाते हैं। इस विभेद के कारण ही व्रत-पर्वों में अंतर आ जाता है।

फलतः हिंदुओं के व्रत-पर्व दो बार हो जाते हैं। हिंदुओं के अधिकांश व्रत-पर्व चांद्रमास और शुक्ल पक्ष की तिथियों से संबद्ध हैं। जो पंचांग तिथियों का आरंभ जल्दी से या पूर्व में ही कर देते हैं, उनके अनुसार व्रत-पर्व एक दिन पहले और जो पंचांग तिथियों का आरंभ देर से बताते हैं, उनके अनुसार एक दिन बाद आते हैं। अतः आवश्यकता इस बात की है कि सभी पंचांगों में तिथियों के प्रारंभ व समाप्ति काल में एकरूपता लाने का प्रयास किया जाए। नवीन ग्रंथों में उद्धृत उन सिद्धांतों पर विचार नहीं किया जाना चाहिए जो वैदिक सिद्धांतों के प्रतिकूल हैं। व्रत- पर्वों के निर्णय में धर्म सिंधु और निर्णय सिंधु का मूल मत ही ग्रहण किया जाए। कुछ व्रत-पर्वों का निर्णय सूर्योदय कालीन तिथि के आधार पर और कुछ का रात्रि व्यापिनी तिथि के आधार पर किया जाता है।

यद्यपि उदया तिथि ही प्रधान होती है, तथापि श्रीकृष्ण जन्माष्टमी का निर्णय रात्रिव्यापिनी अष्टमी के आधार पर किया जाता है। पूर्णिमा व्रत, संकष्ट चतुर्थी व्रत, करक चतुर्थी व्रत आदि का निर्णय चन्द्रोदय कालीन तिथि (पूर्णिमा व चतुर्थी) और शिव प्रदोष का निर्णय प्रदोषकालीन (संध्याकालीन) त्रयोदशी के आधार पर किया जाता है। श्रावणी सोमवार व्रत श्रावणी पूर्णिमा तक शास्त्रोचित है। कहा गया है : ''देवार्थे पौर्णमास्यंतो दर्शातः पितृकर्मणि।'' अर्थात व्रत-पर्वादि का निर्णय पूर्णिमांत मास के आधार पर करना चाहिए। पितृ संबंधी कार्य दर्श अमावस्या को करना उचित है। इस सिद्धांत के आधार पर पूर्णिमांत मास आधारित उत्तर भारतीय पंचांगों में निर्दिष्ट श्रावण माह में पड़ने वाले श्रावणी सोमवार का व्रत उचित है। वहीं दूसरी ओर अमांत मास आधारित दक्षिण भारतीय पंचांगों में श्रावणी पूर्णिमा के बाद कृष्णपक्ष में श्रावणी सोमवार का व्रत श्रेष्ठ फलदायी नहीं है और शास्त्रोचित भी नहीं है।

दक्षिण भारतीयों का अधिक मास सही है। सिद्धांतानुसार जिस अमांत मास में सूर्य संक्रांति नहीं होती, उसी अमांत आधारित चांद्र मास के नाम का अधिक मास होता है। अतः प्रथम मास अधिक या मलमास तथा सूर्य संक्रांति से युक्त द्वितीय मास शुद्ध या निज मास कहलाता है। सन् 2010 में दिनांक 15 अप्रैल से 14 मई तक अधिक वैशाख मास रहेगा तथा 15 मई से 12 जून तक शुद्ध वैशाख रहेगा, जो सही है। उत्तर भारतीय पूर्णिमांत मास आधारित पंचांगों में अधिक मास से पूर्व और पश्चात शुद्ध कृष्ण पक्ष और शुद्ध शुक्ल पक्ष होता है। यह विसंगतिपूर्ण है। इस वर्ष 30 मार्च से 14 अप्रैल तक प्रथम वैशाख कृष्ण पक्ष और 15 मई से 27 मई तक द्वितीय वैशाख शुक्ल पक्ष युक्तिसंगत प्रतीत नहीं होता है। अधिक मास के बाद एक शुद्ध मास अमांत मास पंचांगों में अनुकूल होता है, पूर्णिमांत पंचांग में नहीं। मकर संक्रांति के बाद शिशिर ऋतु में, माघ शुक्ल पंचमी को श्री सरस्वती जयंती और वसंत पंचमी मनाई जाती है, जो सही नहीं है।

कुंभ संक्रांति के बाद वसंत ऋतु में, फाल्गुन शुक्ल पंचमी को ही श्री वसंत पंचमी पर्व मनाना उचित है, क्योंकि यह पर्व वसंत ऋतु के आगमन का सूचक है। जैसा कि सभी जानते हैं, होली पूर्णिमा से वसंतोत्सव प्रारंभ हो जाता है। अतः भारतीय पंचांगों में होली पूर्णिमा के दस दिन पूर्व फाल्गुन शुक्ल पंचमी के दिन ही श्री वसंतपंचमी लिखी जानी चाहिए। पंचांगों में बहुत से व्रत-पर्वों को श्रौत-स्मार्त या वैष्णव-निंबार्क अथवा गृहस्थ-संन्यासी के भेद के आधार पर अलग-अलग दिनों को प्रदर्शित किया जाता है। अर्थात एक ही त्योहार दो बार हो जाता है, जो उचित नहीं है, क्योंकि वास्तव में श्रौत-स्मार्त या वैष्णव-निंबार्क का कोई सुस्पष्ट भेद दिखाई नहीं देता है। रही बात संन्यासियों की।

तो संन्यासी का पंचांगों से कोई वास्ता नहीं होता। जो सच्चा संन्यासी है, वह तो वीतरागी है। उसे भजन या ध्यान करने के लिए शुभाशुभ मुहूर्त देखने की आवश्यकता नहीं होती। वेद विहित लौकिक कर्म संन्यासी को आकृष्ट नहीं करते हैं, इसलिए वेद का नेत्र कहे जाने वाले ज्योतिष शास्त्र या पंचांग की सच्चे संन्यासी को आवश्यकता बहुत कम पड़ती है। तात्पर्य यह कि पंचांगों में व्रत, पर्व आदि का निर्धारण केवल गृहस्थों को ध्यान में रखकर ही किया जाना चाहिए। इससे व्रतों, पर्वों, त्योहारों आदि में एकरूपता आएगी। भारतीय पंचांगों में गुरु, शनि, राहु, केतु आदि ग्रहों के राशि परिवर्तन में एकरूपता दिखाई नहीं देती है। विभिन्न पंचांग एक या दो दिनों के अंतर से गुरु आदि ग्रहों का राशि परिवर्तन प्रदर्शित करते हैं।

कभी-कभी तो 10-12 दिनों का अंतर दिखाई देता है। ऐसे में यह निर्णय करना मुश्किल होता है कि किस पंचांग का ग्रहस्पष्ट सही है जबकि सभी पंचांगों में निरयण ग्रह स्पष्ट ही लिखा जाता है। पंचांग के ग्रहस्पष्ट वास्तविक स्थिति में प्रदर्शित नहीं किए जाते हैं। वेधशाला (ऑब्जर्वेट्री) के अभाव में पंचांग के ग्रह वेधसिद्ध नहीं होते हैं। बीज संस्कार के माध्यम से ग्रहों को दृक्कतुल्य बनाकर उन्हीं राशि अंशों पर लिखा जाना चाहिए, जहां वे वास्तव में गोचर कर रहे हों।



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